डॉ. राजेंद्र प्रसाद एक मात्र ऐसे नेता हैं जो लगातार दो बार राष्ट्रपति चुने गये
पढ़ाई-लिखाई में डॉ प्रसाद इतने होनहार थे कि परीक्षक ने उनकी परीक्षा की कॉपी को जांचते हुए लिखा था कि- The Examinee is better than Examiner। डॉ प्रसाद बहुभाषी होने के साथ-साथ उनकी हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली एवं फारसी भाषा में अच्छी पकड़ थी।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर 1884 को बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गांव में हुआ था। राजेंद्र प्रसाद जी के पिता का नाम महादेव सहाय और माता का नाम कमलेश्वरी देवी था। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा बिहार के छपरा जिला स्कूल गए से हुई थीं। अपने शैक्षिक जीवन को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान हासिल किया। इसके बाद कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लेकर कानून के क्षेत्र में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। पढ़ाई-लिखाई में डॉ प्रसाद इतने होनहार थे कि परीक्षक ने उनकी परीक्षा की कॉपी को जांचते हुए लिखा था कि- The Examinee is better than Examiner। डॉ प्रसाद बहुभाषी होने के साथ-साथ उनकी हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली एवं फारसी भाषा में अच्छी पकड़ थी।
वहीं, 13 साल की उम्र में ही डॉ प्रसाद का विवाह राजवंशीदेवी से हो गया था। जिसके बाद उन्होंने अपने शैक्षिक जीवन को आगे बढ़ाया और बाद में वकालत करते हुए अपने कॅरियर की शुरूआत की। इसके साथ ही उन्होंने भारत को आजाद कराने की कसम खाईं और भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया। सन् 1931 को राजेंद्र प्रसाद को ब्रिटिश प्रशासन ने 'नमक सत्याग्रह' और सन् 1942 में हुए 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान कारावास में डाल दिया था।
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डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसके बाद वे स्वतंत्र भारत पहले राष्ट्रपति के रूप में चुने गये उनका कार्यकाल 26 जनवरी 1950 से लेकर 14 मई 1962 तक रहा। डॉ. प्रसाद ने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया। उन्होंने अपना काम स्वतंत्र और निष्पक्ष भाव से किया। हिंदू अधिनियम पारित करते समय राजेंद्र प्रसाद जी ने काफी कड़ा रुख अपनाया था। साल 1962 में राष्ट्रपति पद से हट जाने के बाद राजेंद्र प्रसाद को भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया था।
डॉ प्रसाद के जीवनकाल का एक दिलचस्प किस्सा ये भी रहा कि 25 जनवरी 1950 के दिन उनकी बहन भगवती देवी का निधन हुआ और अगले ही दिन देश का यानी आजाद भारत का संविधान लागू होने जा रहा था ऐसे में भला वो कैसे अपनी बहन के अंतिम संस्कार में शामिल हो पाते। इन परिस्थितियों को देखते हुए डॉ प्रसाद ने संविधान की स्थापना की रस्म पूरी होने के बाद ही दाह संस्कार में भाग लिया।
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