Gyan Ganga: श्रीसती जी के मृत्यु का समाचार मिलते ही भगवान शंकर क्रोध की ज्वाला में धधकने लगे थे

By सुखी भारती | Jul 25, 2024

श्रीसती जी ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में, भगवान शंकर का भाग न देखकर, क्रोध को अपना मीत बना लिया। वे सभा में चारों ओर अपने लाल नेत्रें से, सबको मानों लीलने ही वाली थी। सभी सभासद, श्रीसती जी के इस भयानक रुप को देख कर थर-थर काँपने लगे। श्रीसती जी कब किसीको काल की भाँति निगल जायें, कोई पता नहीं था। श्रीसती जी के हृदय में, क्रोध का इतना बड़ा बवँडर भी छुपा हो सकता है, इसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। सबसे बड़ी बात, कि अब श्रीसती जी के मन में किसी के लिये, कोई मान-मर्यादा अथवा संस्कार नहीं रह गया था। कारण कि जिस सभा में भगवान शंकर के लिए कोई मर्यादा व संस्कार नहीं रखा गया हो, भला उस सभा अथवा सभासदों के लिए, किस प्रकार की मर्यादा? इसलिए जिस पिता के लिए अभी तक श्रीसती जी के हृदय में सम्मान था, वहाँ अब दण्ड व क्रोध की भावना आ चुकी थी। तभी तो वे ऐसी कठोर भाषा का प्रयोग करती हैं-


‘जगदातमा महेसु पुरारी।

जगत जनक सब के हितकारी।।

पिता मंदमति निंदत तेही।

दच्छ सुक्र संभव यह देही।।’


त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं। मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा करता है, और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है।

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सज्जनों श्रीसती जी का भगवान शंकर के प्रति प्रेम तो देखिये। उन्होंने जब देखा, कि उनके पिता भगवान शंकर के प्रति दुर्भावना व कटुता के भावों से, सिर से नख तक, इस कदर प्रभावित हैं, कि अब तो वे मेरे प्रेम व सत्कार के भी योग्य नहीं रहे। इसलिए उन्हें मंदबुद्धि से बड़कर मैं भला उन्हें क्या कहुँ? दुख केवल इतना ही होता तो कोई बात नहीं थी। क्योंकि जब मैं अपने सरीर की ओर देखती हुँ, तो मुझे ओर भी घिन्न आती है। कारण कि मेरा शरीर उन्हीं के वीर्य से तो उत्पन्न है। यह सोचकर मुझे लज्जा आती है। मैं ऐसे प्रभु निंदक की बेटी हूं, शायद इसी कारण ही मैं भगवान शंकर के वचनों पर टिक नहीं पाई। भगवान शंकर ने श्रीराम को प्रणाम किया, किंतु मैं अपनी अलग ही चाल चली। यहाँ पिता के घर आने पर भी भगवान शंकर ने मना किया था, किंतु मैं यहाँ भी हठपूर्वक चली आई। निश्चित ही यह सब इस कारण है, क्योंकि मेरी नसों में शिवद्रोही का रक्त प्रवाह कर रहा है। मेरा रोम-रोम पिता के अपवित्र वीर्य के प्रभाव से मलिन है। इतना होने पर भी मैं इस सरीर से नाता रख पा रही हूं, यह न सहने योग्य पाप है। निश्चित ही इस अनिष्ट को इसी समय समाप्त कर देना चाहिए-


‘तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू।

उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू।।

अग कहि जोग अगिनि तनु जारा।

भयउ सकल मख हाहाकारा।।’


इसलिये चन्द्रमा को ललाट को धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके, मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूंगी। ऐसा कहकर श्रीसती जी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। यह देख सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया। श्रीसती जी का मरण देख भगवान शंकर के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। चारों ओर चीतकार हो उठी। यज्ञ बचाने का किसी में साहस नहीं हो रहा था। लेकिन विध्वंस होते देख अंततः मुनिश्वर भृगुजी ने उसकी रक्षा की।


श्रीसती जी के मरण का समाचार जब भगवान शंकर को मिला, तो वे क्रोध की ज्वाला में धधकने लगे। उन्होंने तुरंत ही अपने दूत वीरभद्र को वहाँ भेजा। वीरभद्र में भी अपार क्रोध की अग्नि धधक रही थी। वीरभद्र ने वहाँ जाते ही यज्ञ कुण्ड उखाड़ फेंका। यज्ञ विध्वंस कर दिया। हर एक देवता को यथोचित दण्ड दिया। चारों ओर उजाड़ ही उजाड़ था। कोई शिवद्रोही वीरभद्र के प्रकोप से बच नहीं पा रहा था।


प्रजापति दक्ष के साथ भी भला कौन सी दया बरतनी थी? उसे भी उचित दण्ड मिला। प्रजापति दक्ष को क्या दण्ड मिलता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।


- सुखी भारती

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