By अभिनय आकाश | Jun 10, 2020
एक ज़माना था कि बिहार में एक जुमला गूंजता था – जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू। लालू ने खुद इसे गढ़ा था। हिन्दुस्तान की राजनीति के अलबेले नेता लालू यादव, चार दशक की सियासत में शून्य से आसमान तक नापने वाले लालू यादव, जिनका अंदाज सबसे अलग है और बातें सबसे जुदा। अपनी वाकपटुता और गवई अंदाज से लोगों को हंसाने में माहिर लालू जिनकी बातें और जुमले सुनकर या उनके बोलने के अंदाज पर लोग अपनी मुस्कान ना रोक पाएं। ठेठ देसी अंदाज में जनता के साथ सीधा संवाद करने वाले देश के एकलौते ऐसे राजनेता लालू, जो अपनी सभाओं में मजाकिया बातें करते, चुटकुले सुनाकर लोगों को हंसाते, अपनी बातों की पोटली से निकालकर ऐसे ऐसे जुमलों के तीर बरसाते, जिन्हें सुनकर लोग तालियां बजाने पर मजबूर हो जाते। बिहार की राजनीति में लालू यादव का जन्म और उनका अंदाज अंदाज ए बयां और आम लोगों के साथ जोड़ने की उनकी विधा का अपना एक इतिहास रहा है।
उनकी भाषा शैली और संवाद कला को लेकर देश-विदेश में खूब चर्चाएं हुई। नाम हुआ तो बदनाम भी हुए लेकिन उनके अंदाज पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वैसे तो लालू यादव का मर्सियाँ राजनीति में कितनी बार लिखा जा चुका है पर हर बार उन्होंने दोगुनी ताकत के साथ राजनीति में अपना कमबैक किया है। बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह बनाने की बात हो या चारा घोटाला जैसा संगीन मामला, टीएन शेषण से भिड़ंत हो या फिर बिहार में जंगल राज, बेनामी संपत्ति का मामला। लालू और विवाद का साथ हर बार गहराता ही रहा।
लालू नाम कैसे पड़ा
लालू का नाम लालू कैसे पड़ा इसकी कहानी उनकी बहन गंगोत्री देवी ने सुनाई थी। बचपन में लालू गोरे, गोल-मटोल और भाइयों में सबसे छोटे थे। इसलिए पिता कुंदन राज ने लालू नाम रख दिया।
जेपी आंदोलन
लालू प्रसाद यादव का जन्म 11 जून 1948 को बिहार के गोपालगंज के फुलवरिया गांव में हुआ। बीएन कॉलेज से लालू ने राजनीतिक शास्त्र में एमए किया है। जेपी आंदोलन से राजनीति में आए।
चपरासी क्वार्टर से सीएम
बड़े भाई की पटना स्थित पशुचिकित्सा महाविद्यालय में चपरासी के पद पर नौकरी लगने के बाद घर की स्थिति थोड़ी बदली। बिहार का सीएम बनने के बाद करीब 4 महीने तक लालू यादव उसी चपरासी क्वार्टर में रहे।
चंद्रशेखर का फोन और सीएम की कुर्सी
मार्च 1990 के बिहार विधानसभा चुनावों में जनता दल के जीत जाने की स्थिति में लालू अपने मुख्यमंत्री बनने की संभावना को लेकर निश्चित नहीं थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह लालू यादव का समर्थन नहीं कर रहे थे। वे एक दलित नेता को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के इच्छुक थे। बिहार की सियासत में अलग ही खेल चल रहा था। लेकिन लालू तो जैसे ठान ही चुके थे कि आलाकमान का फैसला या फरमानों जो हो सीएम की कुर्सी पर तो विडाउट एनी इफ और बट उन्हें ही बैठना है। इस दिलचस्प किस्से का ज़िक्र संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब ‘द ब्रदर्स बिहारी’ में किया है।
लालू एक ऐसा चुनाव करवाने में लग गए जो उन्हें उसी प्रकार से जीतना था, जिस प्रकार वे आगे कई चुनाव जीतनेवाले थे। अपने खिलाफ जाने वाले वोटों का विभाजन करके। उन्होंने बलिया के दबंग नेता चंद्रशेखर से लगभग एक छोटे बच्चे की तरह शिकायत भी की और मदद की गुहार लगाई। उन्होंने कहा कि यह राजा हमारी संभावनाओं को खत्म करने पर तुला हुआ है। ‘‘कृपया हमारी मदद कीजिए, वरना वीपी सिंह अपने आदमी को बिहार का मुख्यमंत्री बना देंगे। चंद्रशेखर, बिना शक, वीपी सिंह से इतनी नफरत करते थे कि उनकी किसी भी इच्छा का विरोध कर सकते थे। उन्होंने लालू यादव को आश्वासन दिया कि वे इस मामले में कुछ करेंगे। जिसके बाद बिहार की सियासत में एक नया मोड़ आया। जिस दिन नेता के चुनाव के लिए जनता दल के विधायकों की बैठक थी, वहां अचानक मुख्यमंत्री पद के दो के बजाय तीन दावेदार प्रकट हो गए -रघुनाथ झा चंद्रशेखर के उम्मीदवार के रूप में दौड़ में शामिल हो गए थे। निस्संदेह वे मुख्यमंत्री पद के गंभीर उम्मीदवार नहीं थे। लेकिन वे वहां सिर्फ विधायक दल के वोटों का विभाजन करने आए थे, ताकि लालू यादव को फायदा हो जाए। झा को अपने मिशन में कामयाबी भी मिली। वोट जाति के आधार पर विभाजित हो गए, हरिजनों ने रामसुंदर दास के लिए वोट किया, सवर्णों ने रघुनाथ झा का साथ दिया। नतीजा लालू मामूली अंतर से जीत गए। 10 मार्च 1990, पटना का गांधी मैदान, 5000 की भीड़ और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रतिमा के ठीक नीचे सीएम की शपथ। यह पहला ऐसा मौका था जब राजभवन के प्रसार से बाहर कोई मुख्यमंत्री शपथ ले रहा था।
गरीबों के नेता
अब तक बिहार में सत्ता ज़्यादातर ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार समाज के पास रही थी। लालू पहली बार मुख्यमंत्री बने तो उनकी मां को ये भी नहीं पता था कि मुख्यमंत्री क्या होता है? तो लालू ने गोपालगंज के राजघराना हथुआ का उदाहरण देकर पद के बारे में समझाते हुए कहा कि, माई हथुआ राज मिल गईल (मां, हथुआ राज मिल गया)।
लालू ने अपने पहले पांच साल के राज में तय कर दिया कि बिहार में आइंदा कोई सरकार ओबीसी (और मुसलमान भी) की मर्ज़ी के बिना नहीं बनेगी। लालू के शुरूआती दिनों का कार्यकाल किसी फिल्म की कहानी की तरह ही थी। जिसमें एक चपरासी क्वार्टर में रहते लालू, उनकी पत्नी राबड़ी देवी का आम गृहिणी की तरह पोछा लगाते फोटो अखबार की सुर्खियों में रहती। शराब के ठेकों पर खुद छापा मारकर सरेआम उनके लाइसेंस कैंसिल करते।
सड़क, बिजली, पानी मुद्दा नहीं
जब सीएम बनने के बाद लालू राघोपुर उजियारा गए तो लोगों ने पुल और सड़क के मुद्दे को लेकर उन्हें घेर लिया। तो उन्होंने कहा कि पुल तो बन जाता लेकिन इससे आपको ही परेशानी होगी। उस दौर में वहां गांजा की खेती हुआ करती थी। लालू ने कहा कि अगर सड़कें बनेंगी तो वाहन आएंगे और पुलिस वाले तुम्हारे गाँव जल्दी पहुंचेंगे और गिरफ्तार कर लेंगे। जनता इस बात से खुश हो गई कि हमारे बारे में अच्छा सोचा।
आडवाणी का रथ रोक बटोरी सुर्खियां
बात अक्टूबर 1990 की है। लालू को मुख्यमंत्री बने 7-8 महीने ही हुए थे। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के संकल्प के साथ आडवाणी रथ यात्रा लेकर गुजरात के सोमनाथ से बिहार के समस्तीपुर पहुंचे थे। आडवाणी के रथ को बिहार से होते हुए सात दिन बाद 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचना था। 23 अक्टूबर को लालू ने समस्तीपुर में रथ के पहिए को रोक दिया और आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया। आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद लालू की छवि बीजेपी विरोधी नेता के रूप में बन गई। इसका भरपूर फायदा मिला। वे मुस्लिमों और वामपंथियों के चहेते बन गए। बाद में उन्होंने माय (मुस्लिम और यादव गठजोड़) फॉर्मूला दिया।
1995 में चुनाव और लालू व टीएन शेषण की खटास
लालू यादव को मुख्यमंत्री बने पांच बरस का वक्त हो गया था। उस दौर में बिहार का चुनाव बूथ लूट व हिंसा के लिए बदनाम था। उस वक्त के चुनाव आयुक्त टीएन शेषण ने स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने पर फोकस किया। राज्य में बड़े पैमाने पर अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती की गई। पहली बार कई चरणों में चुनाव कराए गए। शेषण ने विभिन्न कारणों से उस विधानसभा चुनाव की तिथियों में चार बार परिवर्तन किया। इससे लालू प्रसाद यादव उन्हें अपनी जीत की राह का सबसे बड़ा रोड़ा मानने लगे। चुनाव के दौरान शेषन व लालू के बीच जो भी हुआ, उसकी कहानी पत्रकार संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब 'बंधु बिहारी' में की है। एक बैठक में लालू ने कहा था, ''शेषन पगला सांड जैसा कर रहा है। मालूम नहीं है कि हम रस्सा बांध के खटाल में बंद कर सकते हैं।' संकषर्ण ठाकुर लिखते हैं कि लालू यादव का गुस्सा तब चरम पर था, जब शेषन ने चुनाव को चौथी बार स्थगित कर दिया। लालू यादव बिहार के तत्कालीन मुख्य निर्वाचन अधिकारी आरजेएम पिल्लई को फोन कर उनपर जमकर बरसे। बोले, ''पिल्लई, हम तुम्हारा चीफ मिनिस्टर और तुम हमारा अफसर। ई शेषनवां कहां से बीच में टपकता रहता है? ...फैक्स भेजता है। ...सब फैक्स-वैक्स उड़ा देंगे, इलेक्शन हो जाने दो।" बहरहाल, बिहार विधानसभा का वह चुनाव सम्पन्न हुआ। चुनावी नतीजे लालू यादव के पक्ष में रहे।
चारा घोटाला और गिफ्तारी के लिए सेना की मदद
लालू के दूसरे कार्यकाल के दौरान बिहार में ‘जंगलराज’ की शुरुआत हुई। 1996 की जनवरी में पश्चिम सिंहभूम में एनिमल हसबैंडरी विभाग के दफ्तर पर एक रेड पड़ी। इसमें जब्त हुए दस्तावेज़ सार्वजनिक हो गए। भूसे के बदले बिहार सरकार के खज़ाने से अनाप-शनाप बिल पास करवाए जा रहे थे। इसे चारा घोटाला कहा गया। इल्ज़ाम लगा जगन्नाथ मिश्र और लालू प्रसाद यादव पर। 11 मार्च 1996 को पटना हाईकोर्ट ने चारा घोटाला के सीबीआई जांच के आदेश दिए। सीबीआइ के सह निदेशक यू एन विश्वास तब चारा घोटाले की जांच कर रहे थे और उन्हें घोटाले के मुख्य आरोपी और बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को गिरफ्तार करना था। लेकिन तभी हुआ कुछ ऐसा जिसने सीबीआई को भी चौंका दिया। लालू के खिलाफ वारंट जारी हो गया लेकिन बिहार पुलिस ने लालू को गिरफ्तार करने से साफ इनकार कर दिया। यूएन विश्वास ने लालू की गिरफ्तारी के लिए बिहार के मुख्य सचिव से संपर्क भी साधा था, लेकिन वे उपलब्ध नहीं हुए। फिर डीजीपी से बातचीत की गई, तो उन्होंने एक तरीके से पूरे मामले को ही टाल दिया। ऐसे में एक बड़ा सवाल की घोटाले के आरोपी लालू प्रसाद की गिरफ्तारी आखिर कैसे होगी? मामले पर राज्य अधिकारियों से सामंजस्य न बैठ पाने के कारण यू एन बिस्बास ने सीबीआई के पटना स्थित कार्यलय में एक अधीक्षक रैंक के अधिकारी से कहा कि वह सेना से संपर्क करे और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करने में उसकी मदद लें। इतना होते ही मामला सीधा बिहार से दिल्ली पहुंच गया। उस वक्त के गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने संसद को बताया कि पटना पहुंचे सीबीआई अधिकारियों ने मदद के लिए दानापुर कैंट के ऑफिसर इंचार्ज को पत्र लिखा है। पत्र में सीबीआई ने सेना से कम से कम एक कंपनी सशस्त्र बल तुरंत भेजने की मांग की थी। सीबीआई से मदद का पत्र मिलने के बाद दानापुर कैंट के ऑफिसर इंचार्ज ने तुरंत ही इस बारे में अपने अधिकारियों को बताया। इसके बाद सेना की तरफ से जवाब आया। सेना की तरफ से भी पहले निराशा ही हाथ लगी थी। सेना ने सीबीआई को उसके खत के जवाब में कहा, “केवल अधिसूचित नागरिक अधिकारियों के अनुरोध पर सहायता के लिए आ सकते हैं।”मामला फिर से एक बार कोर्ट पहुंचा। यहां से सीबीआई कोर्ट ने बिहार के डीजीपी के शोकॉज नोटिस जारी किया। हालांकि इसके बाद भी सीबीआई लालू यादव को गिरफ्तार नहीं कर पाई थी। तब केंद्र सरकार पर लालू का दबाव इस बात को लेकर था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री आईके गुजराल उनकी पसंद से प्रधानमंत्री बने थे और वो बिहार से राज्य सभा में गये थे। इसकी वजह से केंद्र सरकार और CBI के दिल्ली में कुछ अधिकारी चाहते थे कि लालू यादव को CBI की विशेष अदालत में आत्मसमर्पण करने का एक मौक़ा मिलना चाहिए और उनकी गिरफ़्तारी न हो। लेकिन यूएन विश्वास भी अपनी ज़िद पर अड़े थे। लेकिन आखिरकार लालू यादव ने अपनी मर्ज़ी के अनुसार 30 जुलाई को सीबीआई कोर्ट में आत्मसमर्पण किया।
लालू को भोले बाबा की सलाह
लालू के जेल की यात्रा की कहानी भी दिलचस्प है। आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव के पहली बार शाकाहार अपनाने के पीछे कहानी यह है कि 2001 में जब वे चारा घोटाला मामले में न्यायिक हिरासत में थे तो भगवान शिव उनके सपने में आए और उन्हें शाकाहारी बनने की ‘सलाह’ दी। भगवान की सलाह पर अमल करने के बाद वे देश के रेल मंत्री बने, मगर 2009 आम चुनाव के पहले वे अपना संकल्प तोड़ बैठे और फिर से मांसाहारी भोजन खाना शुरू कर दिया। उसके बाद वे हर चुनाव हारते रहे और आखिरकार 30 सितंबर को उन्हें सजा भी हो गई।
रेल मंत्री रहते झेलनी पड़ी थी शर्मिंदगी
बात 2007 की है जब लालू रेल मंत्री थे। उस साल 13 फरवरी को लालू के सास और ससुर बेटिकट यात्रा करते हुए पकड़े गए थे। दोनों संपर्क क्रांति एक्सप्रेस ट्रेन में फर्स्ट क्लास में सफर कर रहे थे और जब टिकट चेकर ने टिकट मांगा तो उन्होंने कहा कि वे कभी टिकट लेकर यात्रा नहीं करते हैं। बाद में उनका चालान लालू ने भरा था।
बहरहाल, पटना में दानापुर-खगौल रोड नामक एक सड़क है। शताब्दी स्मारक पार्क के पास से लगी इस सड़क से दानापुर-पाटलिपुत्र रोड की एक और सड़क शुरू होती है। इसी के चलते इस इलाके का नाम सगुण मोड़ पड़ गया है। सड़कों पर आने वाले मोड़ अप्रत्याशित होने का अंदेशा लेकर आते हैं। बिहार की राजनीति के किंगमेकर कहे जाने वाले लालू के साथ यही हुआ है। उनका राजनैतिक करियर सगुण मोड़ पर आकर रुक गया है। यहां से आगे कुछ तय नहीं।