By आरएन तिवारी | Jan 01, 2021
आइए! गीता प्रसंग में चलें- पिछले अंक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्षत्रिय धर्म की व्याख्या करते हुए युद्ध करने का उपदेश दिया था। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि श्रीमद्भगवत गीता मनुष्य को अपने धर्म का अनुसरण करते हुए कर्म करने की प्रेरणा देती है, इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए भगवान कहते हैं-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
हे अर्जुन ! तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में ही है, फल की प्राप्ति में नहीं। भगवान का इशारा हम मनुष्यों की तरफ है। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है लेकिन फल प्राप्ति में परतंत्र है। फल देना या न देना ये तो भगवान के हाथ में है। यदि मनुष्य फल की इच्छा से कर्म करेगा तो वह उसी में बंध जाएगा। आज क्या हो रहा है। लोग कर्म करने से पहले ही फल का हिसाब लगाने लगते हैं, क्या मिलेगा? कितना मिलेगा? कब मिलेगा? इस क्या, कितना और कब के चक्कर में ही कर्म भटक जाता है। हाँ ! इस संदर्भ में एक बात और याद रखनी चाहिए कि भगवान हमें वह नहीं देता जो हमें अच्छा लगता है, बल्कि वह देता है जो हमारे लिए अच्छा होता है। हमारे लिए अच्छा क्या है? यह भगवान से अधिक बेहतर और कौन जानता है? समाज में यह भी देखा जाता है कि इच्छा पूरी न होने पर लोग भगवान को बुरा-भला भी कहने लगते हैं। एक बार एक आदमी टूटे हुए पुल पर चल रहा था, अचानक पुल हिलने लगा। आदमी ने भगवान को पुकारा भगवान मुसकुराते हुए पुल के उस पार दिखाई दिए। वह आदमी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर भगवान को अपने पास बुला रहा था, जब भगवान उसके पास नहीं आए तब वह उन्हें बुरा-भला कहने लगा।
जैसे-तैसे पुल के पार पहुंचा तो देखा, भगवान टूटे पुल के खंभे को ज़ोर से पकड़े हैं। समझदार व्यक्ति यही मानकर चलता है कि भगवान जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं। ओस की बूँद-सा है जिंदगी का सफर, कभी फूल में तो कभी धूल में।
आइए ! गीता ज्ञान गंगा में अवगाहन करें-
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन! जब व्यक्ति अपने मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और स्वयं में ही संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ अर्थात् स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना परम सखा तो मानते ही थे, अब अर्जुन को परम भक्त की श्रेणी में लाते हुए कहते हैं— व्यक्ति को बिना किसी झिझक के सभी विषय-वासनाओं का त्याग कर अपना मन भगवान के भावनामृत में लगाना चाहिए क्योंकि वहीं से उसको दिव्य चेतना प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरूप वह अपने आपको भगवान का सेवक मानते हुए सहज रूप में सदा प्रसन्न रहने लगता है।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
भगवान कहते हैं कि स्थिर बुद्धि उसी व्यक्ति की हो सकती है, जिसने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया हो। इस श्लोक में कछुए का बड़ा सुंदर दृष्टांत दिया गया है। कछुआ जब चलता है तब उसके छ: अंग दिखते हैं- चार पैर, एक पूंछ और एक मस्तक। परंतु जब वह अपने अंगों को छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखाई देती है। ऐसे ही स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति पाँच इन्द्रियां और एक मन इन छहों को अपने-अपने विषय-वासनाओं से हटा लेता है। इंद्रियों की तुलना जहरीले साँपों से की गई है जो स्वतन्त्रता पूर्वक कर्म करना चाहती हैं। सच्चे भक्त को एक सपेरे की तरह अपनी इंद्रियों को वश में करने के लिए सदा सजग रहना चाहिए।
गीता के इस पुण्य संदेश को ध्यान में रखना चाहिए।
विकल्प मिलेंगे बहुत, मार्ग भटकाने के लिए।
संकल्प एक ही काफी है भगवान तक जाने के लिए॥
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...
जय श्रीकृष्ण...
- आरएन तिवारी