आधुनिक भारत के निर्माता स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज सुधार के लिए उठाए थे कई कदम
आज भारत के महान समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुण्यतिथि है। आर्यसमाज के संस्थापक का जन्म 12 फरवरी 1824 ई. को गुजरात में हुआ था।। आधुनिक भारत की नींव रखने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उन्होंने मूर्ति पूजा और कर्मकांडों का विरोध किया था, जिस कारण कई बार उन्हें जान से मारने की धमकी मिली थी।
भारत के महान चिंतक, समाज सुधारक और देशभक्त के रूप में पहचाने जाने वाले महर्षि दयानंद सरस्वती का निधन 30 अक्टूबर को 1883 में अजमेर में हुआ था। 30 अक्तूबर 2022 को उनकी 139वीं पुण्यतिथि है। महर्षि दयानंद सरस्वती आर्य सुधारक संगठन 'आर्य समाज' की स्थापना की थी। बता दें कि स्वामी दयानंद सरस्वती प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने ‘स्वराज्य’ शब्द का प्रयोग किया था। उन्होंने ही विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने पर जोर दिया था। हिंदी को राष्ट्र भाषा के तौर पर उन्होंने ही स्वीकार किया था।
ऐसे हुई शिक्षा
उनका जन्म ब्राह्मण परिवार में 12 फरवरी, 1824 को गुजरात के टंकारा में हुआ था। उनके माता-पिता यशोधाबाई और लालजी तिवारी रूढ़िवादी ब्राह्मण थे। स्वामी दयानंद सरस्वती का शुरुआती जीवन काफी आरामपूर्ण बीता। पंडित बनने के लिए उन्होंने संस्कृत, वेद शास्त्रों और धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन प्रारंभ किया। इसके बाद किशोरावस्था में ही उनके माता-पिता ने फैसला किया कि उनका विवाह कर दिया जाए मगर दयानंद सरस्वती ने विवाह करने से इंकार कर दिया था। वो सत्य की खोज में निकल पड़े थे।
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मूर्ति पूजा का किया विरोध
स्वामी दयानंद सरस्वती ने शास्त्रों की शिक्षा लेने के बाद महाशिवरात्रि के मौके पर चूहों का झुण्ड को भगवान की मूर्ति पर रखे प्रशाद को खाते देखा। इस घटना ने उनके मन में कई सवाल उठाए, जिसके बाद उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। इसके बाद से उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध करना शुरू कर दिया।
1857 की क्रांति में दिया योगदान
स्वामी दयानंद सरस्वती ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भी क्रांति की शुरुआत की। घर से निकलने के बाद वो अंग्रेजों के खिलाफ काफी प्रखर होकर बोलने लगे। उन्होंने पाया कि लोगों में भी अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा है। इसके बाद उन्होंने तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि को एकजुट कर देश की आजादी और अंग्रेजों के खिलाफ तैयार किया। उन्होंने सबसे पहले साधु संतों को अपने साथ लिया जो आजादी के लिए जनता को प्रेरित कर सके।
उन्होंने 1857 की क्रांति में भी अहम योगदान दिया। हालांकि ये क्रांति अधिक सफलता हासिल नहीं कर सकी, जिसके बाद उन्होंने जनता को समझाया कि वर्षों की गुलामी को एक संघर्ष में हासिल करना मुश्किल है। उन्होंने भरोसा दिलाया कि आजादी की लड़ाई बड़े पैमाने पर शुरू हो गई है, जिसके बल पर लोगों का हौसला बना रहा।
आर्य समाज की स्थापना
उन्होंने वर्ष 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। गुड़ी पड़वा के दिन रखी गई नींव के आधार पर तय किया गया कि आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म था। आर्य समाज का मुख्य आधार परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान था। इसका मुख्य उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति प्रदान करना था। आर्य समाज की इन विशेषताओं ने कई विद्वानों को प्रेरित किया। इसके अलावा आर्य समाज में मूर्ति पूजा, पशुओं की बलि देना, मंदिरों में चढ़ावा देना, जाति विवाह, मांस का सेवन, महिलाओं के प्रति असमानता की भावना को भी मिटाने की कोशिश की।
बाल विवाह और सती प्रथा का विरोध
उन्होंने समाज के प्रति उत्तरदायी होते हुए बाल विवाह जैसी कुप्रथा का विरोध किया। उन्होंने शास्त्रों के माध्यम से लोगों को इसके प्रति जागरुक किया। उन्होंने लोगों को बताया कि बाल विवाह से मनुष्य निर्बल बनता है, जिससे समय से पूर्व मृत्यु प्राप्त होती है। उन्होंने अमानवीय सती प्रथा का विरोध किया।
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विधवा पुनर्विवाह और नारी शिक्षा को दिया बढ़ावा
उन्होंने देश में विधवा पुनर्विवाह की बात की और इसके प्रति लोगों को जागरुक किया। विधवा स्त्रियों के संघर्षपूर्ण जीवन की निंदा करते हुए उन्होंने महिलाओं के सम्मान की बात की। उन्होंने नारी शक्ति का भी समर्थन किया। उनका मानना था कि नारी शिक्षा समाज का आधार है, इसलिए उनका शिक्षित होना आवश्यक है।
एकता का दिया संदेश
उन्होंने एकता का संदेश भी दिया। उन्होंने सभी धर्मों और उसके अनुयायियों को एकजुट होने का संदेश दिया। उनका मानना था कि आपसी लड़ाई का लाभ तीसरे को हो जाता है, जिसके लिए जरुरी है कि आपसी भेदों को दूर किया जाए। उन्होंने एकजुटता का संदेश देने वाली कई सभाओं का नेतृत्व किया मगर इस सपने को वो साकार ना कर सके।
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