Gyan Ganga: धागे की संरचना को ध्यान से देखेंगे तो जीवन के लिए कई संदेश मिल जाएंगे
यह सोच कर धागा रूपी संत स्वयं को कष्ट देकर दूसरों के दुख को हरते हैं। तब कहीं जाकर वह सूई भी, अलग थलग पड़े कपड़ों को एक करके, उन्हें आकार में ढालकर किसी मानव के तन को ढंकने का पुनीत कार्य पूर्ण कर पाती है।
हम गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा गाई व लिखी गई श्रीरामचरित मानस में संतों की महिमा को श्रवण कर रहे हैं। विगत अंक में हम परिचित हुए, कि संत निरस भी हैं, और विसद भी हैं। लेकिन संतों के गुणों को ऐसे ही गाने व लिखने के लिए, क्या किसी कलम में सामर्थ है? निःसंदेह नहीं है। क्योंकि संसार में संतों जैसा त्यागी व बलिदानी कोई भी नहीं है। आप स्वयं भी अपने चारों ओर दृष्टि घुमा कर देखेंगे, तो पायेंगे, कि कोई भी व्यक्ति स्वयं को कष्ट देकर, दूसरों को सुख देने की भावना से कोसों दूर है। स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुख देना तो बहुत दूर की बात, मानव की वृति तो इस स्तर तक गिर चुकी है, कि वह दूसरों के सुख को देख कर ही दुखी हो जाता है। लेकिन गोस्वामी जी कहते हैं, कि संत तो ऐसे होते हैं, जैसे धागा होता है।
धागा--? निश्चित ही आप सोच रहे होंगे, कि संत की तुलना एक साधारण से धागे से करके, गोस्वामी जी ने भला कौन-सा बड़ा संदेश दे दिया? दिखने में भले ही गोस्वामी जी के शब्द बड़े साधारण व सरल से हों। लेकिन धागे से संतों की तुलना में उन्होंने मानों इस एक शब्द में ही पूरी संत चरित्र की गाथा लिख डाली।
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आप धागे की संरचना व कार्य को तनिक ध्यान से देखिए। क्या कोई धागा ऐसे सरलता से ही आकार ले लेता है? जी नहीं। धागे के निर्माण में अनंत संघर्ष, तपस्या व कष्टों की श्रृंखला है। धागा निःसंदेह कपास से ही बनता है। लेकिन कपास से धागा बनने के लिए, कपास को भयंकर पिसाई के अत्याचारों से गुजरना पड़ता है। खूब पिसने के पश्चात, जब वह कपास फूल जाती है और उसकी पौनियां बना ली जाती हैं, तो उन्हें चरखे की चरखी पर घूमने के लिए छोड़ दिया जाता है। पौनी को चरखे पर कसी एक तीखी लंखी सी कील पर लपेट दिया जाता है, जिसे हम ‘तक्कला’ कहते हैं। जैसे-जैसे चरखी का पहिया घूमता है, वैसे-वैसे वह तक्कला, चरखी से भी कई गुणा तेज़ी से घूमता है। इस घूमने में कपास को मानों काल की पहिए पर घूमने जैसा प्रतीत होत है। तब कहीं जाकर उस कपास से धागा फूटना आरम्भ होता है।
फिर वह धागा भला अकेला भी क्या करे। वह स्वयं तो किसी की नग्नता ढंकने में सक्षम नहीं होता। ऐसे में वह सहारा लेता है एक सूई का। धागा जब देखता है, कि सूई में छेद है। तो धागा सोचता है, कि संसार के लोगों के तन की नग्नता ढंकने का कार्य तो बाद में देखेंगे, पहले इस सूई की नग्नता तो ढंक ली जाये। कारण कि इसमें निहित छेद इसे अवश्य ही पीड़ा पहुँचाता होगा। तो क्यों न मैं इसके छेद में ही स्वयं को पिरो दूँ, और इसके छेद को हर लूँ। हाँ, इससे मुझे भले ही पीड़ा होगी, लेकिन यह भी सत्य है, कि सूई की नग्नता तो ढंक ही जायेगी।
यह सोच कर धागा रूपी संत स्वयं को कष्ट देकर दूसरों के दुख को हरते हैं। तब कहीं जाकर वह सूई भी, अलग थलग पड़े कपड़ों को एक करके, उन्हें आकार में ढालकर किसी मानव के तन को ढंकने का पुनीत कार्य पूर्ण कर पाती है।
इतिहास उठा कर देखिए। वे संत ही थे, जिन्होंने समाज के कल्याण व दुखों को हरने के लिए, स्वयं के समस्त सुखों को तिलाँजलि दे, केवल परहित की सोची। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन चरित्र को उठा कर ही देख लीजिए। उन्हें अपने स्वयं के जीवन में भला क्या समस्या हो सकती थी? इतनी संगत उन्हें भगवान की तरह पूजती थी। उनके एक आदेश पर, उनके शिष्य उन्हें अपने सिर उतार कर देने तत्पर थे। लेकिन तब भी उन्होंने किसका चयन किया? क्या उन्होंने संसार के सुखों को भोगने का मार्ग चुना? या फिर संसार के लोगों को अधर्म से बचाने के लिए, स्वयं ही धर्म पर न्यौछावर हो जाने को प्राथमिकता दी? केवल वे स्वयं ही नहीं, अपितु अपने पिता व चार नन्हें-नन्हें बालकों को भी वे धर्म हेतु न्यौछावर करने से पीछे नहीं हटते हैं।
संतों का हृदय है ही ऐसा, कि वे अपना आँगन उजाड़ कर दूसरे की कुटिया बचाने को सदैव तत्पर रहते हैं। दूसरे का चूलहा कैसे जले, उन्हें बस इसी की चिंता है। भले ही इसके लिए उन्हें अपनी जिंदगी ही क्यों न जलानी पड़े।
संतों की महिमा में गोस्वामी जी अभी भी बहुत से महान चिंतन प्रस्तुत करने वाले हैं। जिन्हें हम आगामी अंकों में श्रवण करेंगे। (क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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