संस्कृत का खोया गौरव वापस दिलाना जरूरी

By चेतनादित्य आलोक | Aug 30, 2024

संस्कृत दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है। इसे देवताओं की भाषा यानी 'देवभाषा' अथवा 'देववाणी' भी कहा जाता है। अतीत में इस भाषा ने भारतीय सभ्यता को आकार प्रदान किया और आज भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई है। सच कहा जाए तो संस्कृत केवल एक भाषा ही नहीं है, बल्कि हिंदू संस्कृति का आधार स्तंभ है। यह अपने आप में ज्ञान, विज्ञान, धर्म, संस्कार, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता का विशाल भंडार समेटे हुए है। संस्कृत भाषा के अत्यन्त विशाल और व्यापक भंडार में गद्य, पद्य एवं चम्पू तीनों रूप मौजूद हैं। संस्कृत के इस महाभंडार में विश्व के प्रथम ग्रन्थ 'ऋग्वेद' समेत चारों वेद, समस्त उपनिषद, श्रीमद्भाग्वत महापुराण सहित अट्ठारहों पुराण, अत्यंत लोकप्रिय तथा सनातन संस्कृति एवं सभ्यता के निरूसीम प्रामाणिक विस्तार वाली गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महान ग्रंथ श्रीरामचरित मानस तथा श्रीराम कथा का प्रामाणिक आधार ग्रंथ महर्षि वाल्मिकी कृत रामायण, स्मृतियां, सूक्त, त्रयीसंग्रह, धर्मशास्त्र, महाभारत एवं अन्य कई महाकाव्य, नाटक आदि शामिल हैं। इनके अतिरिक्त शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द ज्योतिष, वेदांग−न्याय, वैशेषिक सांख्य योग, वेदांग मीमांसा, दर्शन आदि इसी भाषा की देन हैं। दर्शनों में हिंदू, जैन, बौद्ध, चार्वाक, आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।


रचनाकारों में अगस्त्य, अमरु, असाग, अश्वघोष, आर्यशूर, वाल्मीकि, व्यास, भल्लट, भवभूति, भीमस्वामी, भूवनदेव, मंखक, दंडी, भास, भारवि, कल्हण, कौटिल्य, कुंतक, सुबन्धु, माघ, बाणभट्ट, कालिदास, रत्नाकर स्वामी, श्रीहर्ष, जल्हण, जयदेव, शूद्रक, विशाखदत्त, लोलिम्बराज, विष्णु शर्मा, सत्यव्रत शास्त्री, हर्ष, राजशेखर एवं हर्षवर्धन आदि कवि, नाटककार, गद्यकार तथा पाणिनि जैसे अनन्य व्याकरणविद् संस्कृत भाषा के गरिमामय भंडार के महत्वपूर्ण अंग हैं। गौरतलब है कि संस्कृत भाषा के गर्भ से अनेक देशी एवं विदेशी भाषाओं का जन्म होने के कारण इसे 'भाषाओं की जननी' भी कहा जाता है। हालांकि पिछली सदियों में संस्कृत भाषा और इसमें रचित साहित्य तथा इसे रचने वाले साहित्यकारों को बहुत उपेक्षाएं झेलनी पड़ीं, लेकिन इसके बावजूद इसकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रही और आज भी कायम है, जबकि लैटिन एवं ग्रीक सहित दुनिया की दूसरी कई भाषाएं उपेक्षित होकर समय के तीव्र प्रवाह में काल−कवलित हो गयीं। संस्कृत भाषा की प्रासंगिकता बनी रहने का सबसे बड़ा कारण यह है कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली इस भाषा की वर्तनी, वर्ण, अक्षर तथा इनसे बनने वाले शब्दों के उच्चारण में आभासी अन्तर बिल्कुल नहीं होता। तात्पर्य यह कि संस्कृत एक सुनिश्चित व्याकरण वाली पूर्णतरू वैज्ञानिक भाषा है।

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संस्कृत को आधुनिक तकनीक में अपनी क्षमता के लिए भी पहचाना जाता है, विशेष रूप से कंप्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में और यही कारण है कि आज इसको आधुनिक लोक−जीवन शैली के सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन कम्प्यूटर की महत्वपूर्ण भाषा होने का गौरव भी प्राप्त है। संस्कृत भाषा का संरचित वाक्य−विन्यास और व्याकरण इसे कम्प्यूटर की प्रोग्रामिंग भाषाओं के लिए भी उत्कृष्ट बनाता है। अब तो वैज्ञानिक कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) एवं अन्य अत्याधुनिक तकनीकों में भी इस भाषा के उपयोग की संभावनाएं तलाशने में लगे हुए हैं। दरअसल, संस्कृत की संरचना इतनी सटीक है और इसकी ध्वन्यात्मकता इतनी समृद्ध है कि इसे आध्यात्मिक प्रवचन के लिए भी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा माना जाता है। आजकल इसे लेकर जर्मनी में अनेक स्तरों पर अनुसंधान−कार्य भी किए जा रहे हैं। अत्याधुनिक और विराट मारक क्षमता वाले हमारे देशी प्रक्षेपास्त्रों के लिए प्रारंभिक चिंतन का आधार भी संस्कृत में विरचित हमारे वेद एवं उनकी विविध संहिताएं रही हैं। ये वही वेदशास्त्र हैं, जिनसे हमारी महत्वपूर्ण वैदिक परंपरा आरंभ हुई। यह परंपरा सनातन धर्म की नींव है। संस्कारों की बात करें तो इस वैदिक परंपरा में कुल 16 संस्कार होते हैं। ये संस्कार वास्तव में 16 महत्वपूर्ण अनुष्ठान होते हैं, जो आद्योपांत व्यक्ति के जीवन से जुड़े रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये अनुष्ठान जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति का मार्गदर्शन करते हैं।


इन संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण 'उपनयन संस्कार' माना जाता है, जो कि दसवां संस्कार होता है। यह अनुष्ठान प्राचीन काल से ही बच्चों की औपचारिक शिक्षा की शुरुआत का प्रतीक रहा है। यह सावन पूर्णिमा को आयोजित किया जाता है, जब संस्कृत में 'गायत्री मंत्र' के पाठ के साथ बच्चों को वैदिक शिक्षा की दीक्षा दी जाती है। यह दीक्षा ज्ञान और आध्यात्मिक शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों के प्रवेश का प्रतीक होती है, जो व्यक्तियों के शैक्षिक और आध्यात्मिक जीवन के संदर्भ में संस्कृत भाषा के महत्व को रेखांकित करती है। संस्कृत भाषा की इन्हीं विशेषताओं एवं उपयोगिताओं को ध्यान में रखते हुए इसको सम्मान एवं संरक्षण देने तथा इसके पुनरुत्थान के उद्येश्य से लगभग 55 वर्ष पूर्व सन् 1969 की 'सावन पूर्णिमा' को भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के आदेश पर पहली बार कृतज्ञ राष्ट्र ने 'संस्कृत दिवस' मनाया था। इस बेहद महत्वपूर्ण अनुष्ठान के लिए सावन पूर्णिमा तिथि के चयन का प्रमुख कारण यह है कि प्राचीन काल में भारतवर्ष के समस्त अध्ययन केंद्रों में शिक्षण−सत्र का शुभारंभ सावन पूर्णिमा के शुभ दिन को ही शुभ मुहूर्त में किया जाता था। यह शिक्षण−सत्र अगले वर्ष पौष पूर्णिमा तक चलता था और प्रत्येक वर्ष पौष पूर्णिमा से सावन पूर्णिमा तक देश भर के सभी अध्ययन केंद्र बन्द रहते थे।


शिक्षण−सत्र का शुभारंभ हंसी−खुशी, उमंग और उत्सव के माहौल में वेद एवं अन्य शास्त्रों के पाठ के साथ किया जाता था। कमोबेश उसी परंपरा को मानते हुए सन् 1969 से लेकर आज तक प्रायरू प्रत्येक वर्ष 'सावन पूर्णिमा' को भारत सरकार संस्कृत दिवस का आयोजन करती आ रही है। इसके अतिरिक्त देश भर की राज्य सरकारें शिक्षण संस्थान एवं अध्ययन केंद्र भी संस्कृत दिवस का आयोजन करते हैं। इस दिन राज्य एवं जिला स्तरों पर संस्कृत भाषा में अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें कवि−सम्मेलनों के अतिरिक्त लेखकों तथा आचार्यों की संगोष्ठियां भी शामिल होती हैं। स्कूलों एवं कॉलेजों में विद्यार्थियों के बीच भाषण एवं 'श्लोक−पाठ' प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। संस्कृत भाषा के उत्थान को लेकर मनीषी राजनेता भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा उनके प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान सन् 2000 में 'संस्कृत सप्ताह' के आयोजन की आधिकारिक घोषणा की गई थी। हालांकि इस प्रकार की औपचारिकताएं निभाने मात्र से संस्कृत भाषा का कल्याण नहीं होने वाला। इसके लिए तो जरूरी है कि देश भर में अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व को रोका जाए, साथ ही, उसके प्रभाव एवं वर्चस्व को कम करने का प्रयास किया जाए। इसके अतिरिक्त उपेक्षा, अवमानना और विरोध का दंश झेलती तथा सतत संघर्ष करती आ रही देवभाषा संस्कृत के पुनरुत्थान एवं प्रचार−प्रसार के लिए समुचित प्रयास किए जाने की भी जरूरत है। यदि वास्तव में ऐसा किया गया तो देश में संस्कृत पढ़ने, लिखने और बोलने वालों की संख्या में वृद्धि होगी तथा संस्कृत भाषा को उसका खोया हुआ सम्मान एवं गौरव पुनरू प्राप्त हो सकेगा।


हालांकि संस्कृत की प्रासंगिकता अब प्राचीन ग्रंथों और अनुष्ठानों तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि यह आधुनिक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग भी बन चुकी है, विशेष रूप से भारत सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति−2020 के अंतर्गत। दरअसल, संस्कृत भाषा की अपरिहार्यता और इसके महत्व को पहचानते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति−2020 के अंतर्गत शिक्षा के क्षेत्र में संस्कृत की भूमिका को और स्पष्ट एवं सशक्त करने का कार्य किया है। बता दें कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति−2020 में भारतीय ज्ञान परंपरा को एक अनिवार्य पाठ्यक्रम के रूप में शामिल किया गया है, जिसमें प्राचीन ग्रंथों, शास्त्रों और दर्शनों के अध्ययन पर जोर दिया गया है, जो मुख्य रूप से संस्कृत में ही रचित और उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति−2020 भारतीय ज्ञान प्रणालियों को समेकित रूप से शामिल करने पर जोर देती है, जिसमें संस्कृत की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। उक्त शिक्षा नीति के अंतर्गत आधुनिक शिक्षा, समकालीन विद्वानों और प्राचीन भारतीय ज्ञान के विशाल भंडार के बीच संस्कृत एक सेतु के रूप में कार्य करती है।


−चेतनादित्य आलोक, 

वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं राजनीतिक विश्लेषक, 

रांची, झारखंड

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