कोरोना महामारी के शुरूआती दिनों में हुए लॉकडाउन में स्त्रियों ने मुश्किलें तो उठायीं लेकिन हार नहीं मानीं। अपने परिवार को बीमारी की भयावहता, भूख की विवशता तथा अवसाद की तीव्र वेदना से निकालने के लिए जूझती रही नारी, अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर नारियों की गौरव गाथा इस विकट परिस्थिति की चर्चा बिना अधूरी है।
पिछले साल भारत में शुरू हुई कोरोना महामारी के भय ने लोगों को घरों में बंद कर दिया। सामान्य गतिविधियों में कमी आने के कारण लोगों में अवसाद बढ़ गया। लेकिन कोरोना पहली महामारी नहीं है जिसने दुनिया में तबाही मचायी है बल्कि इससे पहले भी विश्व ने कई घातक बीमारियों का सामना किया है। इस तरह की खतरनाक बीमारियों में स्पेनिश फ्लू प्रमुख है। 1918 में आयी इस बीमारी से दुनिया भर में 5-10 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। लेकिन 1919 में यह बीमारी खत्म हो गयी। इसके अलावा मिश्र में फैले जस्टिनियन प्लेग को इतिहास की दूसरी सबसे घातक महामारी के रूप में माना जाता है। यह बीमारी अगली दो सदी तक बार-बार आती रही इससे पांच करोड़ लोगों की मौत हुई थी।
कोरोना महामारी ने भारतीय स्त्रियों के लिए पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों पर निर्भरता को बढ़ा दिया है। महामारी का संक्रमण तो स्त्री तथा पुरुष पर समान आक्रमण कर रहा है लेकिन हमारा समाज स्त्रियों के प्रति होने वाले भेदभाद भाव के प्रति तटस्थ नहीं रहा है। कोरोना महामारी के बहाने स्त्रियों के लिए सदियों से खीचीं गए घरेलू दायरों की लक्ष्मण रेखा पर चर्चा हुई है। साथ ही स्त्रियों हेतु काम के अधिकार, उनकी लैंगिक समानता तथा आजीविका हेतु संघर्ष के विषय भी आज प्रासंगिक हैं।
कोरोना महामारी के दौरान सार्वजनिक स्थानों तथा घर के बीच में खीचीं गयी लक्ष्मण रेखा का पुरुषों ने पहली बार अनुभव किया। ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक रूप से ऐसा पहली बार हुआ जब स्त्रियों के साथ पुरुष भी घर की चारदीवारी में बंद थे। इस दौरान न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में स्त्रियों के खिलाफ असहनीय उत्पीड़न की कहानी लिखी गयी। महिलाओं को इस लक्ष्मण रेखा की आदत थी लेकिन इस बार वह घर के अंदर सुरक्षित नहीं थी। इस बार उत्पीड़न की शिकार स्त्रियां घर से बाहर नहीं जा सकती थीं। स्वास्थ्य तथा पेट भरने की कठिनाइयों ने नयी परिस्थितियों को जन्म दिया। इस बार घर में हिंसा तो थी आजीविका हेतु घर के बाहर किए जाने वाले छोटे-मोटे काम भी हाथ से जा रहे थे।
सामान्य परिस्थितियों में स्त्रियों को आजीविका हेतु इच्छा न होते हुए भी जबरजस्ती घर से बाहर भेजा जाता था। लॉकडाउन में महिलाओं ने घर में अधिक समय व्यतीत किया। इन परिस्थितियों में वह अनावश्यक घरेलू कामों में लगी रहीं। इसके अलावा कई महिलाओं ने स्वेच्छा से खुद को काम में व्यस्त कर लिया। इसके लिए उन्होंने घर की साफ-सफाई से लेकर साल भर के लिए आचार पापड़ बनाना उचित समझा।
घर में विभिन्न परम्पराओं को छोड़ दिया जाय तो स्त्रियां सामान्यतया पितृसत्ता के विभिन्न रूपों पूंजीवाद, सामन्तवाद और गुलामी के तहत जीवन व्यतीत करती हैं। वेतन हेतु कार्य करने वाली महिलाएं चाहे वह कामकाजी हो या घरेलू अपनी गृहिणी की भूमिका को कभी त्याग नहीं पाती हैं। घरेलू क्षेत्र में विवाह तथा बच्चों को पालने के माध्यम से स्त्रियां शक्ति, प्रभुत्व, हिंसा, अवैतनिक श्रम तथा पितृसत्ता के पुनरूत्पादन का शिकार होती रही हैं। ऐसे में लॉकडाउन के दौरान घर में रहें, सुरक्षित रहें की टैग लाइन स्त्रियों के लिए तो सुखदायी नहीं ही रही। लॉकडाउन के दौरान न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में स्त्रियों के खिलाफ घरेलू हिंसा में वृद्धि देखी गयी। भारत में असंगठित क्षेत्र में महिलाओं द्वारा अपनी नौकरियों को खोना भी उऩ्हें हिंसा की ओर ले गया।
लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के लिए वर्क फ्राम होम में भी समस्याएं कम नहीं थी। भारत में अंसगठित क्षेत्र में महिलाओं हेतु कोई वर्क फ्राम होम का तो प्रावधान नहीं था तथा संगठित क्षेत्रों में जिन्हें ऐसी सुविधा मिली वह काम के बोझ से कराह उठीं। पतियों और बच्चों का लगातार घर में रहना अनावश्यक काम के बोझ बढ़ाता चला गया। जो बच्चे पहले डे-केयर सेंटर या कामवालियों के हाथों पलते थे उनकी जिम्मेदारी भी मां की हो गयी। यही नहीं बच्चों की ऑनलाइन कक्षाओं ने उन्हें घंटों लैपटॉप के सामने बैठने को मजबूर कर दिया। महामारी के दौरान सामाजिक दूरी ने न केवल बच्चों को उनके दादा-दादी, नाना-नानी तथा पड़ोसियों से दूर किया बल्कि दोस्तों के साथ खेलने में भी परेशानी खड़ी की। ऐसी परिस्थितियों में मां के ऊपर काम का बोझ बढ़ता चला गया।
महामारी का भय, परिवार को संक्रमण से बचाने, उसका भरण-पोषण करने, अपने काम का उत्तरदायित्व तथा परिवार की जिम्मेदारियां निभाने, बच्चों की शिक्षा, उनके स्वास्थ्य की देखभाल करने में नारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जो आगे भी जारी रहेगी।
- प्रज्ञा पाण्डेय