पांगोंग झील: बर्फीले रेगिस्तान का सतरंगी इंद्रधनुष

By सुरेश एस डुग्गर | Jun 16, 2020

विश्वास करना कठिन हो रहा था कि पानी अपने रंग को बदल रहा है। लेकिन दुनिया के आठवें आश्चर्य को अपनी आंखों से देखते हुए कभी कभार यूं लगता कि आंखें भी धोखा खा रही हैं। लेकिन यह सब अक्षरशः सच था कि पानी ने अपना रंग बदला था और वह भी उस समय जब सूर्य या आदमी अपने आप को हिलाता था। इस दुनिया के आठवें आश्चर्य को देखने के लिए आदमी को भारत-चीन सीमा पर स्थित इस झील के किनारे किनारे आगे पीछे होना पड़ता था ताकि वह विश्वास न किए जाने वाले तथ्य पर भी विश्वास करने को मजबूर हो जाए।

 

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यह सब महज एक सपना या जादू नहीं है बल्कि हकीकत है कि सात रंगों में अपने पानी को बदलने वाली झील भी इस दुनिया में मौजूद है। और सतरंगी झील का प्यारा का नाम है- पांगोंग सो। (सो-को लद्दाखी भाषा में झील कहा जाता है।) एक और आश्चर्यजनक पहलू इस झील का यह है कि यह विश्व की सबसे ऊंचाई पर स्थित नमकीन पानी की झील भी है जिसे देख आदमी स्वर्ग की छटा को भी भूलने को मजबूर हो सकता है।


पूरी तरह से प्राकृतिक तौर पर बनी विश्व की सबसे ऊंचाई पर स्थित इस झील का क्षेत्रफल भी कम नहीं है बल्कि यह एक समुद्र के समान है जिसकी लंबाई 150 किमी के लगभग है। हालांकि आधिकारिक रिकार्ड में यही लंबाई दर्ज है मगर आम लोगों (जो उसके आसपास के गांवों में रहते हैं) के अनुसार यह 138 किमी लंबी है और चौड़ाई भी कुछ कम अचंभित करने वाली नहीं है। 700 फुट से लेकर 4 किमी की चौड़ाई लिए यह झील समुद्रतल से 14256 फुट की ऊंचाई पर स्थित है जो बर्फीले रेगिस्तान लद्दाख की राजधानी लेह से करीब 160 किमी की दूरी पर है।


समुद्र रूपी इस झील का सफर कोई आसान नहीं है। कई ऊंचे ऊंचे दर्रों को पार करना पड़ता है जिसमें सबसे ऊंचा दर्रा 17350 फुट की ऊंचाई पर है। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ ऊंचे दर्रे ही इसकी राह में हैं बल्कि मन को लुभावने वाले रेतीले और पथरीले पहाड़ भी नजर आ जाते हैं। सितम्बर के दूसरे सप्ताह में ही इन पर्वतों पर बर्फ अपनी चादर बिछा देती है।

 

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वैसे इस सतरंगी झील की गहराई आज तक मालूम नहीं हो पाई है। पूरी तरह से प्राकृतिक तौर पर नमकीन पानी की सबसे ऊंचाई पर स्थित सबसे बड़ी झील की निकासी का कोई द्वार भी नहीं है और यही कारण है कि इसका पानी बहुत ही खारा है। इस झील का एक दुखद पहलू यह है कि इसका 87 प्रतिशत भाग चीन के अवैध कब्जे में है जहां पर उसने अपनी नौसेना तैनात की हुई है।


लगता तो अविश्वसनीय सा है सात रंगों के बारे में मगर जब इंसान अपनी आंखें से उन्हें देखता है तो वह यह महसूस करता है कि दुनिया का आठवां आश्चर्य उसके सामने है। सूर्य की गति के साथ-साथ कोई भी बड़ी आसानी के साथ इसके बदलते रंगों को अपनी नंगी आंखों से देख सकता है जो सफेद, आसमानी, नीला, हरा, भूरा, संतरी तथा काला होता है।


अब इस झील को भारतीय तथा विदेशी पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है जबकि पहले इसका दौरा करने के लिए जिला मैजिस्ट्रेट की अनुमति लेकर आना पड़ता था। वैसे झील की खूबसूरती अवर्णनीय है ही, उसके किनारे के नंगे ऊंचे बर्फ से ढके रहने वाले पहाड़ भी कम मनोहारी नहीं हैं चाहे उन पर कोई पेड़-पौधा नहीं है क्योंकि 14256 फुट की ऊंचाई पर स्थित इस झील पर तापमान शून्य से भी कई डिग्री नीचे रहता है। वैसे इन पहाड़ों की बदकिस्मती यह है कि इसके पीछे की भूमि पर चीन का अवैध कब्जा है और भारत सरकार ने आज तक इस मामले को निपटाने की कोशिश नहीं की।


कभी कभार झील की खोमाशी को साईबेरियाई पक्षियों को तोड़ते हुए देखा जा सकता है। जो इन क्षेत्रों में कभी कभार ही दिखाई पड़ते हैं। आसपास कोई जीवन नहीं है सिवाय सीमांत चौकिओं के तथा बंकरों के भीतर बैठे भारतीय सैनिकों के। हालांकि भारतीय सेना मोटरबोट से इस झील में गश्त करती रहती है।


झील का पानी अंदर-बाहर नहीं होता है क्योंकि कोई निकास द्वार ही नहीं है झील का, इसी कारण से इसका पानी बहुत ही नमकीन है। झील के किनारे जमी नमक की परतें इस बात को दर्शाती हैं कि चंद्रमा के घटने बढ़ने के साथ ही उसका पानी भी ज्वार भाटा की शक्ल धारण करता होगा। झील के किनारों पर मात्र पत्थर ही मिलते हैं जिन पर नमक की तहें जमी होती हैं। कहा जाता है कि झील में कई खनिज पदार्थ छुपे हुए हैं क्योंकि बर्फ के पिघलने के कारण वे इसमें जमा हो जाते हैं। वैसे इसे विश्व का ऊंचाई पर स्थित समुद्र भी कहा जा सकता है क्योंकि जितना क्षेत्रफल इसका है वह किसी समुद्र से कम नहीं है और ठीक समुद्र की ही तरह इसमें भी खनिज पदार्थ छुपे पड़े हैं।

 

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सदियों पुरानी इस झील का अपना एक लंबा इतिहास भी है। कई ऐतिहासिक युगों की मूक गवाह भी है यह झील। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार यह मन को लुभावने वाले झील 1684 में उस समय ऐतिहासिक रिकार्ड में दर्ज की गई थी जब लद्दाख तथा तिब्बत के बीच तिंगमोसमांग की संधि हुई थी जिसके अनुसार यह झील लद्दाख तथा तिब्बत के बीच सीमा रेखा का कार्य करती थी। यह संधि लद्दाख के तत्कालीन राजा देलदान नामग्याल तथा तिब्बत के रीजेंट के बीच खलसी के नजदीक स्थित तिंगमोसमांग के महल में हुई थी। तब इस झील को दो देशों के बीच सीमा के रूप में स्वीकार किया गया था।


इस झील की सुरक्षा के लिए सैनिक भी तैनात हैं जो मोटरबोट से गश्त करते हैं इसके बीच में। लेकिन वे दिसम्बर, जनवरी, फरवरी तथा मार्च में इसमें गश्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि तब इस झील का पानी चार-चार फुट की गहराई तक जम जाता है। हालांकि इतना आथाह समुद्र होने के बावूजद भी यहां पीने के पानी की भारी कमी है क्योंकि झील का पानी नमकीन होने के कारण पीने के योग्य नहीं है। और मजेदार बात यह है कि पांगोंग झील का दौरा अपने आप में एक अनुभव होता है क्योंकि कई दर्रों पर आक्सीजन की भारी कमी है और अब इसके आसपास सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाने लगी हैं क्योंकि कुछ साल पहले तक विदेशी व स्वदेशी पर्यटकों के लिए प्रतिबंधित रही झील के 160 किमी लंबे रास्ते में कोई सुविधाएं नहीं थीं।


- सुरेश एस डुग्गर


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