Ponniyin Selvan II: गंगाजल को सह-सम्मान लाने के लिए चलाया इतिहास का सबसे बड़ा सैन्य अभियान, कई राजाओं को हराया, गजनी डर से भोज पर आक्रमण न कर पाया

By अभिनय आकाश | Apr 25, 2023

चोल वंश सबसे विशाल और लंबे समय तक चलने वाला साम्राज्य था। उसी चोल राजवंश में एक राजा राजेंद्र चोल प्रथम भी हुए। उनकी उपलब्धियां उन्हें इतिहास का सबसे महान हिंदू राजा बनाती हैं। राजराजा प्रथम के बाद उनके बेटे राजेंद्र चोल प्रथम राजा बने। अपने पिता के शासनकाल में राजेंद्र चोल सेनापति थे। उस दौरान राजेंद्र चोल ने कई सैन्य अभियान चलाए। उन्होंने साल 1012 में सत्ता संभालना शुरू किया। उन्होंने श्रीलंका पर जीत हासिल कर उसे चोल कॉलोनी बनाया। श्रीविजया यानी इंडोनेशिया पर नौसेना के जरिए हमला किया। थाईलैंड, जावा, सुमात्रा, सिंगापुर, कंबोडिया पर कब्जा किया। राजेंद्र चोल ने चोल साम्राज्य को उस दौर में इकोनॉमिक सुपर पॉवर बना दिया। राजेंद्र चोल प्रथम ने उस वक्त दुनिया की पहली हाईटेक नेवी तैयार की। राजेंद्र चोल की नौसेना में एक लाख से ज्यादा सैनिक थे, हजारों अटैकशिप थे। साम्राज्य विस्तार में सफल रहने के बाद भी राजेंद्र चोल ने एक नीति बनाई जिसमें पूरे साम्रज्यों को दो भागों में बांट दिया गया। जिसमें कुछ राज्यों को जीत के बाद अपने राज्य में मिला लिया गया। वहीं कुछ राज्य को जीत के बाद अधीन न करके व्यापारिक साझेदार बना लिया गया। चोल राजाओं ने उत्तर भारत पर शासन करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। उनका मुख्य उद्देश्य दक्षिण भारत और समुद्र में जीत हासिल करना था। 

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राजधानी का नामकरण गंगा जी के नाम पर किया

राजेंद्र चोल ने उत्तर भारत में बंगाल और आज के बांग्लादेश तक कब्जा कर लिया था। ये वो सैन्य अभियान था जिसे भारत के इतिहास का सबसे बड़ा सैन्य अभियान कहा जाता है। इस अभियान का उद्देश्य का एक खास उद्देश्य था। साल 1023 तक राजेंद्र चोल ने दक्षिण भारत में अपना साम्राज्य मजबूत कर लिया था। विजय अभियान की सफलता के बाद राजेंद्र चोल ने नई राजधानी बनाने का फैसला किया। उन्होंने इसके लिए गंगा जल लाने का संकल्प किया। गंगा नदी चोल साम्राज्य की राजधानी तंजावुर से 2 हजार किलोमीटर दूर थी। गंगाजल लाने के लिए राजेंद्र चोल ने 1023 से 1027 तक सैन्य अभियान चलाया। अपनी विशाल सेना के साथ वो जा रहे थे। लेकिन कोई भी राजा उस दौरान इतनी विशाल सेना को अपने राज्य में प्रवेश तो करने नहीं देता। इसलिए उन्हें सैन्य अभियान चलाना पड़ा। इस दौरान उन्होंने उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल, छत्तीसगढ़ और आज के बांग्लादेश को पराजित किया। राजेंद्र चोल प्रथम ने इंद्रत, राणासुर, महिपाल, गोविंदचंद्र जैसे ताकतवर राजाओं को हराया। इस अभियान के दौरान महमूद गजनी भारत पर आक्रमण कर रहा था। 

गजनी ने डर से नहीं किया भोज पर आक्रमण

जब राजेंद्र चोल प्रथम मध्य प्रदेश के चित्रकूट में थे तो महमूद गजनी वहां से 60 किलोमीटर दूर कलिंजर में लड़ रहा था। राजा भोज और राजेंद्र चोल घनिष्ठ मित्र थे। इस वजह से गजनी ने उस वक्त राजा भोज पर आक्रमण नहीं किया। सैन्य अभियान के आखिर में राजेंद्र चोल ने गंगासागर ने गंगा जल दिया। वो फिर 2 हजार किलोमीटर वापस आकर नई राजधानी का नामकरण गंगा जी के नाम पर किया। नई राजधानी को गंगईकोंड  चोलपुरम के नाम से जाना गया। गंगा जल अपर्ण के लिए एक विशाल झील का निर्माण किया गया जिसका नाम चोल गंगम झील कहां गया जिसे आज पुन्नई झील कहते हैं। 

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नटराज की ये कहानी आपको पता है? 

भगवान नटराज का नाम तो आपने जरूर सुना होगा। नटराज का अर्थ होता है कलाओं के स्वामी और ये नाम भगवान शिव का है। भगवान शिव तांडव नृत्य करते हैं। भगवान शिव दो प्रकार के तांडव करते हैं- रौद्ग और आनंद। जब भगवान शिव रौद्र तांडव करते हैं तो सृष्टि का विनाश होता है। उस स्थित में रौद्र तांडव करते हैं जबकि सृष्टि निर्माण के समय वो आनंद तांडव करते हैं। उनके इसी रूप को नटराज कहा जाता है। भगवान नटराज की जिस मूर्ति को हम बचपन से पेंसिल के पैकेट्स पर देखते आ रहे हैं या घर की पूजा वाली अलमारी में देख रहे हैं। उसे इसी चोल काल में बनाया गया था। तमिलनाडु के चिदंबरम में राजा विक्रम चोल का बनवाया हुआ नटराज मंदिर आज भी अपने गौरव से पूरी दुनिया को आश्चर्यचकित कर रहा है। मूर्ति में भगवान शिव के हाथ से अभय प्रदान कर रहे हैं जबकि दूसरे हाथ से सृजन के प्रतीक डमरू बजा रहे हैं। तीसरे हाथ में विनाश रूपी अग्नि को धारण किया हुआ है। भगवान शिव का एक उठा हुआ पैर मोक्ष का मार्ग बतला रहा है। वो अपने दूसरे पैर के नीचे अज्ञान रूपी राक्षस को दबाए हुए हैं। शिव के चारों ओर उठ रही लपटें ब्रह्मांड का प्रतीक हैं। यूनेस्को ने बृहदेश्वर समेत चोल राजाओं के तीन मंदिरों को वर्ल्ड हरेटिज साइट में शामिल किया है। इनमें बृहदेश्वर मंदिर से 40 किलोमीटर दूर स्थित ऐरावतेश्वर मंदिर और 70 किलोमीटर दूर स्थित गंगईकोंड चोलपुरम मंदिर शामिल हैं। ये तीनों मंदिर भगवान शिव को समर्पित हैं।

चुनाव करवाने और चुनाव लड़ने का पूरा तंत्र था

12 सौ साल पहले हिन्दू चोल राजाओं के दौर में लोकतंत्र उस रूप में था जिसकी बात हम आज करते हैं। वहां चुनाव करवाने और चुनाव लड़ने का पूरा तंत्र था। वहां दागियों के लिए भी नियम था। भारत में जो आज चुनाव व्यवस्था और पंचायती राज व्यवस्था है वो 12 सौ साल पहले चोल साम्राज्य में ये सारी व्यवस्थाएं लागू थी। चोल साम्राज्य में शासन व्यवस्था को चार भागों में बांट दिया गया था। सबसे पहले मंडल आता था। एक मंडल में कई डिवीजन होते थे, जिसे वालानाडु कहां जाता था। यही सिस्टम आज भी है। उसके बाद जिला प्रशासन होता था जिसे नाडु कहते थे। जैसे आज जिले के डीएम होते हैं। फिर गांव की व्यवस्था होती थी जिसे कुर्रम कहते थे। पूरे चोल साम्राज्य को इस तरह मंडलों में बांटा गया था और हर मंडल का प्रशासक चुनाव के जरिए सिलेक्ट किया जाता था। चोल राजाओं ने जो शासन व्यवस्था बनाई थी उसी आधार पर भारत में पंचायती राज व्यवस्था चल रही है। 

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शिलालेखों में जिक्र

चोल राजाओं की शासन व्यवस्था का जिक्र आज भी शिलालेखों में मौजूद हैं। चेन्नई से 90 किलोमीटर दूर एक गांव उत्तरा मेरुर जहां चोल राजाओं के दौर के शिलालेख आज भी मौजूद हैं। इस मंदिर की दीवारों पर चोल राजओं की शासन व्यवस्था के बारे में बताया गया है। ये शिलालेख 920 के समय के हैं। 

चोल साम्राज्य में टैक्स व्यवस्था

मुगल के दौर में धर्म के आधार पर टैक्स लिया जाता था, जिसे जजिया कर कहते थे। जजिया कर गैर मुसलमानों से लिया जाता था। इसे नहीं देने पर मारपीट की जाती थी और मंदिरों को भी तोड़ दिया जाता था। इसके अलावा तीर्थ यात्रा टैक्स भी लगता था। जिसमें गैर मुसलमानों को तीर्थ यात्रा पर जाने से पहले बादशाह को टैक्स देना पड़ता था। लेकिन चोल साम्राज्य में टैक्स सिस्टम ऐसा था जिससे हर वर्ग के लोग संतुष्ट थे। टैक्स के लिए गावं की तीन कैटगरी बना दी गई। पहली कैटगरी में वो गांव थे जहां हर घर, हर वर्ग और धर्म के लोग रहते थे और खेती करते थे। इन गावों से भू-राजस्व के रूप में टैक्स कलेक्ट किया जाता था। दूसरी कैटगरी में ब्रह्मदेया गांव यानी वो गांव जहां ब्राह्मण रहते थे और लोगों को शिक्षा देते थे। इस गांव से टैक्स नहीं लिया जाता था। मतलब चोल राजाओं को पता था कि शिक्षकों का सम्मान करना चाहिए और उन पर आर्थिक बोझ नहीं डालना चाहिए। तीसररी कैटगरी में देवदान गांव आते थे। यानी भगवान को दान कर दिए गए गांव। यहां से मिलने वाला टैक्स सीधे मंदिरों में जाता था। जिससे मंदिरों का रख रखाव किया जाता था। इस टैक्स व्य़वस्था से मंदिरों की संपत्ति बहुत बढ़ गई और इसका लोगों की मदद में प्रयोग किया जाता था। 


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