By अंकित सिंह | Apr 13, 2022
भारत में एक कहावत बहुत प्रचलित है। भाषाओं को लेकर कहा जाता है कि अगर हिंदी हमारी मां है तो उर्दू मौसी है। इसका मतलब साफ है कि भारत में भाषाओं को कितना महत्व दिया जाता है और उसमें भी उर्दू का महत्व किस प्रकार से है। भाषा विज्ञान की माने तो हिंदी और उर्दू में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। नस्तालीक़ लिपि में लिखी गई हिंदी भाषा को है उर्दू कहा जाता है। उर्दू को हिंद-आर्य भाषा भी कहते हैं जिसका अपना कोई स्वतंत्र व्याकरण नहीं है। जानकार बताते हैं कि उर्दू में संस्कृत के तत्सम शब्द कम है जबकि अरबी-फारसी और संस्कृत के तद्भव शब्द अधिक है। उर्दू की लिपि फारसी से ली गई है जहां हिंदी साहित्य सहित अन्य भाषाएं लेखन के लिए बाएं से दाएं चलते हैं तो वहीं उर्दू इसके विपरीत दाएं से बाएं चलता है। उर्दू में अरबी फारसी शब्द का ज्यादा बोलबाला दिखाई देता है तो वही हिंदी में संस्कृत शब्द के अधिक प्रयोग होते हैं।
उर्दू हिंदुस्तानी भाषा का एक ऐसा रूप है जिसे भारत और पाकिस्तान द्वारा अपनाया गया है। उर्दू भाषा को जानने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को भी टटोलना होगा। उर्दू भाषा की मधुरता कर्णप्रिय लगती है। इसे 'तहज़ीब' और 'तमीज़' की भी भाषा कहते हैं। उर्दू भाषा तो आकर्षक है लेकिन जटिल भी है। जानकारी के मुताबिक, उर्दू भाषा का विकास सिन्ध में मुस्लिम शासकों के साथ ही शुरू हुआ। इसके बाद जब दिल्ली सल्तनत पर मुस्लिम तथा मुगल शासकों का कब्जा हुआ तब उर्दू का विकास अपने चरम पर गया। शुरुआत में मुस्लिम राजाओं ने फारसी को अपना भाषा बनाया। भारतीय भाषाओं में इसका का मिलन हुआ जिसके बाद उर्दू सामने आया। उर्दू में अरबी भाषा का भी अंश दिखाई देता है। उर्दू के लिए 18वीं और 19वीं शताब्दी स्वर्णकाल जैसा रहा इस दौरान उर्दू में धार्मिक के गद्य और धर्मनिरपेक्ष लेखन में बहुत निखार देखा गया।
इतिहास के पन्नों में इस बात का भी जिक्र है कि तेरहवीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के अंत तक आज के उर्दू भाषा को हिंदी, हिंदवी या हिंदुस्तानी के नाम से जाना जाता था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उर्दू की उत्पत्ति ब्रजभाषा से भी हुई है। मुगल काल के दौरान लिखी गई किताबों में भी उर्दू का बोलबाला देखने को मिला है। आमिर खुसरो और ख्वाजा मोहम्मद हुसैनी द्वारा उर्दू साहित्य का प्राचीन विकास देखने को मिलता है। औरंगजेब के शासन के अंत समय में जबान ए उर्दू कहा जाने लगा। औपनिवेशिक शासन के दौरान उर्दू को भारत में बढ़ावा दिया गया जहां अंग्रेजों ने इसे हिंदुस्तानी कहा। उच्च वर्गों के द्वारा इसे आधिकारिक उद्देश्यों के लिए लिखा और बोला भी गया। सूफी आंदोलन के दौरान भी उर्दू के विकास में मदद मिली। सूफी संतों ने हिंदी को फारसी से जोड़कर अपनी बातों को पहुंचाना शुरू किया था।
1837 में उर्दू भाषा अंग्रेजी के साथ उप महाद्वीपीय की आधिकारिक भाषा बन गई। इसी दौरान मिर्जा गालिब और अल्लामा इकबाल जैसे दिग्गज उर्दू कवियों ने अपनी रचनाओं से इसे और भी लोकप्रिय बनाया। मुस्लिम छात्रों को आकर्षित करने के लिए अंग्रेजों ने इसे सरकारी संस्थानों में पढ़ाना शुरू किया। हालांकि, आर्य समाज ने फारसी अरबी लिपि के उपयोग का विरोध किया। इसी दौरान उर्दू को अन्य भाषाओं, खास करके हिंदी से अलग करने की आवश्यकता महसूस भी की गई और तभी से हिंदी-उर्दू विवाद भी शुरू हुआ था। खारी बोली और देवनागरी भारतीयों की पहचान बनी जबकि उर्दू और फारसी मुसलमानों की। जब पाकिस्तान का निर्माण हुआ तो उर्दू को उसने अपना राष्ट्रीय भाषा चुना। वर्तमान में उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा है जिसे बहुसंख्यक आबादी अच्छी तरह से बोलती और समझती भी है।
उर्दू के लिए सबसे अच्छी बात तो यह है कि उसमें लचीलापन है और वह दूसरे भाषाओं के शब्दों को समाहित करने में सक्षम है। यही कारण है कि उर्दू आज लोकप्रिय भाषा बन गई है। इसके अलावा उर्दू का इस्तेमाल शेरो-शायरी में खूब किया जाता है। वर्तमान के भारत में देखें तो उर्दू हमारी संस्कृति और भाषा विज्ञान का एक अभिन्न हिस्सा है। देश के कई हिस्सों में खासकर उत्तर भारत में यह बेहद लोकप्रिय है। जम्मू कश्मीर, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में उर्दू राजभाषा के रूप में प्रयोग होती है। उत्तर प्रदेश के कई शहरों में उर्दू का बोलबाला दिखाई देता है जिसमें रामपुर, अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, लखनऊ शामिल है। भारत और पाकिस्तान के अलावा यूएई, ब्रिटेन, कनाडा, सऊदी अरब सहित कई अन्य देशों में उर्दू बोलने वालों की संख्या अच्छी खासी है। बॉलीवुड संगीत में भी उर्दू का बोलबाला रहा जिसके कारण इसकी लोकप्रियता में बढ़ोतरी देखने को मिली।