Gyan Ganga: भगवान मोह माया से परे हैं किंतु भक्त के मोह में वे सदा बंधे होते हैं
जब श्रीलक्षमण जी को मेघनाद का शक्ति बाण लगा था, और श्रीलक्षमण जी मूर्छित हो गए थे, तो श्रीराम जी भी ऐसे ही फूट-फूट कर रोये थे। श्रीलक्षमण जी के लिए, उनका यह रोना कोई भाई के नाते रोना नहीं था। अपितु अपने भक्त के लिए रोना था।
भगवान शंकर के वैराग्य की चहुँ चर्चा है। कारण कि आज तक भक्तों को तो सबने देखा था, कि वे अपने प्रभु के वियोग में पागल हुए घूमते हैं। किंतु स्वयं भगवान ही अपने भक्त के वियोग में घूमते फिरें, यह आज प्रथम बार देखने को मिल रहा था। अपनी इस पावन लीला से भगवान शंकर, संसार को यह दिखाना चाहते हैं, कि तुम भगवान को स्वयं से अलग मत समझो। तुम उसके लिए प्रेम भाव तो रखो, फिर देखना, वह कैसे तुम्हारे लिए बाँवरा हो करके चहुँ दिशायों में घूमता है। निश्चित ही प्रभु मोह माया से परे हैं। किंतु अपने भक्त के मोह में वे सदा से ही बँधे होते हैं।
जब श्रीलक्षमण जी को मेघनाद का शक्ति बाण लगा था, और श्रीलक्षमण जी मूर्छित हो गए थे, तो श्रीराम जी भी ऐसे ही फूट-फूट कर रोये थे। श्रीलक्षमण जी के लिए, उनका यह रोना कोई भाई के नाते रोना नहीं था। अपितु अपने भक्त के लिए रोना था। कारण कि संसार में वैसे तो प्रभु ही सबके पिता हैं। किंतु जब वे देह धारण करके आते हैं। तब वे कभी किसी के पुत्र बनकर आते हैं, तो कभी भाई, पति अथवा पिता बनकर भी आते हैं। लेकिन जब प्रभु से पूछा गया, कि वे सबसे महान व उत्तम संबंध किस रिश्ते को मानते हैं? तो उन्होंने एक ही वाक्य में सारी बात का सार दे डाला-
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‘कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता।।’
श्रीराम जी शबरी माता के माध्यम से बता रहे हैं, कि हे शबरी! भले ही सारी दुनिया यह समझे, कि मैं अपनी पत्नी के वियोग में वनों में भटक रहा हुँ। किंतु मैं स्पष्ट कर देना चाहता हुँ, कि मेरा किसी से कोई नाता नहीं है। अगर नाता है, तो फिर वह केवल एक ही नाता है, और वह है भक्ति का नाता।
श्रीराम जी बड़ी दृढ़ता से कहना चाह रहे हैं, कि मैंने वनवास इतना सुनकर ही स्वीकार कर लिया था, कि पिता जी ने मेरे लिए वनों का राज्य चुना है। पिता की आज्ञा मेरे लिए इतनी मायने रखती थी, कि मैं वनों के लिए चल निकला। लेकिन वहीं दूसरी और जब पिता जी ने सरयु नदी के किनारे मुझे वापिस लाने के लिए सामंत जी को भेजा, तो मैं वापिस नहीं आया। मैंने अबकी बार पिता की आज्ञा नहीं मानी। तो इसका अर्थ क्या यह हुआ, कि मैं पुत्र की मर्यादा नहीं निभा पाया? मैं पिता पुत्र के रिश्ते के साथ न्याय नहीं कर पाया? नहीं ऐसा नहीं है। सत्य तो जबकि यह है, कि मैं पिता के वचनों से वनों में थोड़ी गया था। पिता तो केवल अपने प्रारब्ध के चलते बस एक बहाना बन गये। वास्तव में मुझे अपने भक्त पुकार रहे थे। मुझे पुकार रहे थे हनुमंत लाल, अंगद व शबरी जैसे मेरे प्रिय भक्त। जिनसे मेरा जन्मों-जन्मों से नाता है। वही नाते को आकार देने के लिए ही मेरा पृथवी पर जन्म होता है। मैं ही क्यों? मैं किसी भी रुप में अवतार लूँ, संसारिक रिश्ता तो एक बहाना है। मैं सदा सदा के लिए ही अपने भक्तों के लिए आता हूं। और आज भगवान शंकर भी इसी रीति का निर्वाह कर रहे हैं।
- सुखी भारती
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