स्मृति शेषः भारतीय कला-संस्कृति के वैश्विक राजदूत थे कत्थक सम्राट पं. बिरजू महाराज
लखनऊ के महान कत्थक नर्तक अच्चन महाराज के घर 4 फरवरी 1938 को बालक बृजमोहन मिश्र का जन्म हुआ था। बृजमोहन ही आगे चलकर बिरजू हो गये और कत्थक का महारथी बनने के बाद इसमें महाराज जुड़ गया और देश को मिला कत्थक का एक अनमोल हीरा- बिरजू महाराज।
कत्थक सम्राट पं. बिरजू महाराज के निधन पर समूचा देश शोकाकुल है। एक ओर जहाँ भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री समेत समस्त राजनीतिक प्रतिनिधित्वों के शोक-संदेशों से समूचा मीडिया आबाद है, वहीं दूसरी ओर भारतीय सिने-जगत कला तथा नृत्य जगत के छोटी-बड़ी तमाम हस्तियां इस सूचना से स्तब्ध और गमगीन हैं। 17 जनवरी 2022 को पं. बिरजू महाराज के निधन के साथ ही शास्त्रीय नृत्य कला में एक युग का अंत हो गया।
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लखनऊ के महान कत्थक नर्तक अच्चन महाराज (वास्तविक नाम- जगन्नाथ मिश्र) के घर 4 फरवरी 1938 को बालक बृजमोहन मिश्र का जन्म हुआ था। बृजमोहन ही आगे चलकर बिरजू हो गये और कत्थक का महारथी बनने के बाद इसमें महाराज जुड़ गया और देश को मिला कत्थक का एक अनमोल हीरा- बिरजू महाराज। हालाँकि पं. बिरजू महाराज के परिवार में कई पीढ़ियों से चला आ रहा उपनाम है। पिता अच्छन महाराज, चाचा शम्भु महाराज तथा ताऊ छज्जू महाराज लखनऊ कलिका बिन्दादीन घराने के प्रमुख विभूतियों में से थे। कत्थक के साथ बिरजू महाराज ने शास्त्रीय संगीत की साधना भी कि थी और सात वर्ष की अल्पायु में पहला मंचीय प्रदर्शन किया था। मात्र 9 वर्ष की आयु में पिता का साया सर से उठ जाना दुखद था किन्तु दोनों चाचाओं ने नृत्य की शिक्षा-दीक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। 13 वर्ष की आयु में बिरजू नई दिल्ली के संगीत भारती में नृत्य शिक्षक के तौर पर नियुक्त हो गए। तत्पश्चात भारतीय कला-केंद्र में कुछ अवधि तक नृत्य सिखाने के बाद, संगीत नाटक अकादमी की एक इकाई कत्थक-केंद्र में पहले आचार्य, फिर अध्यक्ष और फिर निदेशक के पद पर आसीन हुए। 1997 में यहाँ से सेवानिवृत्त होकर दिल्ली में ही “कलाश्रम” नाम से एक नाट्यविद्यालय की स्थापना की। देश-विदेश के नृत्य प्रेमियों को नृत्य सिखाते-सिखाते यहीं सारा जीवन न्योछावर कर दिया।
कत्थक को भारत से निकालकर विश्वविख्यात करने में पं. बिरजू महाराज का नाम अग्रणी है। उन्होंने इस नृत्य शैली को ऐसा साधा कि वे कत्थक के पर्याय बन गए। भारत ही नहीं, अपितु दुनिया भर में कला-संस्कृति के विभिन्न मंचों पर उनकी प्रस्तुति विस्मयकारी और मन को आह्लादित करने वाली होती थी। उन्होंने यदा-कदा फिल्मों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। सत्यजीत रे की शतरंज के खिलाड़ी की संगीत रचना, तथा इसके दो गीतों में नृत्य प्रस्तुति देवदास की “काहे छेड़े मोहे” का नृत्य संयोजन, डेढ़ इश्किया, उमराव जान, बाजीराव मस्तानी (मोहे रंग दे लाल) के गीतों में नृत्य संयोजन (कोरियोग्राफी) बिरजू महाराज की नृत्य-साधना और लोकप्रियता का जीता-जागता प्रमाण है। अपनी जड़ों और शास्त्रीय नृत्य कला से विमुख हो रही नौजवान पीढ़ी के लिए बिरजू महाराज एक अक्षुण्ण प्रेरणा स्रोत हैं।
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कत्थक नृत्य कला को एक नया आयाम और नई ऊँचाई देने के लिए बिरजू महाराज आरम्भ से ही समय-समय पर अलंकृत और पुरस्कृत होते रहे। संगीत नाटक अकादमी सम्मान (1964) तथा पद्म विभूषण (1986) समेत नृत्य चूड़ामणि पुरस्कार (1986-श्री कृष्णा गण सभा), कालीदास सम्मान (1987), लता मंगेशकर पुरस्कार (2002), संगम कला सम्मान, भारत मुनि सम्मान, आंध्र रत्न, नृत्य विलास पुरस्कार, आधारशिला शिखर सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, राष्ट्रीय नृत्य शिरोमणि सम्मान, तथा राजीव गाँधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, इन्दिरा कला-संगीत विश्वविद्यालय और काशी-हिन्दू विश्वविद्यालय ने उन्हें पीएचडी की मानद उपाधि से अलंकृत किया है। छत्तीसगढ़ के खैरागढ़ स्थित संगीत विश्वविद्यालय से भी उनका नाता रहा है। यही नहीं, बाजीराव मस्तानी के गीत “मोहे रँग दो लाल” के नृत्य-निर्देशन के लिए उन्हें वर्ष 2016 का फिल्मफेयर पुरस्कार तथा फिल्म ‘विश्वरूपम’ में नृत्य निर्देशन के लिए 2012 का राष्ट्रीय पुरस्कार भी उनके नाम दर्ज है। अपनी कला के ऐसे साधक विरले ही मिलते हैं जो अपनी कला को काल-चक्र के बंधन से आजाद कर सर्वप्रिय, सर्वत्र ग्राह्य और सर्वव्यापी बना देता है। कत्थक को लोकप्रिय और सर्व सुलभ बनाने में बिरजू महाराज का बहुत बड़ा योगदान है। आज भले ही यह सूरज अस्ताचल को चला गया, किन्तु अपने चिरकालीन प्रकाश-पुंज को शाश्वत कर गया। कत्थक की हर ताल पर बिरजू महाराज का नाम सदियों तक आदर और सम्मान के साथ लिया जायेगा।
- दीपा लाभ
भारतीय लोक संस्कृति की अध्येता हैं।
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