नवरात्रि में जागरण करवा रहे हैं तो तारा रानी की कथा सुनने पर ही मनोकामना पूर्ण होगी

Navratri 2022
unsplash
शुभा दुबे । Sep 29 2022 5:34PM

राजा ने तारामति की भक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा कि हे तारा! मैं तुम्हारे आचरण से अति प्रसन्न हूं। मेरे धन्य भाग जो तुम मुझे पत्नी के रूप में प्राप्त हुई हो। इसके पश्चात राजा हरिश्चन्द्र ने भव्य मंदिर तैयार करवाया।

नवरात्रि पर्व में देश के विभिन्न हिस्सों में माता के जागरण और चौकियों का आयोजन किया जाता है। आज के युग में माता के जागरण का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। जागरणों में आजकल गायक फिल्मी गानों की तर्ज पर माता की भेटें ज्यादा गाते हैं और भक्तगणों को भी लगता है कि बस नाचो गाओ और प्रसाद लेकर आ जाओ। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। इस आयोजन की जो शुद्धता है उसे बनाये रखना चाहिए। माता के जागरण को फैन्सी स्वरूप देने वाले आजकल के कई गायक जागरण के अंत में तारा रानी की कथा नहीं सुनाते जोकि गलत है। प्राचीन काल से माता के जागरण में महारानी तारा देवी की कथा कहने−सुनने की परंपरा चली आई है। यह बात सभी को ध्यान रखनी चाहिए कि बिना इस कथा के जागरण को संपूर्ण नहीं माना जाता है। कलयुग में दुर्गा शक्ति की पूजा से ही भक्तों के मन की मनोकामना पूर्ण होती है और मन को शांति मिलती है। इसलिए यदि जागरण करवा रहे हैं या जागरण में भाग ले रहे हैं तो तारा रानी की कथा अवश्य सुनें।

तारा रानी की कथा इस प्रकार है−

महाराजा दक्ष की दो पुत्रियां तारा देवी एवं रुकमण भगवती दुर्गाजी की भक्ति में अटूट विश्वास रखती थीं। दोनों बहनें नियमपूर्वक एकादशी का व्रत किया करती थीं तथा माता के जागरण में प्रेम के साथ कीर्तन एवं महात्म्य कहा सुना करती थीं। एकादशी के दिन एक बार भूल से छोटी बहन रुकमण ने मांसाहार कर लिया। जब तारा देवी को पता लगा तो उसे रुकमण पर बड़ा क्रोध आया और बोलीं कि तू है तो मेरी बहन, परंतु मनुष्य देह पाकर भी तूने नीच योनि के प्राणी जैसा कर्म किया, तू तो छिपकली बनने योग्य है। बड़ी बहन के मुख से निकले शब्दों को रुकमण ने शिरोधार्य कर लिया और साथ ही प्रायश्चित का उपाय पूछा। तारा ने कहा कि त्याग और परोपकार से सब पाप छूट जाते हैं।

दूसरे जन्म में तारा देवी इंद्रलोक की अप्सरा बनीं और छोटी बहन रुकमण छिपकली योनि में प्रायश्चित का अवसर ढूंढने लगी। द्वापर युग में जब पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ किया तब उन्होंने दूत भेजकर दुर्वासा ऋषि सहित तैंतीस करोड़ देवताओं को निमंत्रण दिया। जब दूत दुर्वासा ऋषि के स्थान पर निमंत्रण लेकर गया तो दुर्वासा बोले कि यदि तैंतीस करोड़ देवता उस यज्ञ में भाग लेंगे तो मैं उसमें सम्मिलति नहीं हो सकता। दूत तैंतीस करोड़ देवताओं का निमंत्रण देकर वापिस पहुँचा और दुर्वासा ऋषि का वृतांत पाण्डवों को कह सुनाया कि वह सब देवताओं को बुलाने के कारण नहीं आएंगे। यज्ञ आरम्भ हुआ। तैंतीस करोड़ देवता यज्ञ में भाग लेने आये। उन्होंने दुर्वासा ऋषि जी को न देखकर पाण्डवों से पूछा कि ऋषि को क्यों नहीं बुलवाया। इस पर पाण्डवों ने नम्रता सहित उत्तर दिया कि निमंत्रण भेजा था परंतु वह अहंकार के कारण नहीं आए। यज्ञ में पूजन हवन आदि निर्विध्न संपन्न हुए। भोजन के लिए भण्डारे की तैयारी होने लगी।

दुर्वासा ऋषि ने देखा कि पाण्डवों ने उनकी उपेक्षा कर दी है तो उन्होंने क्रोध करके पक्षी का रूप धारण किया, चोंच में सर्प लेकर भण्डारे में फेंक दिया। इसका किसी को कुछ भी पता नहीं चला। वह सर्प खीर की कढ़ाई में गिरकर छिप गया। एक छिपकली जोकि पिछले जन्म में तारा देवी की छोटी बहन थी तथा बहन के शब्दों को शिरोधार्य कर इस जन्म में छिपकली बनी थी, सर्प का भण्डारे में गिरना देख रही थी। उसे त्याग व परोपकार की शिक्षा अब तक याद थी। वह छिपकली घर की दीवार पर चिपकी समय की प्रतीक्षा करती रही। कई लोगों के प्राण बचाने हेतु उसने अपने प्राण न्यौछावर कर देने का मन ही मन निश्चय किया। जब खीर भण्डारे में दी जाने वाली थी तो सबकी आंखों के सामने वह छिपकली दीवार से कूदकर कढ़ाई में जा गिरी।

इस प्रकार सब लोग छिपकली को बुरा−भला कहते हुए खीर की कढ़ाई को खाली करने लगे तो उस समय उन्होंने उसमें मरे हुए सांप को देखा। अब सबको मालूम हुआ कि छिपकली ने अपने प्राण देकर उन सबके प्राणों की रक्षा की है। इस प्रकार उपस्थित सभी सज्जनों और देवताओं ने उस छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे सब योनियों में उत्तम मनुष्य योनि प्राप्त हो तथा अंत में मोक्ष को प्राप्त करे। तीसरे जन्म में छिपकली राजा स्पर्श के घर कन्या बनी। दूसरी बहन तारा देवी ने फिर मनुष्य का जन्म लेकर तारामति नाम से अयोध्या के प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र के साथ विवाह किया। राजा स्पर्श ने ज्योतिषियों से कन्या की कुण्डली बनवाई। ज्योतिषियों ने राजा को बताया कि कन्या राजा के लिए हानिकारक सिद्ध होगी, शकुन ठीक नहीं है इसलिए आप इसे मरवा दीजिए। राजा बोला कि लड़की को मारना बहुत बड़ा पाप है। मैं उस पाप का भागी नहीं बन सकता। तब ज्योतिषियों ने विचार कर राय दी कि हे राजन! आप एक लकड़ी के संदूक में ऊपर से सोना−चांदी आदि जड़वा दें। फिर उस संदूक के भीतर लड़की को बंद करके नदी में प्रवाहित करा दीजिए। सोना−चांदी जंडि़त लकड़ी का संदूक अवश्य ही कोई लालच से निकाल लेगा और आपकी कन्या को भी पाल लेगा। ऐसे में आपको किसी प्रकार का पाप भी नहीं लगेगा। इस प्रकार नदी में बहता हुआ संदूक काशी के समीप एक हरिजन को दिखाई दिया। वह संदूक को नदी से बाहर निकाल लाया। जब खोला तो उसमें सोने−चांदी के अतिरिक्त रूपवान कन्या भी दिखाई दी।

उस हरिजन के कोई संतान नहीं थी। जब उसने अपनी पत्नी को वह कन्या दी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने अपनी संतान के समान ही बच्ची को छाती से लगा लिया। भगवती की कृपा से उसके स्तनों में दूध उतर आया। पति−पत्नी ने प्रेम से कन्या का नाम रुक्को रख दिया। जब वह कन्या विवाह योग्य हुई तो हरिजन ने उसका विवाह अयोध्या के सजातीय युवक के साथ बड़ी धूमधाम से किया। इस प्रकार पहले जन्म की रुकमण, दूसरे जन्म की छिपकली तथा तीसरे जन्म में रुक्को बन गई। रुक्को की सास महाराज हरिश्चन्द्र के घर सफाई आदि करने जाया करती थी। एक दिन वह बीमार पड़ गई। रुक्को महाराज हरिश्चन्द्र के घर काम करने के लिए पहुंच गई। महाराज की पत्नी तारामति ने जब रुक्को को देखा तो वह अपने पूर्व जन्म के पुण्य से उसे पहचान गई। तब तारामति ने रुक्को से कहा कि हे बहन! तुम यहां मेरे निकट आकर बैठो। महारानी की बात सुनकर रुक्को बोली कि रानी जी मैं नीच जाति की भीलनी हूं, भला मैं आपके साथ कैसे बैठ सकती हूं।

तब तारामति ने कहा कि बहन! पूर्व जन्म में तुम मेरी सगी बहन थी। एकादशी का व्रत खण्डित करने के कारण तुम्हें छिपकली की योनि में जाना पड़ा। जो होना था वह हो चुका। अब तुम अपने इस जन्म को सुधारने का प्रयास करो तथा भगवती वैष्णों देवी माता की सेवा करके अपना जन्म सफल बनाओ। यह सुनकर रुक्को को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उसका उपाय पूछा। रानी ने बताया कि वैष्णों माता सब मनोरथों को पूरा करने वाली हैं। जो लोग श्रद्धापूर्वक माता का पूजन व जागरण करते हैं उनकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

रुक्को खुश होकर माता की मनोती करते हुए बोली कि हे माता! यदि आपकी कृपा से मुझे एक पुत्र प्राप्त हो जाए तो मैं भी आपका पूजन व जागरण करवाउंगी। प्रार्थना को माता ने स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप दसवें महीने उसके गर्भ से एक अत्यंत सुंदर बालक ने जन्म लिया परंतु दुर्भाग्यवश रुक्को को माता का पूजन वा जागरण कराने का ध्यान नहीं रहा। परिणाम यह हुआ कि जब वह बालक पांच वर्ष का हुआ तो उसे एक दिन तेज बुखार आ गया और तीसरे दिन चेचक यानि माता निकल आईं। रुक्को दुखी होकर अपने पूर्व जन्म की बहन तारामति के पास गई और बच्चे की बीमारी सब वृतान्त कह सुनाया।

सब बातें सुन तारामति ने कहा कि तू जरा ध्यान करके देख कि तुझसे माता के पूजन में कोई भूल तो नहीं हुई। इस पर रुक्को को छह वर्ष पहले की बात का ध्यान आ गया और उसने अपना अपराध स्वीकार किया और कहा कि बच्चे को आराम आने पर अवश्य जागरण करवाउंगी। भगवती की कृपा से बच्चा दूसरे दिन ही ठीक हो गया। तब रुक्को ने देवी के मंदिर में जाकर पंडित से कहा कि मुझे अपने घर माता का जागरण करवाना है। पंडित जी बोले कि रुक्को पांच रुपए दे जा। हम तेरे नाम से यहीं मंदिर में जागरण करवा देंगे। तू नीच जाति की स्त्री है इसलिए हम तेरे घर चलकर देवी का जागरण नहीं कर सकते। रुक्को ने कहा कि हे पंडित जी माता के दरबार में तो उंच−नीच का कोई विचार नहीं होता। वे तो सब भक्तों पर समान रूप से कृपा करती हैं। इसलिए आपको कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। इस पर पंडितों ने आपस में विचार कर कहा कि यदि महारानी तारामति तुम्हारे जागरण में पधारें तो हम भी स्वीकार कर लेंगे।

इसे भी पढ़ें: नवरात्रि के पावन दिनों में मां की आराधना करने से होती है हर मनोकामना पूरी

यह सुनकर रुक्को महारानी तारामति के पास गई और सब वृतांत कह सुनाया। तारामति ने जागरण में शामिल होना सहर्ष स्वीकार कर लिया। जिस समय रुक्को पंडित से यह कहने गई कि महारानी जागरण में आएंगी उस समय सैना नाई ने यह सुन लिया और महाराज हरिश्चन्द्र को जाकर सूचना दी। राजा ने सैना नाई से सब बात सुनकर कहा कि तेरी बात झूठी है। महारानी हरिजनों के घर जागरण में नहीं जा सकतीं। फिर भी परीक्षा लेने के लिए राजा ने रात को अपनी उंगली पर थोड़ा चीरा लगा लिया जिससे नींद नहीं आए। रानी तारामति ने जब यह देखा कि जागरण का समय हो रहा है परंतु महाराज को नींद नहीं आ रही है तो उसने माता वैष्णों देवी से मन ही मन प्रार्थना की कि हे माता आप किसी उपाय से राजा को तुरंत सुला दें ताकि मैं जागरण में सम्मिलित हो सकूं।

राजा को नींद आ गई। रानी तारामति रोशनदान से रस्सी बांधकर महल से उतरीं और रुक्को के घर जा पहुंचीं। उस समय जल्दी के कारण रानी के हाथ का रेशमी रुमाल तथा पांव की एक पायल रास्ते में गिर गई। उधर थोड़ी देर बाद राजा हरिश्चन्द्र की नींद खुल गई। तब वह रानी का पता लगाने के लिए निकल पड़े। मार्ग में पायल और रुमाल उनको मिले और वह जागरण वाले स्थान पर जा पहुंचे। राजा ने दोनों चीजें रास्ते से उठाकर अपने पास रख लीं और जहां जागरण हो रहा था वहां पर एक कोने में चुपचाप बैठकर सब दृश्य देखने लगा।

जब जागरण समाप्त हुआ तो सबने माता की आरती व अरदास की। उसके बाद प्रसाद बांटा गया। रानी तारामति को जब प्रसाद मिला तो उसने झोली में रख लिया। यह देखकर लोगों ने पूछा कि आपने प्रसाद क्यों नहीं खाया। यदि आप प्रसाद नहीं खाएंगी तो कोई भी नहीं खाएगा। रानी बोलीं कि तुमने जो मुझे प्रसाद दिया है वह मैंने महाराज के लिए रख लिया। अब मुझे मेरा प्रसाद दे दो। अबकी बार प्रसाद लेकर तारा ने खा लिया। उसके बाद सब भक्तों ने माता का प्रसाद खाया। इस प्रकार जागरण समाप्त करके प्रसाद खाने के प्रश्चात रानी तारामति घर की ओर चलीं। तब राजा ने आगे बढ़कर रास्ता रोक लिया और कहा कि तूने नीचों के घर का प्रसाद खाकर अपना धर्म नष्ट कर लिया है। अब मैं तुझे अपने घर में कैसे रखूं। तूने तो कुल की मर्यादा, मेरी प्रतिष्ठा का भी ध्यान नहीं रखा। जो प्रसाद तू अपनी झोली में रखकर मेरे लिए लाई है उसे खिलाकर मुझे भी अपवित्र बनाना चाहती है। ऐसा कहते हुए जब राजा ने झोली की ओर देखा तो भगवती की कृपा से प्रसाद के स्थान पर उसमें चम्पा, चमेली, गेंदे के फूल, कच्चे चावल, सुपारी, मखाने, छुआरे और नारियल दिखाई दिए। 'इसी प्रसाद को ही बांटे का प्रसाद कहते हैं'। राजा हरिश्चन्द्र रानी तारा को लेकर साथ लौट आया। वहां रानी ने ज्वाला मैया की शक्ति से बिना माचिस व चकमक पत्थर की सहायता लिए बिना राजा को अग्नि प्रज्ज्वलित करके दिखाई जिसे देखकर राजा का आश्चर्य और बढ़ गया। राजा के मन में देवी के प्रति विश्वास व श्रद्धा जाग उठी। इसके बाद राजा ने रानी से कहा कि मैं माता के प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूं। रानी बोलीं कि प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए बहुत बड़ा त्याग होना चाहिए। यदि आप अपने पुत्र रोहित की बलि दे सकें तो आपको दुर्गा देवी के प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हो सकते हैं। राजा के मन में देवी के दर्शन करने की लगन हो गई थी। राजा ने पुत्र का मोह त्याग कर रोहित का सिर देवी को अर्पण कर दिया। ऐसी सच्ची श्रद्धा एवं विश्वास देखकर दुर्गा माता सिंह पर सवार होकर उसी समय प्रकट हो गईं और राजा हरिश्चन्द्र माता के दर्शन करके कृतार्थ हुए। मरा हुआ पुत्र भी जीवित हो गया। उन्होंने विधिपूर्वक माता का पूजन करके अपराधों की क्षमा मांगी। सुखी रहने का आर्शीवाद देकर माता अर्न्तध्यान हो गईं।

इसे भी पढ़ें: शारदीय नवरात्रि: नवरात्रि के 9 दिनों तक करें ये अचूक उपाय, मिलेगी हर काम में सफलता, होगी हर इच्छा पूरी

राजा ने तारामति की भक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा कि हे तारा! मैं तुम्हारे आचरण से अति प्रसन्न हूं। मेरे धन्य भाग जो तुम मुझे पत्नी के रूप में प्राप्त हुई हो। इसके पश्चात राजा हरिश्चन्द्र ने भव्य मंदिर तैयार करवाया। रानी तारा देवी एवं रुकमण दोनों मनुष्य योनि से छूटकर देवलोक को प्राप्त हुईं।

माता के जागरण में तारा रानी की इस कथा को जो मनुष्य भक्ति भाव से पढ़ता या सुनता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा सुख एवं समृद्धि बढ़ती है। शत्रुओं का नाश एवं सर्वमंगल होता है। इस कथा के बिना जागरण सम्पूर्ण नहीं माना जाता। ।। जयकारा शेरांवाली का, बोल सांचे दरबार की जय।।

-शुभा दुबे

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़