देश में आपातकाल लगाए जाने वाले काले 25 जून पर प्रतिवर्ष कुछ न कुछ लिखना मेरा प्रिय शगल रहा है। किंतु, आज जो मैं आपातकाल लिख रहा हूं, वह संभवतः इमर्जेंसी के सर्वाधिक कारुणिक कथाओं में से एक कथा होगी। जिस देश मे मतदान की आयु शर्त 18 वर्ष हो व चुनाव लड़ने की 21 वर्ष हो वहां 14 वर्ष के अबोध बालक को राजनैतिक अपराध में जेल में डाल देना कौतूहल के साथ साथ क्रोध व कड़वाहट उत्पन्न करता है। किंतु इस देश मे यह भी सत्य हुआ आपातकाल के दौर में। वैसे जिन बंधुओं ने इमर्जेंसी की भयावहता बताने वाली, विनोद मेहता की पुस्तक “द संजय स्टोरी” पढ़ी होगी उन्हें आपातकाल की यह करुणापूर्ण कथा “द संतोष शर्मा स्टोरी” पढ़कर कोई आश्चर्य नहीं होगा।
इंदिरा गांधी द्वारा लिखा और उनके पुत्र संजय गांधी द्वारा क्रियान्वित किया गया आपातकाल का अध्याय स्वतंत्र भारत का सर्वाधिक भयावह, भ्रष्ट व भद्दा भाग है। 25 जून 1975 की रात्रि अचानक ही इंदिरा गांधी व उनके कानून मंत्री सिद्धार्थशंकर रे ने देश में आपातकाल लागू करने का मसौदा बनाया, आधी रात्रि को देश के महामहिम राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद को सोते से उठाकर पढ़े-अनपढ़े ही हस्ताक्षर कराये गये और देश को आपातकाल के आततायी कालखंड में धकेल दिया गया। इंदिरा जी तो नाममात्र की प्रधानमंत्री रह गईं और देश की बागडोर संजय गांधी व उनकी रुखसाना सुलताना जैसी चांडाल चौकड़ी के हाथों में आ गई। आश्चर्य है कि आपातकाल के इस डरावने दौर में इंदिरा जी के मंत्री देवकांत बरुआ जैसे चमचों ने ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ का बेसुरा राग भी अलापा था। 25 जून 1975 को लगाए गए इस आपातकाल के बहुत से स्याह और बदनाम पहलू हैं किंतु आज यहां एक बालक की गिरफ्तारी की चर्चा की जा रही है जिसे आपातकाल के दौरान बरती गई असंवेदनशीलता व निर्ममता की प्रतिनिधि घटना के रूप में लिया जा सकता है।
कहानी है एक भोपाल के एक 14 वर्षीय बालक संतोष शर्मा की जिन्हें इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के बाद गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। यूं तो इमरजेंसी के दौरान पूरे देश भर में इंदिरा से तनिक-सी भी असहमति रखने वालों का भयंकर दौर-ए-दौरा चला था किंतु इस अभियान में एक चौदह वर्ष का अबोध बालक भी जेल पहुंच जाएगा ऐसा किसी ने भी नहीं सोचा था।
संतोष जी शर्मा बचपन से राष्ट्रवादी विचारधारा के धनी थे। पिता भारतीय मजदूर संघ के पदाधिकारी थे सो पारिवारिक वातावरण ही संघमय था। इस बाल स्वयंसेवक के साथ हुआ कुछ इस तरह कि आपातकाल लगने के बाद संतोष जी शर्मा जो उस समय नवमी कक्षा में शिक्षारत थे, उन्होंने अपने वरिष्ठ साथियों- सुरेश शर्मा, अशोक गर्ग, शंभू सोनकिया, चंद्रभान जी, रमेश सिंह जी आदि के साथ भोपाल के चौक पर आपातकाल विरोधी प्रदर्शन किया। बस प्रदर्शन करने की देर थी कि कुछ ही समय में पुलिस आई और सभी प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करके ले गई। दूसरे दिन सुबह सभी आंदोलनकारियों को पुलिस ने नाश्ते के समय पर 150-150 डंडे मारे, जब संतोष शर्मा का नंबर आया तो डंडे मारने वाला पुलिस कर्मचारी भी सामने छोटे से अबोध बालक को देखकर द्रवित हो गया और इस प्रकार संतोष को मात्र 15 डंडे मारकर छोड़ दिया गया। अब यह बात अलग थी कि उन 15 डंडों ने संतोष कुमार शर्मा का चेहरा, चाल, ढाल सब कुछ बिगाड़ कर रख दिया था। खैर, संतोष शर्मा ने इस सबके बाद भी पुलिस के सामने क्षमा मांगने से इंकार कर दिया और परिणामस्वरूप वे अपने सभी साथियों के साथ भोपाल जेल भेज दिये गए।
भोपाल जेल भेजे जाने के दौरान सभी को हथकड़ियां पहनाई गईं, किंतु जब संतोष शर्मा के छोटे से शरीर की छोटी-छोटी कलाई में हथकड़ी पहनाने की बात आई तो पता चला कि उसके नाप की तो हथकड़ी ही जेल प्रशसान के पास नहीं है। जो हथकड़ी संतोष शर्मा को पहनाई जाती उससे संतोष की कलाई तुरंत ही फिसलकर बाहर आ जाती। भोपाल जेल में भी अमानवीय यातनाओं का लंबा दौर चला किंतु अपने वरिष्ठ साथियों के दृढ़ आचरण को देखकर यह अबोध बालक भी चट्टान जैसा दृढ़ रहा। अंततः बालक होने के आधार पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रांत कार्यवाह उत्तमचंद इसरानी ने न्यायालय में संतोष की जमानत के कागज पेश करवाए और जमानत हो गई। लेकिन जेल से बाहर आने के बाद तो जैसे संघर्ष का दोहरा दौर प्रारंभ हो गया। पाठशाला से नाम काट दिया गया। अन्य विद्यालयों में चक्कर मारे किंतु कोई प्रवेश देने को तैयार ण हुआ। सहपाठी, मित्र आदि सभी कन्नी काटने लगे व इंदिरा शासण के भय से इस अबोध बालक से दूरी बनाकर रखने लगे। अब पढ़ाई से तो कुछ समय के लिए संबंध टूट गया और मानस में राष्ट्रवाद और आपातकाल का विरोध बसा ही था, सो संतोष ने अपने लिए एक काम तलाश लिया और मीसा बंदियों और उनके संघर्षरत परिवारों के लिए काम करने लगे। मीसाबंदियों के परिवारों के लिए संगठन के अन्य लोगों के साथ चंदा एकत्रित करते, आटा इकट्ठा करते और उसे प्रत्येक परिवारों तक पहुंचाते। जेल में मीसाबंदियों से मिलने हेतु उनके परिवारों की मदद भी करते। आपातकाल समाप्त होने के बाद पढ़ाई पूरी की जाये, ऐसा पुनः ध्यान में आया तो 11वीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा देनी पड़ी और अपना प्रिय विषय गणित छोड़कर आर्ट का विषय चुनने को मजबूर होना पड़ा। शिक्षा पूर्ण होने के बाद रोजी-रोजगार का समय आया तो आपातकाल का काला साया फिर संतोष शर्मा पर पड़ा और शासकीय नौकरी हेतु चयन होने के बाद भी आपातकाल में जेलबंदी होने के कारण इनके चरित्र प्रमाणपत्र में “शासकीय सेवा हेतु अयोग्य” का ठप्पा लगाया गया। फिर संघर्ष का दौर चला। फाइल इस कार्यालय से उस कार्यालय तक दो वर्षों तक चली और अंततः शासकीय नौकरी हेतु योग्य ठहराए जाने के साथ संतोष शर्मा का जीवन अंततः स्थायित्व की ओर अग्रसर हो पाया।
-प्रवीण गुगनानी