उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार थे हजारी प्रसाद द्विवेदी
उत्तर प्रदेश में बलिया जिले के दुबे-का-छपरा गांव में 19 अगस्त, 1907 को जन्मे द्विवेदी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में ग्रहण की। हजारी प्रसाद द्विवेदी के पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था।
हिंदी साहित्य के पुरोधा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी साहित्य में योगदान कभी नकारा नहीं जा सकता और कबीर जैसे महान संत को दुनिया से परिचित कराने का श्रेय भी उनको ही जाता है।
उत्तर प्रदेश में बलिया जिले के दुबे-का-छपरा गांव में 19 अगस्त, 1907 को जन्मे द्विवेदी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में ग्रहण की। हजारी प्रसाद द्विवेदी के पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं. अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
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सन 1930 में इंटरमीडिएट करने के बाद उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से ज्योतिष की परीक्षा पास की। उन्हें आचार्य की उपाधि मिली। द्विवेदी जी अध्यापन के लिए शांतिनिकेतन चले गए। वहां 1940 से 1950 के बीच वह विश्वभारत में हिंदी भवन के निदेशक रहे। रवींद्रनाथ टैगोर, क्षितिमोहन सेन, विधुशेखर भट्टाचार्य और बनारसी दास चतुर्वेदी के प्रभाव से उनमें साहित्यिक गतिविधियों में दिलचस्पी बढ़ी। उन्हें संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, गुजरात, पंजाबी आदि कई भाषाओं का गहरा ज्ञान था। बाद में द्विवेदी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एवं पजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर बने। वह बतौर 'रेक्टर' भी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से जुड़े।
सन 1957 में द्विवेद्वी जी को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें उनके निबंध संग्रह 'आलोक पर्व' के लिए 1973 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पचौरी कहते हैं कि द्विवेदी जी का जीवन संघर्षपूर्ण रहा लेकिन उन्होंने किसी से शिकायत नहीं की। विचार प्रवाह, अशोक के फुल, कल्पलता (सारे निबंध संग्रह), वाणभट्ट की आत्मकथा, चारूचंद्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा (उपन्यास), सूर साहित्य, कबीर, कालिदास की लालित्य योजना, हिंदी साहित्य (उद्भव और विकास), हिंदी साहित्य का आदिकाल आदि उनकी श्रेष्ठ और अद्भुत साहित्यिक कृतियां हैं।
हिंदी के अलावा, द्विवेदी जी संस्कृत, बंगाली, पंजाबी, गुजराती, पाली, प्राकृत, और अपभ्रंश सहित कई भाषाओं के जानकार थे। मध्ययुगीन संत कबीर के विचारों, कार्य और साखियों पर उनका शोध एक उत्कृष्ट कार्य माना जाता है। उनके ऐतिहासिक उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा, पुनर्नवा, चारु चन्द्र लेखा को क्लासिक्स माना जाता है। उनके यादगार निबंध नाखून क्यों बढते हैं, अशोक के फूल, कुटज, और आलोक पर्व (संग्रह) आदि हैं।
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भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान था। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि देकर उनका विशेष सम्मान किया था। हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक रूपरेखा पर ऐतिहासिक अनुसंधानात्मक कई संग्रह लिखे। द्विवेदी जी का 19 मई, 1979 को निधन हो गया। जब उनका निधन हुआ तब वह उत्तर प्रदेश हिंदी अकादमी के अध्यक्ष थे।
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