शिमला । हिमाचल में चैत्र माह शुरू होते ही ढोलरू वाले घर-घर घूम कर लोकगीत सुनाते है। इन दिनों ढोलरू गायन करने वाले घर घर जाकर नये साल के आगाज का संदेश दे रहे हैं। जिससे घर घर में मंगलमुखी गायकों के इस गायन की गूंज सुनाई दे रही है। हिंदू पंचांग में फाल्गुन और चैत्र को वसंत ऋतु के महीने माना जाता है। फाल्गुन पुराने साल का आखिरी और चैत्र नए साल का पहला महीना होता है। इस दौरान ही प्रकृति के प्रति कृतज्ञता दर्शाते हुए ढोलरू गाया जाता है। चैत्र मास के साथ ही प्रदेश में ढोलरू का गायन किया जाता है।
एक खास समुदाय के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यह परंपरा निभाते चले आ रहे हैं। अपने गायन से यह घार घर जाकर अपना संदेश देते हैं। बदले में इन्हें अनाज व कुछ रुपये देते हैं। दरअसल चैत्र मास में गाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। ढोलरू गायकों के मंगल गायन के साथ नव संवत्सर का प्रारंभ होता है। पहाड़ी जीवन शैली में चैत्र माह का नाम अपनी जुबान पर नहीं लाया जाता। यह लोग नाम सुनायेंगे, उसके बाद ही नाम लिया जा सकता है। त्योहारों उत्सवों पर गायन वादन, कोई शोर शराबा नहीं, सादगी और थोड़े संकोच के साथ, ढोलरू गायन की कला समाज के उस तबके ने साधी थी जिसके पास किसी तरह की सत्ता नहीं थी, वह द्वार द्वार जाकर आगत का स्वागत करता है। भविष्य का स्वागत गान । ढोलरू गाने वाला कितने संकोच के साथ हमारे लिए भविष्य का गायन कर रहा होता है। ढोलरू के प्रचलित बोल भी विनम्रता और कृतज्ञता से भरे हैं। दुनिया बनाने वाले का नाम पहले लो.. दुनिया दिखाने वाले माता पिता का नाम पहले लो.. दीन दुनिया का ज्ञान देने वाले गुरु का नाम पहले लो.. उसके बाद बाकी नाम लो. नए वर्ष के महीनों की बही तो उसके बाद खुलेगी।
हमारे कृषि-प्रधान समाज में तकरीबन हर जगह त्योहार इसी तरह मनाए जाते हैं जिनमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है और मनुष्य के साथ उसका तालमेल बिठाया जाता है. लगता है कि त्योहार मनाने के ये तरीके किसी शास्त्र ने नहीं रचे। ये लोक जीवन की सहज अभिव्यक्तियां हैं जो सदियों में ढली हैं, अब चूंकि समाज आमूल-चूल बदल रहा है और तेजी से बदल रहा है। आज चैत्ता गायन यानि ढोलरु के मंगलमुखी गायक अपनी विरासती गायन शैली की संभाल तथा संरक्षण को लेकर चिंतित हैं।
बहुत लोगों को शायद पता नहीं होगा कि ‘ढोलरू’ क्या है। चैत्र महीने की शुरुआत होते ही कुछ लोगों की टोली घर-घर घूमती है और लोकगीत सुनाती है। ढोलक की थाप पर गाए जाने वाले गाने को कहते है ढोलरू और इस घुमंतू टोली को कहते हैं ‘ढोलरू वाले।’ दरअसल पुराने समय से कुछ इलाकों में मान्यता चली आ रही है कि चैत्र महीना आने पर उसका नाम तब तक नहीं लेना है, जब तक “ढोलरू वाले’ आकर उन्हें इस महीने का नाम न सुना दें। संक्रांति को ढोलरू वाले ढोलक बजाकर चैत्र का नाम गायन के माध्यम से सुनाते हैं। यह प्रक्रिया एक हफ्ते तक चलती है और वे गांव-गांव जाकर ढोलरू सुनाते हैं।
कभी दो लोग होते हैं तो कभी 4 से 5 लोगों की टोली ढोलरू सुनाती है। पहले तो चैत्र का नाम सुनाया जाता है और फिर लोग गुजारिश करें तो अन्य लोक गीत भी गाए जाते हैं, जिनमें रुल्ह-कुल्ह, धोबण और कंढी शामिल हैं। रुल्ह-कुल्ह चंबा की रानी की कहानी है और धोबण एक धोबिन की। इसी तरह कंढी में बहन की कहानी है। आखिर में लोग इन ढोलरू वालों को अनाज, कपड़े और पैसे वगैरह देकर विदा करते हैं।
जम्मू राज्य के बन्नी इलाके से चंबा पहुंचे ढोलरुओं के अनुसार साल भर उन्हें इस महीने का इंतजार रहता है तथा वे इस माह चंबा आकर लोगों को चैत्र माह का नाम सुनाते हैं ताकि उनके जीवन में सुख शांति रहे। उनके अनुसार वे अपने पूर्वजों की परम्परा को निभा रहे हैं तथा गीत गाने की एवज में लोग उन्हें कपड़े, अनाज, मिठाईयां तथा पैसे इत्यादि देते हैं जिससे वह साल भर अपना गुजारा करते हैं। स्थानीय लोगों ने बताया कि वे बचपन से ही इस परंपरा को देखते आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि चैत्र मास में यह ढोलरू घर घर जाकर चैत्र महीने का नाम सुनाते हैं जिसे सुनकर लोगों का पूरा साल सुख और समृद्धि से बीतता है। इन लोगों से चैत्र महीने का नाम सुनते हैं और उसके बदले में नहीं कपड़े अनाज और पैसे देते हैं।आखिर क्यों लोग एक वर्ग विशेष के लोगों के मुख से चैत्र माह का नाम सुनते हैं? इसके पीछे भी अनेकों कहानियाँ सुनने को मिलती है। पंडितों का कहना है कि इसी माह में भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी, इसी माह भगवान ने मानव जाति की रचना की थी।
मान्यता है कि एक विशेष वर्ग के लोग भगवान शंकर की शरण में जाकर उनकी स्तुति करने लगे। भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें मंगल मुखी होने का वरदान दिया। भगवान ने कहा कि पृथ्वी लोक में जो कोई मानव आपके मुख से चैत्र माह का गुणगान सुनेगा, उसका सारा साल शुभ बीतेगा। मान्यता है कि इसी कारण इस वर्ग के लोग घर-घर जाकर आज भी चैत्र माह का नाम सुनाते हैं।