खुद को कम नहीं आंकें महिलाएँ, अपने अरमानों का गला भी नहीं घोंटें
एक पुरूष बाहर जाकर पूरी तरह बेफ्रिक होकर सिर्फ इसलिए अपना काम बखूबी कर पाता है क्योंकि वह मन ही मन वह जानता है कि उसके न होने पर भी परिवार को संभालने के लिए एक स्त्री घर में है।
आज जब पूरे विश्व में नारी को सम्मान देने के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है, वहां खुद स्त्री ही अपनी मानसिक बेड़ियों से जकड़ी हुई नजर आती है। ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं, जिनके मन में यह बात गहराई से समा चुकी है कि उनके काम के कोई मायने नहीं हैं। जो भी वह करती हैं, वह उनकी जिम्मेदारी है और इसलिए उसमें कुछ भी अलग या खास नहीं है। उनकी यह सोच न तो उन्हें दूसरों के सामने और न ही खुद की नजरों में कोई सम्मान दिला पाती। संस्कृत में एक श्लोक है, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता, अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। किंतु वर्तमान में पुरूष तो दूर खुद एक गृहिणी भी स्वयं को सम्मान नहीं देती। अगर एक पुरूष यह कहे कि तुम सारा दिन घर में करती ही क्या हो, तो उनकी मानसिकता समझ में आती है लेकिन अगर स्त्री के मुख से यह शब्द निकले कि मैं तो कुछ नहीं करती, सिर्फ घर का पुरूष ही महत्वपूर्ण है तो स्थिति चिंतनीय और गंभीर हो जाती है।
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शायद इसके पीछे का एक कारण यह है कि एक घरेलू महिला घर में अपना आर्थिक सहयोग नहीं करती और इसलिए वह यह समझती है कि उसके काम के कोई मायने नहीं हैं। पर वास्तविकता इससे बेहद अलग है। चेर के शब्दों में, महिलाएं समाज की सच्ची शिल्पकार होती हैं। वह भले ही आर्थिक रूप से सहयोग न कर रही हों लेकिन पूरे परिवार को संभालना उसी की जिम्मेदारी होती है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा था कि नारी ही परिवार और समाज की केन्द्रबिन्दु है। एक स्त्री बचपन से ही परिवार के लिए जीती है और विवाह के पश्चात एक स्त्री पर बहुत सी जिम्मेदारियां आ जाती हैं। घर−परिवार, चौके−चूल्हे में ही उसका सारा जीवन निकल जाता है। कई बार तो वह घर−परिवार के लिए वह अपनी खुशी, अपने अरमानों का भी गला घोंट देती है। परिवार के प्रति उनका यह प्यार, त्याग और उसके बदले में किसी चीज की अपेक्षा न करना वास्तव में सम्माननीय है। कार्ल मार्क्स ने भी एक बार कहा था कि पुरूष अपना भाग्य नियंत्रित नहीं करते। उसके जीवन में मौजूद औरत अपने गुणों से उसके लिए भाग्य का निर्माण करती है।
एक स्त्री को कभी भी खुद को कमतर नहीं आंकना चाहिए। एक घर को चलाने के लिए मात्र पैसों की ही आवश्यकता नहीं होती। एक पुरूष बाहर जाकर पूरी तरह बेफ्रिक होकर सिर्फ इसलिए अपना काम बखूबी कर पाता है क्योंकि वह मन ही मन वह जानता है कि उसके न होने पर भी परिवार को संभालने के लिए एक स्त्री घर में है। इतना ही नहीं, बच्चों के भीतर संस्कार का समावेश करने से लेकर घर के बुजुर्गों की हर छोटी−बड़ी जरूरत का ध्यान रखती है एक स्त्री। इतिहास के परिप्रेक्ष्य से भी अगर देखा जाए तो पुतलीबाई या जीजाबाई जैसी स्त्रियां बाहर जाकर धन नहीं कमाती थीं लेकिन मां पुतलीबाई ने गांधीजी व जीजाबाई ने शिवाजी महाराज में ऐसे संस्कारों का समावेश किया था कि आज भी पूरा भारत शिवाजी महाराज व गांधीजी को बेहद श्रद्धाभाव से याद करता है। स्वामी विवेकानंद भी मानते थे कि हम प्राचीन भारत की नारियों को आदर्श मानकर ही नारी का उत्थान और सशक्तिकरण कर सकते हैं।
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कहते हैं कि व्यक्ति की सोच ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण करती है और महिला दिवस पर जब पूरे विश्व से स्त्रियों को सम्मान मिल रहा है, तो यह बेहद आवश्यक है कि सबसे पहले आप अपनी सोच में ही खुद के लिए सम्मान पैदा करें। वैसे भी जब तक आप खुद का सम्मान करना नहीं सीखेंगी तो घर के अन्य सदस्य आपका सम्मान कैसे करेंगे। ओपरा विनफ्रे भी महिलाओं को उनकी सोच में परिवर्तन लाने के लिए जोर देते हुए कहते हैं कि एक रानी की तरह सोचिए। रानी असफलता से नहीं डरतीं, क्योंकि वह सफलता की एक सीढ़ी है।
एक स्त्री ही होती है, जो जीवन की तमाम विषमताओं के बीच भी टूटती नहीं हैं। इतना ही नहीं, वह पूरे परिवार के लिए वह हमेशा खड़ी रहती है। भारतीय नारी वास्तव में दुर्बलता की नहीं बल्कि प्रखरता की प्रतीक है। बस जरूरत है तो उनकी मानसिक बेड़ियों को तोड़कर उन्हें झिंझोड़ने और झकझोरने की। एक बार अपनी मानसिक बेड़ियों को तोड़कर तो देखिए, सारा जहां आपके कदम चूमेगा।
-मिताली जैन
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