कुछ भी कहो, सरकारी तंत्र में नहीं घटा भ्रष्टाचार
सरकारी एजेंसियों के साथ काम करते समय कंपनियों के काम जानबूझ कर रोके जाते हैं और रिश्वत लेने के बाद ही फाइल को मंजूरी दी जाती है। सीसीटीवी कैमरों लगाने से सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है।
केंद्र और भाजपा शासित राज्यों की सरकारें कितना ही भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का दावा करें किंतु सच्चाई इसके वितरीत है। एक सर्वे में दावा किया गया है कि 100 में से 66 लोगों को अपना काम कराने के लिए सरकारी तंत्र को रिश्वत देनी पड़ती है किंतु सच्चाई इसके विपरीत है। शायद ही कोई विभाग ऐसा होगा जहां बिना रिश्वत दिए काम हो जाए। सब जगह हालत बहुत खराब है। गैर भाजपा राज्यों की तरह भाजपा शासित राज्यों में भी प्रशासनिक तंत्र में भ्रष्टाचर का बोलबाला है। सरकारें मौन हैं।
देश में केंद्र और राज्य सरकारें कारोबार में सहूलियत और निजी क्षेत्र के निवेश में तेजी लाने पर जोर दे रहीं हैं। वहीं भ्रष्ट सरकारी मशीनरी अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल कंपनियों और उद्यमियों से अवैध तरीके से पैसे उगाहने में लगी हैं, जिसके चलते देश में उद्यमिता को बढ़ावा देने की सिंगल विंडो क्लियरेंस और ईज आफ डुइंग बिजनेस जैसे प्रयासों को पलीता लग रहा है। एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि करीब 66 प्रतिशत कंपनियों को सरकारी सेवाओं का लाभ लेने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। कंपनियों ने दावा किया कि उन्होंने सप्लायर क्वॉलीकेशन, कोटेशन, ऑर्डर प्राप्त करने तथा भुगतान के लिए रिश्वत दी है। लोकल सर्कल्स की रिपोर्ट के अनुसार कुल रिश्वत का 75 प्रतिशत कानूनी, माप-तौल, खाद्य, दवा, स्वास्थ्य आदि सरकारी विभागों के अधिकारियों को दी गई।
जांच रिपोर्ट कहती है कि कई कारोबारियों ने जीएसटी अधिकारियों, प्रदूषण विभाग, नगर निगम और बिजली विभाग को रिश्वत देने की भी सूचना दी है। पिछले 12 महीनों में जिन कंपनियों ने रिश्वत दी, उनमें से 54 प्रतिशत को ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया, जबकि 46 प्रतिशत ने समय पर काम पूरा करने के लिए भुगतान किया। इस तरह की रिश्वत जबरन वसूली के बराबर है।
इसे भी पढ़ें: भ्रष्टाचार से कांग्रेस ने सबक नहीं सीखने की ठान ली!
सरकारी एजेंसियों के साथ काम करते समय कंपनियों के काम जानबूझ कर रोके जाते हैं और रिश्वत लेने के बाद ही फाइल को मंजूरी दी जाती है। सीसीटीवी कैमरों लगाने से सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। सर्वे में दावा किया गया है कि सीसीटीवी से दूर, बंद दरवाजों के पीछे रिश्वत दी जाती है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि सरकारी ई-प्रोक्योरमेंट मार्केटप्लेस जैसी पहल भ्रष्टाचार को कम करने के लिए अच्छे कदम हैं, लेकिन सरकारी विभागों में रिश्वत लेने के रास्ते खुले हुए हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर डेलायट इंडिया के पार्टनर आकाश शर्मा ने कहना है कि बहुत सी कंपनियों को लगता है कि नीतियों और प्रक्रिया के मामलों में थोड़ा पैसा देते रहने नियम कानून के मोर्चे पर कड़ी जांच पड़ताल और जुर्माने से बच जाएंगे। सर्वे में 18,000 कारोबारियों के जवाब को शामिल किया गया है। सर्वे देश के 159 जिलों में हुआ है।
व्यवसायों ने पिछले 12 महीनों में आपूर्तिकर्ता के रूप में अर्हता प्राप्त करने, कोटेशन और ऑर्डर सुरक्षित करने तथा भुगतान एकत्र करने के लिए विभिन्न प्रकार की संस्थाओं को रिश्वत देने की बात स्वीकार की है। यह सर्वेक्षण 22 मई से 30 नवंबर 2024 के बीच किया गया था। सर्वेक्षण में भाग लेने वाली व्यावसायिक फर्मों ने कहा कि 75 प्रतिशत रिश्वत कानूनी, मेट्रोलॉजी, खाद्य, औषधि, स्वास्थ्य आदि विभागों के अधिकारियों को दी गई।
सरकारी विभागों को घूस देने वाले कारोबारियों का प्रतिशत इस प्रकार है। कानूनी, माप तौल, खाद्य, दवा और स्वास्थ्य विभाग- 75, लेबर और पीएफ विभाग- 69, संपत्ति और भूमि पंजीकरण– 68, जीएसटी अधिकारी- 62, प्रदूषण विभाग- 59, नगर निगम- 57, इनकम टैक्स- 47, अग्नि शमन- 45, पुलिस- 43, परिवहन- 42, बिजली- 41, आबकारी- 38।
ये आंकड़े कुछ भी हों, सच्चाई इससे भी बदतर है। ये बड़े स्तर की बात है। स्थानीय स्तर पर तो हालत इससे भी खराब है। भाजपा शासित प्रदेश वाले राज्यों में तो सपा−बसपा शासन काल में जहां गलत काम एक हजार रूपये में हो जाता था, अब भाजपा शासन में गलत काम तो होता ही नहीं, सही काम कराने के भी एक हजार की जगह बीस हजार रूपये दिए जाते हैं। बिजली के कनेक्शन के लिए आवेदन करिये। ये बहुत छोटा काम है, किंतु बिजली इंस्पेक्टर को रिश्वत दिए कनेक्शन स्वीकृत नहीं होगा। बिजली की फीटिंग किसी से भी कराएं किंतु बिजली विभाग के अधिकृत ठेकेदार से बिजली फीटिंग का प्रमाणापत्र लेना होता है। यही ठेकेदार बिजली इंस्पेक्टर का भाग भी आपसे ले लेता है। रजिस्ट्रार आफिस में धड़ल्ले से बैनामे की राशि का दो प्रतिशत वसूला जाता है। यह राशि अधिकारी सीधे नही लेते। बैनामा लिखने वाला कातिब लेता है। शाम को बैठकर आराम से दिन भर का लेन−देन हो जाता है। एनओसी देने वाले विभागों की तो हालत और भी खराब है। फायर विभाग के अधिकारियों ने तो अपने ठेकेदार रख लिए हैं। अग्नि सुरक्षा का सारा काम ये ही कराते हैं। इसके बाद भी एनओसी साइन करने के लिए लाखों रूपया वसूला जाता है। और तो और अग्निशमन अधिकारी एनओसी देने से पहले फायर उपकरण अपने चहेते ठेकेदार से सप्लाई कराते हैं। स्थानीय निकाय में निर्माण कार्यों में 45 से 55 प्रतिशत सरे आम कमीशन लिया जा रहा है।
केंद्र और प्रदेश सरकार के आदेश हैं कि सरकारी खरीद जेम पार्टल से हो। इसका भी रास्ता निकल गया। कंपनी के एजेंट अधिकारियों से मिलते हैं। कमीशन तै होता है। अधिकारी अपना जैम पोर्टल का पासवर्ड कंपनी के एजेंट को बता देते हैं। एजेंट पासवर्ड लेकर जैम पार्टल से ही अपनी फर्म से खरीदारी करता है। सामान के रेट में अधिकारियों का कमीशन जुड़ जाता है। सब वैसे ही चल रहा है। कहीं कुछ नहीं बदला। सरकार भ्रष्टाचार रोकने को आदेश बाद में करती है। अधिकारी और सप्लायर रास्ता पहले निकाल लेतें हैं। उत्तर प्रदेश में आदेश हो गए कि सामान प्रदेश स्तर से खरीदा जाएगा। अब काम और भी सरल हो गया। पहले जिलों में अधिकारियों से संपर्क कर माल सप्लाई होता था। अब अकेले प्रदेश स्तर में ही जुगाड़ करना पड़ता है। इसी का कारण है कि जिलों के अस्पतालों में वितरण के लिए वे दवाई आती हैं, जिनकी एक्सपायर डेट नजदीक होती है। दवा आने के साथ ही आदेश आते हैं कि दवा की एक्सपायर डेट नजदीक है। जल्दी बांटकर दवा खत्म करो। सरकारी अस्पतालों में मरीजों को घटिया क्वालिटी के भोजन वितरण की शिकायत आम बात हैं किंतु कुछ होता नहीं।
लेखक एक दिन दूधिए से बात कर रहा था। लेखक ने दूधिए से पूछा कि किसी को कुछ देना तो नहीं पड़ता। उसने कहा कि तीन इंस्पेक्टर हैं। दो प्रतिमाह 1500−1500 रूपये लेते हैं। और तीसरा दो हजार। मैंने पूछा कितने दूधिए हैं। उसने कहा कि बिजनौर जैसे छोटे शहर में तीन हजार दूधिए दूध सप्लाई करते हैं। पासपोर्ट के आवेदन के वेरीफिकेशन के लिए पुलिस और एलआइयू में जाकर देखिए। ऐसे ही पुलिस में चरित्र की जांच के लिए जाइए। बिना लिए−दिए कुछ नहीं होगा।
भ्रष्टाचार की इससे बड़ी सीमा क्या होगी, कि अधिकारियों ने राइफल एसोसिएशन के नाम पर शास्त्रों के लाइसेंस बनाने पर 10 से 30 हजार रूपये तक कुछ जगह वसूलने शुरू कर दिए। शस्त्र नवीनीकरण पर तो शुल्क एसोसिएशन शुल्क लंबे समय से लिया जा रहा है। इस एसोसिएशन में जमा धन का न कोई हिसाब है न ही कोई आडिट। ऐसे ही जनपद के नाम पर कल्याण समिति बना ली। हैसियत और वारिसैन बनवाने आने वालों से बड़ी रकम वसूलनी शुरू कर दी। ये रकम अधिकारियों के ऐश−और आराम पर खर्च होने लगी। अधिकारियों की कोठी में थोक में एयर कंडीशन लगने लगे। कोठियों की राजाओं जैसी सजावट होने लगी। अलग−अलग जगह अलग−अलग तरह के रास्ते निकाल लिए।
पुराने लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे जाता है, किंतु अब ऐसा नहीं है। अब ऊपर की न शिकायते मिलती हैं न चर्चाएं किंतु नीचे तो सब और लूट के द्वार खुलें हैं। कहीं भी जाइए।
- अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अन्य न्यूज़