By अभिनय आकाश | Sep 30, 2024
देश के प्रधानमंत्री और सबसे पुरानी पार्टी की मुखिया रही सोनिया गांधी अगर एक ही शख्स की तारीफों के पुल बांधे तो इस राजनेता में कोई तो बात जरूर होगी। शरद पवार के राजनीतिक पैंतरों की कहानी घड़ी की सुईयों की तरह महाराष्ट्र की राजनीति को करवटें देता रहा है।
छात्र राजनीति से ली एंट्री
शरद पवार ने छात्र जीवन से ही राजनीति में एंट्री की थी। साल 1964 में वो यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए थे। 50 साल से अधिक समय से राजनीति में एक्टिव रहे शरद पवार कोई चुनाव नहीं हारे हैं। शरद पवार ने अपने राजीनित गुरु यशवंत राव चव्हाण के मार्गदर्शन में पहली बार 1967 में महाराष्ट्र विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए। पवार महज 38 साल की उम्र में सीएम बन गए थे। उन्होंने इंदिरा गांधी से बगावत करते हुए अलग दल बनाया था। हालांकि, 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में वापसी के बाद उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था।
इंदिरा गांधी से बगावत कर बनाया अलग दल
वर्ष 1977 में लोकसभा होते हैं और जनता पार्टी की लहर में इंदिरा गांधी को पराजय हासिल होती है। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस पार्टी को कई सीटें गंवानी पड़ती है। हार से आहत शंकर राव चव्हाण नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्रीपद से इस्तीफा दे देते हैं। वसंतदादा पाटिल को उनकी जगह सीएम पद की कुर्सी मिलती है। आगे चलकर कांग्रेस में टूट हो जाती है और पार्टी दो खेमों यानी कांग्रेस (यू) और कांग्रेस (आई) में बंट जाती है। इस दौरान शरद पवार के गुरु कहे जाने वाले यशवंत राव पाटिल कांग्रेस (यू) में शामिल हो जाते हैं वहीं उनके साथ शरद पवार भी कांग्रेस (यू) का हिस्सा हो जाते हैं। वर्ष 1978 में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस के दोनों विभाजित धड़ों ने अपना भाग्य आजमाया। जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस यू और कांग्रेस आई मिलकर सरकार बना लेते हैं और वसंतदादा पाटिल सूबे के मुखिया बनते हैं। इस सरकार में शरद पवार उद्योग और श्रम मंत्री बनाए जाते हैं। लेकिन फिर अचानक जुलाई 1978 में शरद पवार कांग्रेस (यू) से अलग होकर जनता पार्टी से मिल जाते हैं और महज 38 साल की उम्र में राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बन जाते हैं।
सोनिया की खिलाफत और एनसीपी का उदय
1999 का वो दौर था जब शरद पवार ने कांग्रेस से हटकर अपनी अलग पार्टी बनाई। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। पवार ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें लग रहा था कि कांग्रेस में उनका ग्रोथ नहीं हो रहा था। ऐसे में वो देश के सबसे बड़े पद पर कांग्रेस में रहते हुए नहीं पहुंच सकेंगे। अपनी इसी महात्वकांक्षा के लिए उन्होंनेखुद की अलग पार्टी बना ली। उसी साल महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव भी थे। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ ये कहते हुए शरद पवार ने गठबंधन कर लिया कि सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा केंद्र पर लागू होता है, महाराष्ट्र पर नहीं।
कोई हारे कोई जीते पवार हमेशा फायदे में रहते हैं
हिन्दुस्तान की राजनीति में शरद पवार को शतरंत का ऐसा उस्ताद माना जाता है जो दोनों ओर से खेलते हैं। कोई हारे या कोई जीते, शरद पवार हमेशा फायदे में रहते हैं। महाराष्ट्र में पांच साल पहले हुए चुनाव में बीजेपी और शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिला था, लेकिन शरद पवार की बातों में आकर उद्धव ठाकरे ने बीजेपी से रिश्ते तोड़ लिए और खुद सीएम बन गए। सीएम बनने के दौरान वो बीजेपी से भिड़ते गए और शरद पवार को अपना ‘गुरु’ मान लिया। बाद में उद्धव को पहले तो खुद की सीएम की कुर्सी गंवानी पड़ी और फिर विरासत में मिली पार्टी से भी हाथ धोना पड़ा। वैसे कमोबेश एनसीपी के साथ भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला जब भतीजे अजित पवार ने चाचा को झटका देते हुए पार्टी का नाम और निशान अपने नाम कर लिया।