साक्षात्कारः हरिभाऊ राठौड ने कहा- 25 करोड़ घुमंतू आबादी को पूछने वाला कोई नहीं

By डॉ. रमेश ठाकुर | Oct 05, 2020

कोरोना काल में विमुक्त-घूमंतू जातियों की स्थिति बद से बदतर हो गई है। इनकी स्थिति पहले से ही खराब थी। जनजातियों की स्थिति के अध्ययन के लिए फरवरी 2006 में बने आयोग के अध्यक्ष बालकिशन रेनके ने अपनी फाइनल रिपोर्ट में साफ कहा था कि इन जातियों के लिए केंद्र सरकार के पास कोई कार्य योजना नहीं है। रिपोर्ट के बाद केंद्र ने राज्यों के अधीन कर दिया। इसके बाद एक और मज़ाक हुआ। पहली और तीसरी पंच वर्षीय योजना तक में इनके लिए प्रावधान था लेकिन किसी कारण वश यह राशि खर्च नहीं हुई और इन्हें सूची से ही हटा दिया। इन जातियों को उनका हक दिलाने के लिए सालों से सरकारी, अदालती व सामाजिक लड़ाई लड़ते आ रहे सामाजिक कार्यकर्ता, पूर्व सांसद हरिभाऊ राठौड केंद्र सरकार से तत्काल प्रभाव से आयोग के गठन की मांग कर रहे हैं। इस संबंध में उन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात भी की। डॉ. रमेश ठाकुर ने हरिभाऊ राठौड से पूरे मसले पर विस्तार से बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश-

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प्रश्न- विमुक्त जातियां किस तरह की समस्याओं का सामना कर रही हैं?


उत्तर- विमुक्त, बंजारा और घूमंतू जातियों का अपना इतिहास रहा है। देश की सबसे बड़ी पंचायत जिसे संसद भवन कहते हैं उसकी नींव लखीशाह बंजारा ने रखी थी। रकाबगंज गुरुद्वारा भी उन्हीं की देन है। इस गुरुद्वारे ने उनका नाम जिंदा रखा हुआ है और उनके नाम से एक हॉल बनाया हुआ है और उनकी गाथा का भी वर्णन किया है। लेकिन आज ये जातियां पूरी तरह से हाशिए पर हैं। गरीब, लाचारी, अनपढ़ता इनकी असल पहचान है। नट, गौर, बंजारा, विमुक्त, घूमंतू, बाजीगर आदि जातियों का इतिहास सियासी लोगों ने पूरी तरह से मिटाने का काम किया है। दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं ये लोग। पूर्व केंद्रीय मंत्री गोपीनाथ मुंडे भी इसी जाति से ताल्लुक रखते थे। मैं उनका मुख्य पीए हुआ करता था। उनके प्रयास भी विफल रहे। दरअसल किसी ने इच्छाशक्ति ही नहीं दिखाई कि ये जातियां भी विकास की भागीदार बनें।


प्रश्न- मुख्य धारा से न जुड़ने का क्या कारण रहा?


उत्तर- कारण तो कई हैं। ज्यादातर लोगों के पास चुनाव आयोग का अधिकृत पहचान पत्र भी नहीं है। उसकी वजह इनका कहीं कोई स्थाई निवास न होना है। आवास न होने के कारण ये लोग अपना ठौर बदलते रहते हैं। जाहिर-सी बात है जब उनका नाम वोटर लिस्ट में ही नहीं होगा तो नेता भला उनको क्यों भाव देंगे। यही वजह है कि इन्हें भारत का नागरिक नहीं समझा जाता है। इनकी कमाई इतनी भी नहीं हो पाती है कि ये साल में अपने तन ढंकने के लिए दो जोड़ी कपड़े सिलवा सकें। अपने बच्चों को स्कूल भेजने से परहेज करते हैं। इसके दो कारण हैं- इनके बच्चे छोटी उम्र से ही कमाना शुरू कर देते हैं और दूसरा इनका घुमन्तु होना। ये बड़े शहरों में होली के समय तीन महीने और दीवाली के समय तीन महीने तक रहते हैं फिर अन्यत्र चले जाते हैं। बंजारों से जब इस संबंध में बात करो तो वह सीधे तौर पर कहते हैं क्या करें? हम कोई दूसरा काम नहीं कर सकते हैं। लोग काम देने से भी इतराते हैं और छुआछूत भी करते हैं। समस्याओं के समुद्र में रात-दिन गोते लगाते रहते हैं।


प्रश्न- 2006 में इन जातियों के अध्ययन के लिए आयोग भी गठित हुआ था?


उत्तर- बिल्कुल बना था। उनकी रिपोर्ट भी देख लें, आयोग ने साफ कह दिया था कि घुमंतुओं के लिए सरकार के पास किसी तरह की कोई कार्य योजनाएं नहीं हैं। फिर उसके बाद सरकारों ने इनकी तरफ मुड़ कर भी नहीं देखा। संविधान की उद्देशिका, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की गारंटी देती है। अनुच्छेद 14 कहता है, ‘राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा’। सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े समुदायों को अगड़ों के समकक्ष लाने के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता है। संविधान के अनुच्छेद 16(4) व 15(4), राज्य को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े समुदायों की बेहतरी के लिए नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आरक्षण जैसे विशेष प्रावधान करने का अधिकार देते हैं। लेकिन ये जातियां इससे अछूती हैं।

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प्रश्न- आप क्या प्रयास कर रहे हैं?


उत्तर- सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति में आरक्षण दिलाने के मेरी अलख का पूरे देश ने समर्थन किया। इसी तरह मैं इन जातियों को भी उनका मुकम्मल हक दिलाने के लिए सालों से लड़ाई लड़ रहा हूं। सबसे पहले मैं पूरे देश में कोने-कोने में फैली इन जातियों के लोगों को एकजुट करने में लगा हूं। देश भर में विभिन्न जगहों पर बड़े स्तर के आयोजन किए जा रहे हैं। अगस्त में दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारे के लखीशाह बंजारा हॉल में एक आयोजन हुआ था जिसमें हजारों की संख्या में नट, गौर, बंजारा, विमुक्त, घूमंतू व बाजीगर समुदाय के लोगों ने भाग लिया। दरअसल ये लोग भी अब विकास की मुख्यधारा से जुड़ना चाहते हैं और बराबरी का हक मांगते हैं।


प्रश्न- मुक्तिधार संस्था के अनुसार दस करोड़ लोग इन जातियों से ताल्लुक रखते हैं?


उत्तर- ये आंकड़े कई साल पुराने हैं। इस वक्त पूरे भारत में 25 करोड़ से ज्यादा लोग इन जातियों से ताल्लुक रखते हैं, कोरोना काल में ये जातियां सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं। ताज्जुब इस बात का है कि 2011 की जनगणना में इनका कोई जिक्र नहीं। आज तक इन्हें ना राशन कार्ड मिला है और ना ही मताधिकार का हक। इतनी बड़ी आबादी के साथ इतना बड़ा धोखा निस्संदेह निंदा जनक है। देश में अनुसूचित जाति जनजाति के लिए करीब 500 करोड़ से भी ज्यादा खर्च का प्रावधान है लेकिन इन्हें कुछ भी हासिल नहीं। सरकारी-ग़ैरसरकारी नौकरियों में निगाह डालें, तो इनकी भागीदारी एक प्रतिशत भी नहीं दिखती। इन जातियों की सामाजिक दशा सुधारने के लिए केंद्र व प्रदेश सरकारों से पिछड़ी जाति या अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग भी समय-समय पर उठती रहीं है। लेकिन इनके उद्धार के लिए किसी ने कोई जहमत नहीं उठाई। राजनैतिक आकाओं ने इसलिए भी कोई पहल नहीं की क्योंकि उनके वोट भी तो नहीं मिलते।


-डॉ. रमेश ठाकुर

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