By सुखी भारती | Jan 25, 2024
गोस्वामी तुलसीदास जी एक चौपाई कहते हैं-
‘जदपि कबित रस एकउ नाहीं।
राम प्रताप प्रगट एहि माहीं।।
सोइ भरोस मोरें मन आवा।
केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा।।’
वे कहते हैं, यद्यपि मेरी रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीराम जी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में बस यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?
निश्चित ही गोस्वामी जी श्रीरामचरित मानस के रूप में एक ऐसा महान गंथ, संसार को देने जा रहे थे, जिसकी चर्चा युगों-युगों तक होनी थी। लेकिन सोचकर देखिए, जब किसी रचना से पहले ही, उस रचना के ऐसे उच्च स्तर के भविष्य का ज्ञान हो, तो क्या ऐसा संभव नहीं है, कि रचनाकार को उसकी रचना का, अहंकार ही न हो? अहंकार आना स्वाभाविक-सा लगता है। लेकिन गोस्वामी जी की वाणी में कितनी ईमानदारी झलक रही है, कि वे पहले ही स्वीकार कर रहे हैं, कि मेरी कविता में एक भी रस वाली कोई बात नहीं है। मुझ मूढ़ को भला आता ही क्या है? लेकिन तब भी अगर मैं ऐसा महान कार्य कर पा रहा हूँ, तो इसके पीछे एक ही कारण है। वह यह है, कि मेरी कविता में राम जी का प्रताप प्रगट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। क्योंकि श्रीराम जी के संग से अच्छा, संसार में भला और क्या होगा? और अगर संग ही किसी अच्छे का है, तो आपका अच्छा तो स्वतः ही हो जायेगा।
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने कुछ सुंदर उदाहरण भी दिए। जैसे-
‘धूमउ तजइ सहज करुआई।
अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।।
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी।
राम कथा जग मंगल करनी।।’
अर्थात अगर धुँआं भी, ‘अगर’ अर्थात धूप बत्ती का संग कर ले, तो उसमें कड़वाहट वाली गंध न आकर, सुगंध आने लगती है। मेरी कविता अवश्य ही भद्दी है, लेकिन इसमें जगत का कल्याण करने वाली श्रीराम कथा रुपी उत्तम वस्तु का वर्णन है। जिस कारण यह सहज ही श्रेष्ठ हो गई है।
सज्जनों! कहने का तात्पर्य यह है, कि हम संसार में कितनी ही बार, किसी साधारण से कार्य को करने में भी हतोत्साहित हो जाते हैं। हम कितनी ही गुणा भाग में लग जाते हैं, कि हमारा कार्य सफल हो भी पायेगा अथवा नहीं। हम अगर असफल हो गये तो, हम तो बर्बाद ही हो जायेंगे। फिर हमारा क्या होगा? कौन हमारी बाँह पकड़ेगा?
इन्हीं व्यर्थ के चिंतनों में फँसकर हम अपनी ऊर्जा को, अपने लक्ष्य में ढंग से नहीं लगा पाते। जिसका परिणाम यह होता है, कि हम अपने जीवन में आगे ही नहीं बढ़ पाते। ऐसी विकट परिस्थितियों से आज प्रत्येक जन मानस झुलस रहा है। विशेष कर आज की युवा पीढ़ी। जो अपने नकारात्मक मानसिक पीड़ा से अतिअंत त्रस्त है। उनमें अवसाद एवं अन्य मानसिक परेशानियां उन्हें जीने नहीं देती हैं। वे इस समस्या से निजात पाने के लिए अनेकों मनोविज्ञानिक चिकित्सकों के पास जाते हैं। ‘मोटिवेशनल स्पीकर’ के माध्यम से वे अपने रोग से छुटकारा पाना चाहते हैं। लेकिन इतना होने पर भी कोई समाधान नहीं निकलता। समाधान होता, तो प्रत्येक वर्ष इतने विद्यार्थी आत्म हत्या न करते।
वहीं गोस्वामी जी भी अपनी सीमित बुद्धि का प्रचार करते हुए कहते हैं, कि मेरी बुद्धि तो एक साधारण लकड़ी की भाँति है। जिसे कोई भी न पूछे। लेकिन अगर वही साधारण लकड़ी मलय पर्वत का संग कर ले, तो वह चंदन ही हो जाती है। तो क्या ऐसे में कोई उस लकड़ी को सामान्य भाव से देखता है?
विचारणीय है, कि इतना होने पर भी, गोस्वामी जी का साहस इतना बुलंद क्यों है? कारण मात्र यह है, कि वे श्रीराम जी को पूर्णतः समर्पित हैं, व श्रीराम जी के पावन सान्धिय को प्रतिक्षण महसूस करने वालों में शिरोमणि हैं। उनके मन में कील की भाँति ठुंका हुआ है, कि मैं कैसा भी हुँ, मुझमें भले कितने भी अवगुण क्यों न हों? लेकिन मेरे श्रीराम जी तो मेरे साथ में हैं न? जैसे लोहे की कील में यह अवगुण है, कि वह पानी में फेंकने पर डूब जाती है। वह तैर नहीं पाती। लेकिन वही कील को जब नौका में लगा दिया जाता है, तो नौका के साथ, वह कील भी तैर जाती है।
काला रंग किसी को पसंद नहीं है? हर कोई गौरी चमड़ी वालों को पसंद करता है। लेकिन श्यामा गौ का रंग भी तो काला ही होता है। क्या उसे आप नकार देते हैं? नहीं! उसके दूध को गुणकारी, उजला व उत्तम होने के कारण, सभी उसे पीते हैं। ठीक ऐसे ही अगर संसार के प्रत्येक जन स्वयं को श्रीराम जी के पावन श्रीचरणों में अर्पित करदे, तो उसे अवसाद घेर ही नहीं सकता। वह प्रतिक्षण साहस की चरम सीमा को छूता दृष्टिपात होगा। कारण कि श्रीराम जी की कथा व उनकी दिव्य लीलाओं का श्रवण करना, अपने आपस में एक ऊर्जा का स्रोत है। तभी तो गोस्वामी जी के हौंसले हिमालय की तरह अडिग हैं। उन्हें रत्ती भर भी संशय नहीं, कि मैं अपने मनोरथ मे सफल हो भी पाऊँगा अथवा नहीं।
बस यही मानसिकता की आवश्यकता आज संसार के प्रत्येक व्यक्ति को है। (क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती