पत्रकारिता को राष्ट्रीय और लोकधर्मी संस्कार देने वाले संपादक थे माधवराव सप्रे
मराठीभाषी होने के बाद भी माधवराव सप्रे को हिंदी नवजागरण का पुरोधा कहा गया तो इसके विशिष्ट अर्थ हैं। उनके संपादन में निकले पत्र ‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘हिंदी केसरी’ इसकी बानगी हैं। वे ‘कर्मवीर’ जैसे विशिष्ठ प्रकाशन के मूल में रहे। उसके प्रेरणाश्रोत रहे।
गुलाम भारत में अनेक प्रखर स्वाधीनचेता नागरिक भी रहते थे, जिनमें एक थे पं. माधवराव सप्रे। भारतबोध उनके चिंतन और चिति का हिस्सा था। वे अपनी पत्रकारिता, साहित्य लेखन, संपादन, अनुवाद कर्म और भाषणकला से एक ही चेतना भारतीय जन में भरना चाहते हैं वह है भारतबोध। सप्रे जी का सही मूल्यांकन अनेक कारणों से नहीं हो सका। किंतु हम उनकी रचना, सृजन और संघर्ष से भरी यायावर जिंदगी को देखते हैं, तो पता चलता है कि किस तरह उन्होंने अपने को तपाकर भारत को इतना कुछ दिया। उनका भी भाव शायद यही रहा होगा- चाहता हूं “मातृ-भू तुझको अभी कुछ और भी दूं।”
इसे भी पढ़ें: नैसर्गिक समाजनायक थे अनिल माधव दवे, विवेकानंद जी की तरह जल्दी चले गये
मराठीभाषी होने के बाद भी उन्हें हिंदी नवजागरण का पुरोधा कहा गया तो इसके विशिष्ट अर्थ हैं। उनके संपादन में निकले पत्र ‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘हिंदी केसरी’ इसकी बानगी हैं। वे ‘कर्मवीर’ जैसे विशिष्ठ प्रकाशन के मूल में रहे। उसके प्रेरणाश्रोत रहे। पत्रकारिता को राष्ट्रीय और लोकधर्मी संस्कार देने वाले वे विरल संपादकों में एक हैं। सप्रे जी लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभावित थे। उनका समूचा लेखन इसीलिए भारतबोध की अनुभूति से प्रेरित है। अपने एक लेख ‘सुराज्य और सुराज्य’ में वे लिखते हैं- “अंग्रेज सरकार का राज्य, व्यवस्थित और शासन की दृष्टि से सुराज्य होने पर भी, हम लोगों के लिए सुखकारी या लाभदायक नहीं है और यदि हाल की पद्धति कायम रही तो होना भी संभव नहीं है, क्योंकि यह राज्य केवल गोरे राज्याधिकारियों की सलाह पर चलता है, जिन्हें हिंदुस्तान के हित की अपेक्षा गोरे लोगों का हित अधिक प्रिय है।” उनके मन में अंग्रेजी शासन के प्रति गुस्सा है पर वे उसे अपेक्षित संयम से व्यक्त करते हैं। उन्हें यह सहन नहीं कि कोई विदेशी उनकी पुण्यभूमि और मातृभूमि पर आकर शासन करे। वे अंग्रेजी राज के नकारात्मक प्रभावों को अपने लेखों में व्यक्त करते हुए देश पर पड़ रहे प्रभावों को रेखांकित करते हैं। हालांकि वे पूर्व के भारतीय राजाओं और पेशवाओं के राज में हुई जनता की उपेक्षा और दमन को भी जानते हैं। वे मानते हैं कि इसी कारण विदेशियों को जनता का प्रारंभिक समर्थन भी मिला, क्योंकि भारतीय राजा जनता के साथ संवेदना से नहीं जुड़े थे। बावजूद इसके उनका भारतप्रेम उनकी लेखनी से प्रकट होता है। वे लिखते हैं-“जेलखाने का शासन जैसा कष्ट देता है, उसी तरह अंग्रेजी राज्य-प्रबंध के कानून और कायदों से प्रजा चारों ओर से जकड़ी हुई है। अंग्रेजी व्यापारियों का भला करने के लिए,खुले व्यापार का तत्व शुरू करने से, इस देश का व्यापार डूब गया।” नागपुर से छपने वाले अपने अखबार ‘हिंदी केसरी’ को उन्होंने आजादी के आंदोलन का मुखपत्र ही बना दिया था। इसमें देश भर में चल रहे आंदोलनों के समाचार छपते रहते थे। इससे पाठकों को राष्ट्रीय आंदोलन की आंच और धमक का पता चलता था। 24 अगस्त,1907 के अंक में इलाहाबाद, चैन्नै,राजमुंदरी,कोचीन आदि थानों के समाचार छपे हैं। एक समाचार कोचीन का है, उसकी भाषा देखिए- “राजा के कालेज में कुछ विद्यार्थियों ने एक बड़ी सभा की थी, उसमें वंदेमातरम् गीत गाया था और वंदेमातरम् का जयघोष किया था। यह खबर सुनकर दीवान ने प्रिंसिपल से इसकी कैफियत मांगी है।” इस प्रकार की साहसी और भारतप्रेम से भरी पत्रकारिता के चलते हुए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 22, अगस्त,1908 में वे गिरफ्तार किए गए और नवंबर में उनकी रिहाई हुई।
उनका समूचा लेखन, अनुवाद कर्म भारतीय मनीषा से प्रेरित है। वे समर्थ गुरू रामदास की पुस्तक ‘दासबोध’ का अनुवाद करते हैं। हमें पता है समर्थ गुरू रामदास शिवाजी के गुरु ही नहीं एक आध्यात्मिक विभूति थे। उनके आशीष से ही छत्रपति ने मराठा राज्य की स्थापना की। शिवाजी के राज्य के शासन मूल्य बताते हैं कि गुरूकृपा से व्यक्ति का किस तरह रूपांतरण हो जाता है। सप्रे जी लोकमान्य तिलक रचित ‘गीता रहस्य’ का भी अनुवाद हिंदी में करते हैं। इस खास पुस्तक को हिंदी पाठकों को सुलभ कराते हैं। ‘महाभारत मीमांशा’ का अनुवाद भी इसी कड़ी का एक कार्य है। इसके साथ ही उन्होंने ‘शालोपयोगी भारतवर्ष’ को भी मराठी से अनूदित किया। सप्रेजी ने 1923-24 में ‘दत्त-भार्गव संवाद’ का अनुवाद किया था जो उनकी मृत्यु के बाद छपा। उनका एक बहुत बड़ा काम है काशी नागरी प्रचारणी सभा की ‘विज्ञान कोश योजना’ के तहत अर्थशास्त्र की मानक शब्दावली बनाना। जिसके बारे में कहा जाता है कि हिंदी में अर्थशास्त्रीय चिंतन की परंपरा प्रारंभ सप्रे जी ने ही किया।
संस्थाओं को गढ़ना, लोगों को राष्ट्र के काम के लिए प्रेरित करना सप्रे जी के भारतप्रेम का अनन्य उदाहरण है। रायपुर, जबलपुर, नागपुर, पेंड्रा में रहते हुए उन्होंने न जाने कितने लोगों का निर्माण किया और उनके जीवन को नई दिशा दी। 26 वर्षों की उनकी पत्रकारिता और साहित्य सेवा ने मानक रचे। पंडित रविशंकर शुक्ल, सेठ गोविंददास, गांधीवादी चिंतक सुंदरलाल शर्मा, द्वारिका प्रसाद मिश्र, लक्ष्मीधर वाजपेयी,माखनलाल चतुर्वेदी, लल्ली प्रसाद पाण्डेय,मावली प्रसाद श्रीवास्तव सहित अनेक हिंदी सेवियों को उन्होंने प्रेरित और प्रोत्साहित किया। जबलपुर की फिजाओं में आज भी यह बात गूंजती है कि इस शहर को संस्कारधानी बनाने में सप्रे जी ने एक अनुकूल वातावरण बनाया। जिसके चलते जबलपुर साहित्य, पत्रकारिता और संस्कृति का केंद्र बन सका। 1920 में उन्होंने जबलपुर में हिंदी मंदिर की स्थापना की, जिसका इस क्षेत्र में सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ाने में अनूठा योगदान है।
इसे भी पढ़ें: राष्ट्रवादी विचारधारा, ध्येयवादी पत्रकारिता और निस्वार्थ समाजसेवा के जीवंत प्रतीक रहे वरिष्ठ पत्रकार पंडित भगवती धर वाजपेयी
अपने अप्रतिम योगदान के बाद भी आजादी के तमाम नायकों की तरह माधवराव सप्रे को न तो समाज ने उस तरह याद किया, न ही साहित्य की समालोचना में उन्हें उस तरह याद किया गया जिसके वे पात्र थे। निश्चित ही भारतीय भावधारा, भारतबोध की उनकी आध्यात्मिक धारा की पत्रकारिता के नाते उन्हें उपेक्षित किया गया। भारत के धर्म, उसकी अध्यात्म की धारा से जुड़कर भारत को चीन्हने की कोशिश करने वाला हर नायक क्यों उपेक्षित है, यह बातें आज लोक विमर्श में हैं। शायद इसीलिए आज 150 वर्षों के बाद भी माधवराव सप्रे को हिंदी जगत न उस तरह से जानता है न ही याद करता है। उनकी भावभूमि और वैचारिक अधिष्ठान भारत की जड़ों से जुड़ा हुआ है। वे इस देश को उसके नौजवानों को जगाते हुए भारतीयता के उजले पन्नों से अवगत कराना नहीं भूलते। इसीलिए वे गीता के रहस्य खोजते हैं, महाभारत की मीमांसा करते हैं, समर्थ गुरू रामदास के सामर्थ्य से देशवासियों को अवगत कराते हैं। वे नौजवानों के लिए लेख मालाएं लिखते हैं। उनका यह प्रदेय बहुत खास है।
वे अनेक संस्थाओं की स्थापना करते हैं। जिनमें हिंदी सेवा की संस्थाएं हैं, सामाजिक संस्थाएं तो विद्यालय भी हैं। जबलपुर में हिंदी मंदिर, रायपुर में रामदासी मठ, जानकी देवी पाठशाला इसके उदाहरण हैं।19 जून,1871 को मध्यप्रदेश के एक जिले दमोह के पथरिया में जन्में सप्रे जी 23 अप्रैल,1926 को रायपुर में देह त्याग देते हैं। कुल 54 वर्षों की जिंदगी जीकर वे कैसे खुद को सार्थक करते हैं, सब कुछ सामने है। उनके बारे में गंभीर शोध और अध्ययन की बहुत आवश्यकता है। उनकी 150 वीं जयंती प्रसंग ने हमें यह अवसर दिया है हम अपने इस पुरखे की याद को देश भर में फैलाएं। यह संयोग ही है देश की आजादी की 75 वीं वर्षगांठ का प्रसंग भी साथ आया है। खुशियां दुगुनी हैं। इसलिए इस महान भारतपुत्र याद कर हम मातृभूमि के प्रति भी श्रध्दा निवेदन करेंगें और आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार भी होंगें। यह बहुत सुखद है कि भोपाल में उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए श्री विजयदत्त श्रीधर ने माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय और शोध संस्थान की स्थापना की है। जरूरी है कि शासन स्तर पर भी उनकी स्मृति में कुछ महत्वपूर्ण काम किए जाएं, ताकि आने वाली पीढ़ियां इन कलमवीरों से प्रेरणा पाकर भारतबोध से भरी मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता करने के लिए प्रेरणा प्राप्त करें।
- प्रो. संजय द्विवेदी
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)
अन्य न्यूज़