Tatya Tope Death Anniversary: भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे ने निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका, अंग्रेजों को चटाई थी धूल

Tatya Tope
Prabhasakshi

देश में आजादी का बिगुल फूंकने वाले कई महान सेनानियों में एक नाम तात्या टोपे का भी है। आज यानि की 18 अप्रैल को तात्या टोपे के बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है। तात्या टोपे की मौत को लेकर दो तरह की बातें सामने आती हैं।

बेशक ही कई सालों तक अंग्रेजों ने भारत पर राज किया हो, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत के लिए हमारे देश पर कब्जा करना इतना आसान नहीं रहा है। इस दौरान ब्रिटिश हुकूमत को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। जब अंग्रेजों ने बारत में पैर पसारना शुरू किआ तो उस दौरान भारत के कई महान राजाओं और स्वतंत्रता सेनानियों ने इन्हें तगड़ी टक्कर दी। हालांकि तमाम विरोध और मुश्किलों के बाद भी ब्रिटिश देश पर कब्जा करने में कामयाब हुए। ब्रिटिशों के चंगुल से भारत को निकालने के लिए साल 1857 में भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ था। इस दौरान कई राजाओं और सेनानियों ने अंग्रेजों का डटकर सामना किया था। 

लेकिन स्वतंत्रता संग्राम ज्यादा समय तक अंग्रेजों के सामने टिक नहीं पाया था। बता दें कि इस स्वतंत्रता संग्राम को सफल बनाने के लिए तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पांडे जैसे लोगों ने अपनी सारी ताकत लगा दी थी। लेकिन राजाओं में एकता न हो पाने के कारण अंग्रेजों की फूट डालो, शासन करो नीति कामयाब हो गई थी। इसी संग्राम के दौरान तात्या टोपे ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। आज ही के दिन यानी की 18 अप्रैल को तात्या टोपे की मौत हो गई थी। आइए जानते हैं स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे के जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में...

जन्म-परिवार और शिक्षा

महाराष्ट्र राज्य के एक छोटे से गांव येवला में 16 फरवरी 1814 में हुआ था। यह गांव नासिक के निकट पटौदा जिले में स्थित है। तात्य़ा टोपे का असली नाम 'रामचंद्र पांडुरंग येवलकर' था। यह ब्राह्मण परिवार से से ताल्लुक रखते थे। इनके पिता पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट महान राजा पेशवा बाजीराव द्वितीय के यहां पर कार्य करते थे। भारत में अपना साम्राज्य फैलाने के मकसद से अंग्रेजों ने उस समय के कई राजाओं से उनके राज्य छीन लिए थे। तभी पेशवा बाजीराव द्वितीय से भी अंग्रेजों ने उनका राज्य छीनने की कोशिश की। लेकिन पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों का डटकर सामना किया। 

इस युद्ध में पेशवा बाजीराव द्वितीय की हार होने के कारण अंग्रेजों ने उन्हें राज्य से निकाल दिया और उन्हें बिठूर गांव भेज दिया। साल 1818 में बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों द्वारा हर साल आठ लाख रुपये पेंशन के तौर पर मिला करते थे। बाजीराव द्वितीय के बिठूर जाने के बाद तात्या के पिता भी अपने पूरे परिवार सहित बिठूर जाकर बस गए। उस दौरान तात्या की उम्र महज 4 साल थी। तात्या टोपे ने बिठूर गांव में ही युद्ध करने का प्रशिक्षण ग्रहण किया था। तात्या और बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने एक साथ शिक्षा ग्रहण की थी।

'तात्या टोपे' नाम

तात्या के बड़े होने के बाद पेशवा ने उन्हें बतौर मुंशी अपने साथ रख लिया। मुंशी बनने के बाद तात्या ने इस पद को बड़ी जिम्मेदारी के साथ संभाला और राज्य़ में एक भ्रष्ट कर्मचारी को पकड़ा। तात्या के इस काम से खुश होकर पेशना ने उन्हें एक टोपी भेंट की। इसी सम्मान के कारण 'रामचंद्र पांडुरंग येवलकर' तात्या टोपे का नाम पड़ गया। बताया जाता है कि पेशवा द्वारा भेंट की गई टोपी में कई तरह के कीमती हीरे जड़े थे।

साल 1857 का विद्रोह

पेशवा की मौत होने के बाद अंग्रेजों द्वारा जी रही पेंशन बंद कर दी गई और उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेशवा का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिय़ा। जिसके बाद नाना और तात्या अंग्रेजों से नाराज हो गए और अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति बनानी शुरू कर दी। साल 1857 में नाना साहब और तात्या टोपे ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपनी सेना की जिम्मेदारी देते हुए उनको अपनी सेना का सलाहकार मानोनित किया। इसके बाद साल 1857 में अंग्रेजों ने कानपुर में हमला किया। इस दौरान नाना ज्यादा समय तक अंग्रेजों के सामने टिक नहीं पाए और उनको हार का सामना करना पड़ा।

इस हमले के बाद भी नाना और अंग्रेजों के बीच कई य़ुद्ध हुए लेकिन सब में हार मिलने के बाद नाना अपने परिवार सहित नेपाल में जाकर बस गए। बताया जाता है नाना साहब ने नेपाल में अंतिम सांस ली। लेकिन इधर तात्या अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने के लिए तैयार न थे। तात्या टोपे ने अपनी खुद की एक सेना का गठन किया। इस सेना की मदद से तात्या ने कानपुर को अंग्रेजों के कब्जे से छुड़ाने के लिए रणनीति तैयार की थी। लेकिन हैवलॉक ने बिठूर पर भी धावा बोल दिया। इस हमले में तात्या की हार हुई। लेकिन वह अंग्रेजों के हाथ नहीं आए और बिठूर से भागने में कामयाब रहे।

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तात्या और रानी लक्ष्मी बाई

जिस तरह से अंग्रेजों ने पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब को उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया था। ठीक उसी तरह से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के गोद दिए पुत्र को भी अंग्रेजों ने उनकी संपत्ति का वारिस नहीं माना। अंग्रेजों की इस मनमानी में तात्या ने लक्ष्मीबाई का साथ देने का फैसला किया। तात्या और रानी लक्ष्मीबाई दोनों एक-दूसरे को पहले से जानते थे और यह दोनों मित्र थे। साल 1887 के विद्रोह में रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। 

जब साल 1887 में सर ह्यूरोज की आगुवाई में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला किया तो तात्या ने रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने का फैसला लिया। ब्रिटिश सेना का मुकाबला तात्या ने अपनी सेना के साथ मिलकर किया और रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों के चुंगल से बचा लिया। अंग्रेजों से निपटने के लिए तात्या ने अपनी सेना को मजबूत करने का फैसला लिया और महाराजा जयाजी राव सिंधिया के साथ हाथ मिला लिया। 

ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर अपना इन दोनों ने साथ मिलकर अधिकार कायम कर लिया। तात्या के इस कदम से अंग्रेजों को बड़ा झटका लगा था। जिसके बाद अंग्रेजों ने तात्या को पकड़ने की मुहिम तेज कर दी। वहीं 1858 में अंग्रेजों से युद्ध में हारने के बाद लक्ष्मीबाई ने खुद को आग के हवाले कर दिया। लेकिन तात्या अंग्रेजों से बचने के लिए समय-समय पर अपना ठिकाना बदलते रहे।

तात्या टोपे की मृत्यु

तात्या टोपे जैसे चालाक और महान व्यक्ति को पकड़ पाना अंग्रेजों के लिए आसान नहीं था। तात्या ने लंबे समय तक अंग्रेजों को परेशान कर रखा था। हालांकि तात्या की मौत के बारे में दो तरह की बात सामने आती है। कई इतिहासकारों के अनुसार, तात्या टोपे को फांसी दी गई थी। लेकिन कुछ पुराने दस्तावेजों के अनुसार, तात्या को कभी फांसी नहीं दी गई थी। 

फांसी की सजा

बताया जाता है कि तात्या पाड़ौन के जंगलों में आराम कर रहे थे। उसी दौरान उनको ब्रिटिश सेना ने दबोच लिया था। अंग्रेजों को तात्या के होने की सूचना नरवर के राजा मानसिंह द्वारा दी गई थी। अंग्रेजों द्वारा तात्या को पकड़ने के बाद उनपर मुकदमा चलाया गया। जिसमें उन्हें फांसी की सजा सुनाते हुए 18 अप्रैल 1859 में फांसी की सजा दे दी गई।

तात्या की मौत

दूसरी तरफ कहा जाता है कि तात्या टोपे कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए थे। अंग्रेजों ने जिस व्यक्ति को तात्या समझ कर फांसी दी थी। वह दरअसल, कोई और व्यक्ति था। तात्य़ा ने आखिरी सांस गुजरात में ली थी। कहा जाता है कि तात्या ने राजा मानसिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों को बेवकूफ बनाने की रणनीति बनाई थी। किसी अन्य व्यक्ति को तात्या बताकर उसे अंग्रेजों से पकड़वा दिया गया था। तात्या के समय-समय पर जिंदा होने के सबूत मिलते रहे थे। वहीं तात्या टोपे के भतीजे ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि तात्या को कभी फांसी नहीं दी गई थी।

सम्मान

तात्या टोपे द्वारा किए गए संघर्ष को भारत सरकार द्वारा भी याद रखा गया। भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था। इस डाक टिकट के ऊपर तात्या टोपे की फोटो बनाई गई थी।

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