Lok Sabha Elections 2024: 17 वर्षो के बाद फिर बसपा सोशल इंजीनियरिंग की राह पर

By अजय कुमार | Apr 05, 2024

लखनऊ। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमों मायावती एक बार फिर सियासी प्रयोग कर रही हैं। यह प्रयोग कोई नया नहीं है,लेकिन इस प्रयोग की ‘चमक-धमक’ बसपा 2007 में पूर्ण बहुमत से प्रदेश की सत्ता में आकर दिखा चुकी है। उस समय पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग की काफी चर्चा हुई थी। तब दलित, मुस्लिम और ओबीसी के साथ उसने ब्राह्मणों को तवज्जो देकर एक नया प्रयोग किया था, जो सफल रहा, जिसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया था। हालांकि, 2012 से पार्टी का जनाधार लगातार गिरता गया। ऐसे में बसपा ने कई और प्रयोग किए। विधानसभा चुनाव 2022 में बसपा ने 89 मुस्लिम प्रत्याशी दिए। कई जगह ऐसे प्रत्याशी उतारे, जिनको सपा की हार का कारण माना गया। नगर निकाय चुनाव 2023 में भी बसपा ने महापौर की 17 में 11 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे। हालांकि, ये प्रयोग सफल नहीं हुए और बसपा को करारी हार झेलनी पड़ी। इस बार लोकसभा चुनाव में बसपा ने शुरुआती लिस्ट में मुसलमान चेहरे उतारे तो लगा कि पार्टी फिर दलित-मुस्लिम कार्ड खेलेगी, लेकिन अब तक सबसे ज्यादा सवर्णों पर दांव लगाया गया है।


बसपा 36 प्रत्याशियों का ऐलान कर चुकी है। इसमें 11 सवर्ण हैं। 10 एससी और 9 मुस्लिम चेहरे हैं। पश्चिम की कई सीटों पर वोटरों की संख्या को ध्यान में रखकर दलित-मुस्लिम समीकरण साधा है। जहां सवर्ण प्रभावशाली हैं, वहां सवर्ण प्रत्याशी देकर सवर्ण-दलित समीकरण को तवज्जो दी है। जानकारों का कहना है कि दलित तो बसपा का कैडर वोट है। ऐसे में अन्य वर्ग के प्रत्याशियों के जरिए उसकी कोशिश है कि मुस्लिम और दलित उसके साथ जुड़ जाएं तो फायदा हो सकता है। पांच ओबीसी को भी बसपा ने टिकट दिया है। उसने 2007 में भी यही प्रयोग किया था। इसका नुकसान एनडीए और इंडी गठबंधन दोनों को होगा।

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दरअसल, लगातार हार के बाद बसपा लगातार प्रयोग कर रही है। उसने 2022 और फिर नगर निकाय चुनाव में मुस्लिम कार्ड खेला, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। ऐसे में मंथन के बाद बसपा फिर एक प्रयोग करने जा रही है। मायावती लगातार एक साल से कह रही हैं कि बसपा अकेले चुनाव लड़ेंगी। बैलेंस ऑफ पावर बनाने की भी बात कर रही हैं। बैलेंस ऑफ पावर का मतलब यह है कि चुनाव बाद अगर किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो उस हिसाब से निर्णय लिया जाएगा। वहीं, राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचाना भी बसपा का मकसद है। गठबंधन में उसे बहुत कम सीटें मिलतीं। ऐसे में कुल वोट प्रतिशत गिर सकता था। यही वजह है कि सीट के अनुसार जहां जिस जाति का प्रभाव है, उसके अनुसार टिकट दिए गए हैं।

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