यूपी चुनाव में बसपा को कम आंकना बड़ी भूल, मायावती के फार्मूले ने काम किया तो भौंचक्के रह जाएंगे सभी दल
आरम्भ काल में बहुजन समाज पार्टी की मजबूरी यह थी कि उसके पास दलितों के अलावा कोई वोट बैंक नहीं था, इसलिए पार्टी कभी समाजवादी पार्टी और कभी भाजपा के बीच लम्बे समय तक ‘झूलती’ रहीं। कभी भाजपा तो कभी सपा के सहारे सरकार बनाई।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बहुजन समाज पार्टी ने एक बार फिर अपना फोकस तय कर लिया है। बसपा 2007 की तरह एक बार भी ब्राह्मण वोटरों पर दांव लगाएगी। 2007 में बसपा ने ब्राह्मण वोटरों के सहारे सत्ता की सीढ़ियां चढ़ी थीं, पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। यह वही काशीराम की बसपा थी जो कभी दलितों को राजनीति में उनको हक दिलाने के लिए कहा करती थी, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उसकी भागेदारी।'' यही नहीं ‘तिलक-तराजू और तलवार इनको मारो........’ नारा भी बसपा समर्थकों द्वारा ही रचा गया था। बसपा सुप्रीमो ने इस नारे का फायदा तो खूब उठाया, परंतु यह कभी नहीं माना कि वह ही इस नारे की ‘रचियता’ थी। बसपा आलाकमान 2007 से पूर्व तक लगतार यह कोशिश करता रहा था कि दलितों के सहारे सत्ता हासिल की जाए, लेकिन जब 21 प्रतिशत दलित वोटरों के सहारे बीएसपी अपने मंसूबों में कामयाब होती नहीं दिखी तो बसपा को ब्राह्मण-मुसलमान नजर आने लगे। इसी के बाद बसपा ने नया नारा ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ एवं हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश हैं', दिया।
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खैर, बात 1984 में बसपा के गठन के समय के बाद बीएसपी की सियासत की की जाए तो बीएसपी लगभग बीस साल तक दलित वोटों पर अपना वर्चस्व क़ायम करते हुए ‘बहुजन हिताय’ की बात करती थी। इस समय ये नारा भी बहुत प्रचलित था कि ‘जो बहुजन की बात करेगा, वो देश पर राज करेगा।’ लेकिन जल्दी ही कड़वे सियासी अनुभवों से मायावती को ये समझ में आ गया कि सिर्फ़ एक वर्ग के वोट से सत्ता की चाभी मिलना सम्भव नहीं। इसमें मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी से तालमेल का वो कड़वा अनुभव भी था जिसने मायावती को सत्ता तक तो पहुंचाया पर ठहरने नहीं दिया। लेकिन उस समय वोट के ध्रुवीकरण के लिए मंच से ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ जैसे नारे भी लगते रहे। बाद में 1992 में स्टेट गेस्ट कांड भी हुआ, जिसमें समाजवादी पार्टी के नेताओं ने मायावती को बंधक बना लिया था, जिसके चलते मायावती की जान को भी खतरा हो गया था।
बसपा की मजबूरी यह थी कि उसके पास दलितों के अलावा कोई वोट बैंक नहीं था, इसलिए पार्टी कभी समाजवादी पार्टी और कभी भाजपा के बीच लम्बे समय तक ‘झूलती’ रहीं। कभी भाजपा तो कभी सपा के सहारे सरकार बनाई। मायावती ने अपनी सियासी ताक़त बढ़ाने के लिए 1997 और 2002 में जब भाजपा के सहयोग से सरकार बनायी तो ‘जय श्रीराम वाले नारे’ पर पर जवाब देने से बचती रहीं। फिर बसपा और मायावती के लिए साल 2007 में टर्निंग पाइंट आया। तब तक मायावती यह समझ चुकी थीं कि बिना सोशल इंजीनियरिंग के सत्ता के शिखर पर ठहरना सम्भव नहीं है। तब नीले रंग से रंगी दीवारों पर हाथी बनाकर लिखे गए नारे ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ की जगह ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ नारे ने ली। यही नहीं चुनाव में भी ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ और ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे खूब लगे। मायावती को इन नारों के बाद सफलता भी मिली।
आज यूपी की राजनीति में हाशिए पर पहुंचीं मायावाती बसपा की वापसी के लिए उसी सोशल इंजीनियरिंग को धार देने में लगी हैं। इसी क्रम में जिस ब्राह्मण वोट की बात सभी दल कर रहे हैं, उनको भी बसपा साधने की क़वायद में लगी है। इसलिए प्रबुद्ध सम्मेलन में बीएसपी सुप्रीमो की मौजूदगी में ना सिर्फ जय श्रीराम ने नारे लग रहे हैं बल्कि मायावती ‘सर्वजन हिताय सार्वजनिक सुखाय’ की बात कर रही हैं। सूत्रों के अनुसार अब इसी नयी राजनीतिक जरूरत के अनुसार और नारे गढ़े जाएंगे जो चुनाव से पहले सुनाई देंगे।
लब्बोलुआब यह है कि उत्तर प्रदेश में मिशन-2022 के लिए सभी राजनैतिक दल अपने-अपने हिसाब से जीत की तैयारियां कर रहे हैं, बीजेपी 2017 की तरह ही इस बार भी हिन्दुत्व के एजेंडे पर चलते हुए सत्ता में वापसी की राह तलाश रही है तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के नेता बीजेपी के हिन्दुत्व में सेंधमारी करके कुछ ऐसी जातियों को अपने साथ मिलाना चाहते हैं, जिनके बारे में यह आम धारणा है कि यह जातियां योगी राज में अपनी अनदेखी से दुखी हैं या फिर इनको लगता है कि बीजेपी सरकार द्वारा उनकी बिरादरी का बेवजह उत्पीड़न किया जा रहा है। इसमें दलित, ब्राह्मण और पिछड़ा वर्ग की कई जातियां शामिल हैं, जिनको लगता है कि योगी सरकार उनके नौकरियों में आरक्षण के हक को दबाए बैठी है। इसी प्रकार योगी सरकार के खिलाफ माहौल यह भी बनाया जा रहा है कि वह ब्राह्मणों का उत्पीड़न कर रही है। ब्राह्मण अधिकारियों को अच्छी पोस्टिंग नहीं दी जा रही है तो पार्टी के भीतर भी ब्राह्मण नेताओं को तवज्जो नहीं मिल रही है। कहने को तो योगी सरकार में कुछ ब्राह्मण नेता मंत्री पद पाए हुए हैं, लेकिन सरकार में इनकी हैसियत न के बराबर है। इसके अलावा कुछ ऐसे ब्राह्मण चेहरों को भी मंत्री बना दिया गया है जिनकी समाज में कोई खास पकड़ नहीं है, लेकिन पार्टी उनको ब्राह्मणों के बीच थोपना चाह रही है।
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योगी राज में जिस तरह से अपराधियों का एनकांउटर हो रहा है, उसमें कुछ अपराधियों को ब्राह्मण बता कर बीएसपी और सपा अपराध में भी जातीय एंगिल तलाश करके इसमें भी सियासत करने में लगी हैं। खासकर, बसपा इस मामले में कुछ ज्यादा ही उतावली दिखाई दे रही है। वह जिन अपराधियों की मुठभेड़ में मौत को अदालत तक ने सही ठहरा दिया है, उस मुठभेड़ को भी हत्या बताकर योगी सरकार पर हमलावर है। यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि 2007 की तरह 2022 में भी ब्राह्मणों के सहारे बीएसपी सत्ता की सीढ़ियां चढ़ सके। 2007 में बीएसपी ने 80 ब्राह्मण नेताओं को टिकट दिया था, जिसमें से 62 ने चुनाव जीता था। इन्हीं ब्राह्मण विधायकों के सहारे मायावती मुख्यमंत्री बन पाई थीं।
लम्बे समय से उत्तर प्रदेश में दलित, ब्राह्मण, मुसलमानों को मोहरा बनाकर चुनाव जीतते रहे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का भरोसा इसी सूत्र पर अब भी टिका है। निस्संदेह जाति की गोटें बिठाने में भारतीय जनता पार्टी के भी रणनीतिकार पीछे नहीं रहे, लेकिन बसपा व सपा का बहुत सीधा गणित है जबकि बीजेपी सभी हिन्दू जातियों को एकजुट करके अपनी ताकत बढ़ाने पर विश्वास रखती है। दोनों ही दलों की अपने-अपने जातिगत वोट बैंक के साथ मुस्लिम मत में हिस्सेदारी बराबरी के लिए है तो ब्राह्मणों के वोट से यह समीकरण बदल जाने की चाहत भी घर किए हुए हैं। दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण गठजोड़ से 2007 में सत्ता हासिल कर चुकीं बसपा सुप्रीमो मायावती खास तौर पर सोशल इंजीनियरिंग का दांव पूरी ताकत से 2022 के विधानसभा चुनाव में भी चलना चाहती हैं। इसीलिए बसपा ने अपने सबसे बड़े ब्राह्मण नेता सतीश मिश्र के कंधों पर ब्राह्मणों को मनाने की जिम्मेदारी डाल रखी है।
वैसे, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बीएसपी का ब्राह्मण कार्ड 2007 में भले ही खूब चला था, लेकिन 2012 में बीएसपी का यही कार्ड औधें मुंह गिर गया था। वर्ष 2012 में सत्ता गंवाने के बाद से अब तक हुए विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बसपा का जनाधार खिसकता ही रहा। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में तो पार्टी शून्य पर सिमट गई थी। भाजपा के बढ़ते प्रभाव से पार्टी की घटती ताकत का ही नतीजा रहा कि पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती ने अपनी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी तक से गठबंधन करने में गुरेज नहीं किया। गठबंधन से समाजवादी पार्टी को दस लोकसभा सीटें तो मिल गईं, लेकिन बसपा की स्थिति सुधरती नहीं दिखी। ऐसे में मायावती ने गठबंधन तोड़ अकेले ही विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया। तो उसे सबसे पहले ब्राह्मण वोट बैंक ही नजर आया।
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उधर, भाजपा भी ब्राह्मण समाज की नाराजगी दूर करने के लिए कोशिश में लगी है, लेकिन लगता नहीं है कि 2017 की तरह 2022 में भी ब्राह्मण वोटर एकजुट होकर भाजपा के साथ खड़े रहेंगे। ऐसे में सपा व बसपा का ब्राह्मण समाज में अपनी पैठ बनाने के लिए सम्मेलनों के साथ ही परशुराम की मूर्ति लगवाना सियासी तौर पर देखा जा रहा है। बसपा सुप्रीमो मायावती और पार्टी महासचिव सतीश मिश्र को लगता है ब्राह्मण बसपा के साथ आ गया तो मुस्लिम भी बसपा के साथ आने में संकोच नहीं करेगा। बसपा यदि दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम गठजोड़ बनाने में कामयाब हो गई तो यूपी की सियासत का पासा पलट सकता है। एक बात और चर्चा में है कि बसपा ब्राह्मणों के साथ मुस्लिम समाज को भी बड़ी संख्या में टिकट देने की तैयारी में है। भले ही 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा के ज्यादातर मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव हार गए थे लेकिन जिस तरह से मुस्लिम वोटबैंक को लेकर छोटे दल भी सक्रिय होते दिख रहे हैं, उससे मुस्लिम मत बंट सकते हैं जिसका सीधा फायदा पूर्व की भांति भाजपा को मिलना तय है।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में 14 फीसद ब्राह्मणों का करीब 100 सीटों पर प्रभाव है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण समाज का सदैव वर्चस्व रहा है। राज्य की 403 विधानसभा सीटों में से 100 सीटों पर ब्राह्मण समाज का प्रभाव बताया जाता है। इनमें भी 47 सीटें तो ऐसी हैं, जिन पर 25 फीसद से भी ज्यादा ब्राह्मण वोटर है। इसमें लखनऊ, वाराणसी, चंदौली, बहराइच, रायबरेली, अमेठी, उन्नाव, शाहजहांपुर, सीतापुर, कानपुर, सुलतानपुर, भदोही, जौनपुर, मिर्जापुर, प्रयागराज, अंबेडकरनगर, गोंडा, बलरामपुर, संत कबीरनगर, महराजगंज, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, श्रावस्ती आदि जिलों की ज्यादातर सीटें ब्राह्मण बाहुल्य हैं।
-अजय कुमार
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