गठबंधनों की माया से मुक्त रहने का फैसला मायावती ने सोच समझ कर लिया है
मायावती का यह दांव राजनीतिक तौर पर निश्चित ही दूसरों की बजाय खुद के लिये बेहद फायदेमंद हो सकता है। क्योंकि बसपा का वोट बैंक उसी का है, उसमें कोई सेंधमार नहीं कर सकता। इसीलिये बसपा के लोकसभा का चुनाव अकेले लड़ने से कई फायदे मिलते नजर आ रहे हैं।
बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने आगामी लोकसभा चुनावों में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा करके न केवल विपक्षी इंडिया गठबंधन को चौंकाया है बल्कि नये राजनीतिक समीकरण खड़े कर दिये हैं। इंडिया गठबंधन के अन्य दलों को इस घोषणा से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं भाजपा का चुनावी नफा-नुकसान इससे अवश्य प्रभावित होगा। यही कारण है कि तीनों दलों के रणनीतिकार अपने-अपने नजरिए से सियासी आंकलन करने में जुट गये हैं। मायावती अगर विपक्षी गठबंधन में शामिल होतीं तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों को फ़ायदा हो सकता था, लेकिन अब यह फायदा भाजपा को मिल सकता है। हाल के दिनों में भाजपा की रीतियों-नीतियों को लेकर जिस तरह का उदार रवैया बसपा सुप्रीमो दिखा रही थीं, उससे भी ऐसे अंदाजे लगाए जा रहे थे कि वे इंडिया गठबंधन के लिये कोई उजाला नहीं बनेंगी। इस ताजे ऐलान की मुख्य वजह पहले ही दिखाई देने का एक बड़ा कारण मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित करना भी रहा है। आज जब सभी विपक्षी दल भाजपा एवं नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मिलकर एकजुट हुए हैं, उसमें बसपा जैसी बड़ी पार्टी का ना होना भी महत्वपूर्ण हो जाता है। निश्चित ही बसपा का हाथी इंडिया गठबंधन के सपनों को कुचलते हुए आगे बढ़ गया है।
लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश में शासन का अनुभव रखने वाली मायावती ने राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देते हुए स्वतंत्र चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। मायावती के अकेले चुनाव लड़ने से बसपा को लोकसभा में सीटों का कितना फायदा होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन अपने वोट बैंक के लिहाज से मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर खिसकता हुआ जनाधार बढ़ाने का एक अचूक तीर चलाया है। उन्होंने अपने वोटरों को एक संदेश भी दिया है कि उनके वोट बैंक में कोई दूसरा हिस्सेदारी नहीं ले सकता है। जबकि समाजवादी पार्टी इस तरह का लाभ लेने के लिये तमाम तरह के दांवपेंच चलाती रही है। बसपा ने उ.प्र. में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 1993 व 2019 में विधानसभा व लोकसभा के चुनाव लड़े थे। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार वर्ष 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा में वोट ट्रांसफर हुआ था। जिसके चलते राज्य में गठबंधन की सरकार बनी थी। हालांकि, वर्ष 2014 में सपा-बसपा अलग-अलग चुनाव लड़े थे, लेकिन वर्ष 2019 में दोनों साथ मिलकर लड़े। इससे दोनों दलों को फायदा हुआ। यहां तक कि बसपा को ज्यादा फायदा हुआ क्योंकि 2014 में भाजपा के राजनीतिक गणित से मात खाकर बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। जबकि गठबंधन के साथ बसपा 2019 में दस लोकसभा सीट पाने में सफल रही। हालांकि, सपा को ज्यादा लाभ नहीं हुआ, उसके खाते में सिर्फ पांच लोकसभा सीट ही आईं।
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मायावती एवं अखिलेश यादव के बीच कुछ समय से खटास बढ़ने एवं अविश्वास की स्थितियां गहराती हुई दिख रही थीं, यही कारण है कि मायावती ने सपा के मुखिया को रंग बदलने वाला गिरगिट तक कह दिया। मायावती ने कहा कि जिन दलों के साथ बसपा ने पिछले चुनावों के दौरान गठबंधन किया था, उनके वोट का लाभ उनको न होकर गठबंधन दल को हुआ। बहरहाल, मायावती के एकला चलो के फैसले से इंडिया गठबंधन को बड़ा झटका जरूर लगा है, खासकर देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी को आस थी कि मायावती विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनेंगी तो वोटों का बिखराव रोका जा सकेगा। खासकर दिल्ली की कुर्सी का रास्ता दिखाने वाले उत्तर प्रदेश में बढ़त लेने के लिये, जहां वंचित समाज में बसपा की मजबूत पकड़ का लाभ इंडिया गठबंधन को मिल सकता है। लेकिन मायावती ने अपने वोट बैंक को सुरक्षित, संरक्षित एवं वृद्धिगत करने के लिये ही यह दूरगामी फैसला लिया है, जिसका लाभ बसपा को मिलेगा। मायावती का यह राजनीति फैसला जनादेश और जनापेक्षाओं को ईमानदारी से समझने और आचरण करने का भी सही कदम है और सफलता ऐसे ही सही कदमों के साथ चलती है।
मायावती का यह दांव राजनीतिक तौर पर निश्चित ही दूसरों की बजाय खुद के लिये बेहद फायदेमंद हो सकता है। क्योंकि बसपा का वोट बैंक उसी का है, उसमें कोई सेंधमार नहीं कर सकता। इसीलिये बसपा के लोकसभा का चुनाव अकेले लड़ने से कई फायदे मिलते नजर आ रहे हैं। पहला फायदा तो यही है कि पार्टी अपने पूर्व अनुभवों के लिहाज से मानकर चल रही है कि उसका वोट प्रतिशत कम नहीं होगा। दूसरा और महत्वपूर्ण फायदा बसपा को यह है कि उनके वोट का फायदा या हिस्सेदारी कोई अन्य दल नहीं ले सकता है। इन स्थितियों में अगर वोट प्रतिशत कम नहीं होता है, तो निश्चित तौर पर उनकी सीटें भी कहीं कम नहीं होने वालीं। भाजपा की प्रचंड लहर में भी भले ही उनकी सीटें कम हों, लेकिन वोट प्रतिशत में कोई सेंधमारी नहीं हो सकी। इसलिए बरकरार वोट प्रतिशत के साथ अकेले सियासी मैदान में उतरना पार्टी के लिए फायदे का सौदा होगा। इन सभी गणनाओं के आधार पर अकेले चुनाव का रास्ता उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने एवं भविष्य के लिये बसपा को मजबूती देने वाला राजमार्ग बन सकता है। इसके अलावा कहा यह भी जा रहा है कि मायावती ने अपने उत्तराधिकारी आकाश आनंद के लिए इस चुनाव में पहली बार खुले तौर पर बगैर किसी दबाव के रणनीति बनाने और उसे अमली जामा पहनाने के लिए अकेले चुनाव लड़ने का बड़ा सियासी खेल खेला है। यह बात बिल्कुल सच है कि गठबंधन में रहकर आकाश आनंद के लिए अपनी रणनीतियों को आगे बढ़ाने की उतनी खुली आजादी नहीं मिल पाती।
मायावती की ताजा घोषणाएं राजनीतिक क्षेत्र में जहां हलचल पैदा करने का बड़ा कारण बनी है, तो वहीं विपक्षी दल इन घोषणाओं से बौखलाये भी हैं। यही कारण है कि विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि मायावती भाजपा सरकार की केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई से घबरायी हुई है। वे ईडी व अन्य वित्तीय एजेंसियों की संभावित कार्रवाई की आशंका के दबाव में आकर ही यह फैसला किया हैं। इन आरोपों में सच्चाई हो सकती है, लेकिन राजनीति से जुड़े तमाम नेता एवं दल दूध के धूले नहीं है, उन पर ऐसी ईडी का साया मंडरा सकता है, फिर वे भी ऐसे ही राजग को लाभ पहुंचाने वाले निर्णय क्यों नहीं लेते? भले ही विपक्षी दल बसपा के राजग को परोक्ष रूप से लाभ पहुंचाने की रणनीति को इसी दृष्टि से देखते हो, या इसी वजह है कि बसपा सुप्रीमो ने उन तीखे-तल्ख नारों से परहेज किया है जो अकसर वह सवर्णों को लेकर उछालती रही है। विपक्षी भले कितने ही आरोप लगाती रहे, लेकिन मायावती को इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनाये रखने में वह पूरी तरह नाकाम रहा है।
एक समय ऐसा था जब मायावती एवं बसपा का राजनीतिक जादू सिर चढ़कर बोलता था। लेकिन यही अहंकार एवं जन-विरोधी राजनीति ने मायावती को जल्दी ही उसकी जमीन दिखा दी। दलित-मुस्लिम गठजोड़ की वैचारिकी पर आधारित यह राजनीतिक दल कालांतर में मुस्लिमों का भरोसा भी कायम न रख सका। एक समय पार्टी का जादू इस कदर था कि 1987 के हरिद्वार लोकसभा उपचुनाव में दिग्गज दलित नेता रामविलास पासवान तक की जमानत जब्त हो गई थी। ये बसपा-सपा गठबंधन की ताकत थी कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराये जाने के बाद चली राम लहर में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती का जनाधार अब इतना नहीं रह गया कि पार्टी किंग मेकर की भूमिका निभा सके। उसके परंपरागत जनाधार पर नरेन्द्र मोदी के करिश्माई एवं जादुई व्यक्तित्व ने सेंध लगा दी है। बहरहाल, बसपा का अकेले चुनाव लड़ना भाजपा को रास आएगा क्योंकि इससे विपक्षी गठबंधन का जनाधार खिसकेगा। जिससे भाजपा की जीत की राह आसान हो सकती है।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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