यूँ बुलबुलाते और फट जाते हैं (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | Jan 19, 2021

मैंने प्रण किया कि कल से अक्खी जिंदगी की लाइफ स्टाइल बदलकर रख दूँगा। देखने वाले देखते और सुनने वाले सुनते रह जायेंगे। वैसे भी मैं दिखाने और सुनाने के अलावा कर ही क्या सकता हूँ। सरकार ने रोजगार के नाम पर ज्यादा कुछ करने का मौका दिया नहीं, और हमने खुद से कुछ सीखा नहीं। हिसाब बराबर। कहने को तो डिग्री तक पढ़ा-लिखा हूँ लेकिन जमीनी सच्चाई बयान करने की बारी आती है तो इधर-उधर ताकने लगता हूँ। सो मैंने मन ही मन ठान लिया। अब कुछ भी होगा लेकिन पहले जैसा नहीं होगा। कल से सब कुछ नया-नया। एकदम चमक-धमक वाली जिंदगी। कल मेरा ऐसा होगा जो पहले जैसा कभी न होगा। बस जीवन में कल-कल होगा। कल से याद आया कि हिंदी वैयाकरणशास्त्री की मति मारी गई थी जो उन्हें भूत और भविष्य के लिए केवल एक ही शब्द मिला था– ‘कल’। कल के चक्कर में कल तक भटकता रहा। देखने वालों ने गालिब हमें पागलों का मसीहा कहा। अब यह मसीहा बदलना चाहता है तो कम्बख्त नींद भी किश्तों में मिलने लगी है। क्या करें बार-बार मधुमेह की बीमारी के चलते शौचालय के दर्शन जो करने पड़ते हैं।

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रात को अलार्म ऐसे लगा रखा था जैसे सुबह होते ही विश्वविजेता बनने के लिए सिकंदर की तरह कूच करना है। अब भला आपको क्या बताएँ कि घर का कुत्ता मौके-बेमौके भौंक देता है तो मैं उसको चुप नहीं करा पाता और चला था नए प्रण निभाने। यह अलार्म शब्द जिसने भी रखा है वह कहीं मिल जाए तो उसकी अच्छे से खबर लूँ। जब भी गाढ़ी नींद में रहता हूँ तभी अल्लाह-राम (शायद प्रचलन में यही आगे चलकर अलार्म बन गया होगा) की अजान और मंदिर की घंटी बनकर बज उठता है। मुझे आभास हुआ कि जो घरवालों की डाँट-डपट से उठने का आदी हो चुका हो उसे दुनिया के अलार्म क्या उठा पायेंगे।

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जैसे-तैसे सुबह उठा तो देखा कि सूरज अभी तक आया नहीं है। मैंने आव देखा न ताव एक बार के लिए घरवालों की क्लास लगाने के बारे में सोचा। तभी बदन को तार करने वाली ठंडी ने अहसास दिलाया कि ये तो सर्दी के दिन हैं। सूरज दादा वर्क फ्रॉम होम की तर्ज पर बादलों की ओट से छिप-छिपकर ड्यूटी किए जा रहे हैं। मैंने सोचा जिस सूरज दादा की फिराक़ में लोग आस लगाए जीते हैं वे ही साल के चार महीने सर्दी और चार महीने बारिश के चक्कर में छिप-छिपकर रहते हैं। और मात्र चार महीने गर्मी के दिनों में अपनी चुस्त-दुरुस्त ड्यूटी देकर हमारा आदर्श बने बैठे हैं। उनसे ज्यादा तो ड्यूटी मैं ही कर लेता हूँ। इस हिसाब से देखा जाए मुझे नए प्रण लेने की आवश्यकता ही नहीं है। वैसे भी न जाने कितने मोटे लोग दुबले बनने की, न जाने कितने काले लोग गोरे बनने की, न जाने कितने जड़मति बुद्धिमति बनने की कोशिश करने के चक्कर में पानी पर प्रण के लकीरें खींचते रहते हैं। उनमें हम भी एक सही। वैसे भी–


पानी के बुलबुलों-सी सोच हमारी, यूँ बुलबुलाते और फट जाते हैं।

जैसे नींद में खुद को शहंशाह और, सुबह होते ही कंगाल पाते हैं।।


-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

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