गांधी जी के विचारों से प्रभावित होकर छोड़ दी थी मुंशी प्रेमचंद ने नौकरी

By रेनू तिवारी | Jul 31, 2022

ख्वाहिश नहीं मुझे, मशहूर होने की, आप मुझे पहचानते हो, बस इतना ही काफी है... महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद जी की ये कविता लोगों के दिलों में घर कर गयी थी। ऐसी ही तमाम रचनाओं को प्रेमचंद ने अपने शब्दों में पिरोकर उन्हें सदा के लिए अमर कर दिया। वाराणसी के निकट लमही नामक एक छोटे से गाँव में जन्में प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य के लिए खूब काम किया और महान लेखकों में शुमार हो गये। समाज की जटिलताओं को कहानी और उपन्यासों के माध्यम से जिस प्रकार से प्रस्तुत किया है, उसके बारे में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे आज भी समसामयिक लगती हैं। कहा जाता है कि साहित्य वही है जो हमेशा प्रासंगिक बना रहे। प्रेमचंद जी ने समाज आधारित साहित्य की रचना की। जो आज भी नवोदित साहित्यकारों के लिए एक सार्थक दिशा का बोध कराता है। 


मुंशी प्रेमचंद का बचपन

मुंशी प्रेमचंद को हिंदुस्तानी साहित्य उपन्यास सम्राट भी कहा जाता है। मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमही गाँव (वाराणसी के पास) में हुआ था। वे 20वीं सदी के शुरुआती दौर के प्रसिद्ध लेखक हैं। उनके जन्म का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था लेकिन जब वह लेखन की दुनिया से जुड़े तब उन्हें लोग मुंशी प्रेमचंद के नाम से जानने लगे। उनका पूरा बचपन लमही में एक संयुक्त परिवार में बीता। प्रेमचंद के पिता का नाम अजायब लाल था जो एक डाकघर में क्लर्क का काम करते थे और उसकी माँ का नाम आनंदी देवी जो एक गृहिणी थी। प्रेमचंद अपने भाई-बहनों नें चौथे स्थान पर थे। कहते हैं कि प्रेमचंद बचपन में अपने दादा से बहुत प्यार करते थे। उनके दादा गांव के पटवारी थे।

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उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा 7 साल की उम्र में लालपुर गाँव (लमही से लगभग ढाई किमी दूर) के एक मदरसे में शुरू की, जहाँ उन्होंने उर्दू और फ़ारसी भाषाएँ सीखीं। उन्होंने 8 साल की उम्र में अपनी माँ को खो दिया और बाद में उनकी दादी और दादा भी चल बसे। वह काफी अकेला महसूस करने लगे थे। प्रेमचंद के पिता ने पहली पत्नी के निधन के बाद दूसरी शादी कर ली। 


गांधी जी से काफी प्रभावित थे प्रेमचंद

प्रेमचंद गांधीजी से बहुत प्रभावित थे। वह पहली बार उनसे गोरखपुर में एक बैठक के दौरान मिले थे। गांधी जी अंग्रेजों का विरोध करने के लिए लोगों से काम काज ठप करने का आग्रह कर रहे थे। वह जिस तरह से अपना भाषण दे रहे थे प्रेमचंद्र को उनकी बातें काफी पंसद आ रही थी। प्रेमचंद ने उनका अनुसरण किया और इलाहाबाद में स्कूलों के उप निरीक्षक के पद से इस्तीफा दे दिया। उनकी सामाजिक प्रेरणा के अलावा, उनकी सौतेली माँ को भी उनकी प्रेरणा माना जाता है क्योंकि उन्होंने उन्हें अपनी पढ़ाई और किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित किया, उनके पिता की मृत्यु के बाद वे किताबों के करीब हो गए और अपना साहित्यिक कार्य शुरू किया।


प्रेमचंद का लेखन

वास्तव में प्रेमचंद की रचनाएं समाज का दर्पण हैं। प्रेमचंद जी साहित्यकारों के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है। यह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसखरों का ही काम है। साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊंचा है, वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है। वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है। हमारे सद्भावों का संचार करता है। हमारी दृष्टि को फैलाता है। प्रेमचंद ने केवल मनोरंजन के लिए साहित्य रचना नहीं की, बल्कि अपनी रचनाओं के द्वारा समाज को नयी रूपरेखा, नये आदर्शों मे ढालने का प्रयास किया। उनके सृजन कर्म का उद्देश्य साहित्य के द्वारा समाज में प्रेम और भाईचारे का संदेश देने और एक ऐेसे शोषण विहीन सामज की रचना करना था, जिसका आधार स्वतंत्रता हो। प्रेमचंद अपने साहित्य रचना के माध्यम से इस उद्देश्य में सफल रहे हैं।


हिंदी सहित्य में हासिल की बड़ी उपलब्धियां

प्रेमचंद ने साहित्य की अनेक विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर प्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने इन्हें उपन्यास का सम्राट कहकर संबोधित किया। प्रेमचंद ने नाटक, उपन्सास, कहानी, समीक्षा, लेख, संस्मरण संपादकीय आदि विधाओं में साहित्य का सृजन किया, पर उन्हें  ख्याति कथाकार के रूप में प्राप्त हुई। अपने जीवनकाल में ही वे उपन्यास सम्राट की उपाधि से भी सम्मानित हुए। प्रेमचंद्र ने सन् 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सभापति के रूप में संबोधन किया। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणापत्र का आधार बना।

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कई भाषाओं के जानकार थे प्रेमचंद

प्रेमचंद की भाषा हिंदी उर्दू मिश्रित थी। अलंकारों और मुहावरों ने उन्हें सजीवता प्रदान की। इनकी भाषा के कारण इनकी रचना के सभी पात्र व चरित्र हमारे समक्ष सजीव हो उठते हैं। यही इनकी भाषा की सबसे बड़ी ताकत है। इनकी भाषा सहज सरल एवं बोधगम्य है। साहित्य एक विराट उद्देश्य को लेकर चलने वाली विधा है और उसमें मनुष्य के सामाजिक जीवन को अधिक सूक्ष्मता एवं विस्तार से जांचा परखा जाता है। उपन्यास साहित्य की सशक्त एवं प्रवाहमय धारा है। मनुष्य चरित्र के अनेकानेक चित्र प्रस्तुत करने के लिए सबसे अधिक विकल्प उपन्यासकार के पास ही होते हैं।


समाज से जुड़ी होती थी प्रेमचंद की रचनाएं

प्रेमचंद्र के उपन्यास व्यष्टि और समष्टि की सटीक व्याख्या करते हैं। उसमें मनुष्यों की सैद्धांतिक जटिलताओं और प्रपंचों से मुक्ति पाने का संदेश दिया गया। उनके उपन्यास सहजता व सरलता का प्रसार करते हैं। प्रेमचंद्र के उपन्यासों की रचना उस दौर में हुई, जब भारत सरकार में अंग्रेजी राज और उसके अत्याचार चरम पर थे। उनके उपन्यास में तत्कालीन घटनाएं सजीवता के साथ चित्रित की गयी हैं। प्रेमचंद ने अपने समय में साहित्य और समाज के बीच एक मजबूत सेतु की भूमिका निभायी, जिससे आम आदमी के मन में भी साहित्य के लिए भरोसा पैदा हुआ। प्रेमचंद ने अपना साहित्य मानव जीवन के उत्थान को ध्यान में रखते हुए लिखा।


लोक संस्कृति के ऐतिहासिक संदर्भों एवं परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए प्रेमचंद्र ने ग्रामीण जीवन की अनेक प्रवृतियां, सादगी और उनके जीवन दर्शन को अपने उपन्यास में अभिव्यक्त किया है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास गोदान में देश के किसानों के जीवन और उनके संघर्ष को मार्मिक संवेदनाओं के साथ चित्रित किया है। गोदान उपन्यास में किसान की नैया भूख और गरीबी के बीच झूलती रहती है। मगर फिर भी वह जरा भी विचलित नहीं होता, वह अपने आपको परिस्थितियों से घिरा नहीं मानता। गोदान में होरी का चरित्र भारतीय किसान को बड़ी ही सहजता से निरूपित करता है। गोदान में होरी की मृत्यु एक प्रतीक के रूप में ही है। जो किसान संस्कृति की अमरता और शाश्वतता के लिए चिर संघर्ष की चेतना का उद्घोष करता है। इसलिए गोदान उपन्यास का विश्व साहित्य मे एक महत्वपूर्ण स्थान है। गोदान में प्रेमचंद ने एक किसान को उपन्यास का नायक बनाकर प्रस्तुत किया है। गोदान भारतीय जीवन साहित्य की अनुपम कृति है।


- रेनू तिवारी

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