कबीर और रहीम, बचपन में ही हमारे जीवन में प्रवेश कर गए थे। कई बरस तक तो उनकी खरी सलाहों को संभाले रखा लेकिन बदलते वक़्त ने हमसे काफी कुछ छीन लिया जिसमें ये दोनों भी शामिल रहे। हम इनके दोहों का वैसा ही अर्थ निकालते रहे जैसे एक कहावत, ‘नीम हकीम खतरा ए जान’ का यह मतलब, ‘हे हकीम तू नीम के नीचे मत बैठ वहां तेरी जान को खतरा है’। अब कोरोना द्वारा बदल दिए गए समय की यह ऐतिहासिक उपलब्धि है कि ज़िंदगी में कबीर और रहीम ने फिर वापसी की है। कुछ भी हो, मुसीबत में विरासत याद आ जाती है। वैसे तो गांधी और बुद्ध भी हमारे रोम रोम में रचे बसे हुए हैं।
जिस तरह हम बापू की किताब, ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ मंगाने और बार-बार पढने की कोशिश करते हैं उसी तरह आजकल बाज़ार में, ‘कबीर ले लो, रहीम ले लो’ हो रहा है। अनेक मंचों पर दोहों को पढ़ा और पढ़ाया जा रहा है। इस बहाने समाज में अच्छाई फैल रही है जिससे बदली हुई दुनिया में जीने के लिए, लोग सुधर रहे हैं। सरलार्थ समझाए जा रहे हैं, जो हिंदी में अज्ञानी है उन्हें अंग्रेजी में और जो लोकल होना चाहते हैं उन्हें हिंदी में। इससे हिंदी साहित्य को पढने में भी आत्मनिर्भता बढ़ रही है। दोहों में ब्यान की गई खरी सामाजिक सच्चाइयों की तारीफ़ हो रही है। बदल चुका इंसान सहजता, सादगी, समानता और संस्कृति के उबड़खाबड़ रास्ते पर पुन लौटने का प्रायोजन कर रहा है।
बीती हुई जिंदगी की गलतियां जब सतर्क कर रही हों कि उन्हें मत दोहराना, तो कबीर और रहीम द्वारा वर्णित सन्दर्भ फिर से आत्मसात कर, नया इंसान चाहे पुरानी गलतियां न दोहराए लेकिन नई तो कर ही सकता है। गलतियां करने की उसकी स्थायी फितरत पुरानी है। अभी वह कबीरकही और रहीमकही को मुफ्त के मरहम की तरह इस्तेमाल कर रहा है, उसे पता है वास्तव में गांधी और बुद्ध की तरह कबीर और रहीम को भी बाज़ार में व्यवहारिक रूप में अपनाना मुश्किल है। कबीर के इस दोहे, ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान’ का हमने तो यही मतलब लिया था, ‘साधु को छोड़ कर सभी की जाति का ज्ञान लेना ज़रूरी है, म्यान को छोडो, तलवार कितने भी मूल्य की हो खरीद कर रख लेनी चाहिए’। क्या बदलाव को अब भी प्रकृति का नियम माना जाएगा।
संतोष उत्सुक