जीवन में कभी युद्ध ना हारने वाले महायोद्धा थे बाजीराव पेशवा
बाजीराव पेशवा को लोग बाजीराव बल्लाल भट्ट और थोरले बाजीराव के नाम से भी जानते थे। छत्रपति शिवाजी के बाद वह गुरिल्ला युद्ध तकनीक के सबसे बड़े प्रतिपादक थे। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व, व्यूह रचना एवं कारगर रणकौशल के बलबूते पर मराठा साम्राज्य का देश में बहुत तेजी से सबसे अधिक विस्तार किया था।
"हर-हर महादेव" के युद्धघोष के साथ देश में अटक से लेकर कटक तक केसरिया ध्वज लहरा कर "हिन्दू स्वराज" लाने का जो सपना वीर छत्रपति शिवाजी महाराज ने देखा था, उसको काफी हद तक मराठा साम्राज्य के चौथे पेशवा या प्रधानमंत्री वीर बाजीराव प्रथम ने पूरा किया था। जिस वीर महायोद्धा बाजीराव पेशवा प्रथम के नाम से अंग्रेज शासक थर-थर कांपते थे, मुगल शासक बाजीराव से इतना डरते थे कि उनसे मिलने तक से भी घबराते थे। हिंदुस्तान के इतिहास में पेशवा बाजीराव प्रथम ही अकेले ऐसे महावीर महायोद्धा थे, जिन्होंने अपने जीवन काल में 41 युद्ध लड़े और एक भी युद्ध नहीं हारा, साथ ही वीर महाराणा प्रताप और वीर छत्रपति शिवाजी के बाद बाजीराव पेशवा प्रथम का ही नाम आता है जिन्होंने मुगलों से बहुत लंबे समय तक लगातार लोहा लिया था। पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट एक ऐसे महान योद्धा थे। जिन्होंने निजाम, मोहम्मद बंगश से लेकर मुगलों, अंग्रेजों और पुर्तगालियों तक को युद्ध के मैदान में कई-कई बार करारी शिकस्त दी थी, बाजीराव पेशवा के समय में महाराष्ट्र, गुजरात, मालवा, बुंदेलखंड सहित 70 से 80 प्रतिशत भारत पर उनका शासन था। ऐसा रिकॉर्ड वीर छत्रपति शिवाजी तक के नाम पर भी नहीं है। वह जब तक जीवित रहे हमेशा अजेय रहे, उनको कभी भी कोई हरा नहीं पाया।
हालांकि इस महावीर अजेय योद्धा के साथ हमारे देश के इतिहासकारों ने कभी न्याय नहीं किया, उन्होंने एक महान योद्धा को हमेशा गुमनाम नायक बनकर ही रहने दिया, बाजीराव को इतिहास ने उनका तय सम्मान कभी नहीं दिया, देश में फिल्म "बाजीराव मस्तानी" आने तक तो उनके बारे में बहुत ही कम लोग जानते थे, अधिकांश लोगों ने उसके बाद ही इस महान योद्धा के बारे में जाना और समझा। उस समय जनता के बीच "अपराजित हिन्दू सेनानी सम्राट" के नाम से प्रसिद्ध इस महान सेनानायक पेशवा बाजीराव प्रथम की आज 28 अप्रैल को पुण्यतिथि है।
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बाजीराव पेशवा को लोग "बाजीराव बल्लाल भट्ट" और "थोरले बाजीराव" के नाम से भी जानते थे। छत्रपति शिवाजी के बाद वह गुरिल्ला युद्ध तकनीक के सबसे बड़े प्रतिपादक थे। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व, व्यूह रचना एवं कारगर रणकौशल के बलबूते पर मराठा साम्राज्य का देश में बहुत तेजी से सबसे अधिक विस्तार किया था। आइए आज जानते हैं इस वीर महायोद्धा के जीवन से जुड़ी कुछ प्रमुख बातें व उनकी वीर गाथाओं के बारे में।
पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट का पारिवारिक इतिहास:-
पेशवा बाजीराव बल्लाल का जन्म 18 अगस्त सन् 1700 को चित्ताबन कुल के ब्राह्मण परिवार में पिता बालाजी विश्वनाथ और माता राधाबाई के घर में हुआ था। उनके पिताजी मराठा छत्रपति शाहूजी महाराज के प्रथम पेशवा (प्रधानमंत्री) थे। बाजीराव का एक छोटा भाई भी था चिमाजी अप्पा। बाजीराव अल्पायु से ही अपने पिताजी के साथ हमेशा सैन्य अभियानों में जाया करते थे।
पेशवा बाजीराव ने दो शादियां की इनकी पहली पत्नी का नाम काशीबाई और बाजीराव के चार बेटे थे। बालाजी बाजीराव उर्फ नानासाहेब का जन्म सन् 1721 में हुआ था और बाद में बाजीराव प्रथम की मौत के बाद सन् 1740 में शाहूजी ने उन्हें अपना पेशवा नियुक्त किया था। दूसरे बेटे की रामचंद्र की मृत्यु जवानी में ही हो गई और तीसरा बेटा रघुनाथराव 1773-74 के दौरान पेशवा के रूप में कार्यरत थे। चौथे पुत्र जनार्दन कि भी जवानी में मृत्यु हो गई थी।
बाजीराव ने मस्तानी से दुसरी शादी की थी जो कि बुंदेलखंड के हिंदू राजा छत्रसाल और उनकी एक फारसी मुस्लिम पत्नी रुहानी बाई की बेटी थी। बाजीराव उससे बहुत अधिक प्रेम करते थे और उसके लिए पुणे के पास एक महल भी बाजीराव ने बनवाया जिसका नाम उन्होंने 'मस्तानी महल' रखा। सन् 1734 में बाजीराव और मस्तानी का एक पुत्र हुआ जिसका नाम कृष्णा राव रखा गया था। जो बाद में शमशेर बहादुर प्रथम कहलाया। लेकिन पेशवा परिवार ने कभी भी इस शादी को स्वीकार नहीं किया। परंतु यह ध्यान देने योग्य बात है कि मस्तानी के खिलाफ पेशवा परिवार द्वारा जो घरेलू युद्ध छिड़ा था, उसमें बाजीराव की प्रथम पत्नी काशीबाई ने कभी भी कोई भूमिका नहीं निभाई थी। इतिहासकारों के मतानुसार व विभिन्न ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि काशीबाई हमेशा मस्तानी को बाजीराव की दूसरी पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार थीं, लेकिन उनकी सास राधाबाई और देवर चिमाजी अप्पा के विरोध के कारण ऐसा कभी नहीं हो सका।
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उस समय पुणे के ब्राह्मणों ने बाजीराव के मस्तानी के साथ संबंधों के कारण पेशवा परिवार का बहिष्कार तक कर दिया था। चिमाजी अप्पा और बालाजी बाजीराव उर्फ नानासाहेब ने सन् 1740 में बाजीराव और मस्तानी को अलग करने हेतु बलप्रयोग की शुरुआत की थी। जब बाजीराव किसी अभियान पर पुणे से बाहर गये हुए थे, तब उन्होंने मस्तानी को घर में नजरबंद किया था। जब एक अभियान पर बाजीराव कि बिगड़ती स्वास्थ्य को देखकर चिमाजी अप्पा ने नानासाहेब को मस्तानी को छोड़ने और बाजीराव से मिलने के लिए भेज देने का आदेश दिया था। लेकिन नानासाहेब ने इसके बजाय अपनी मां काशीबाई को उनके पास भेजा था। कहा जाता है कि काशीबाई ने बाजीराव की मृत्युशैया पर एक वफ़ादार और कर्तव्य परायण पत्नी बनकर बहुत सेवा की थी। 28 अप्रैल 1740 को वीर महान योद्धा बाजीराव प्रथम की बुखार बीमारी के चलते आकस्मिक मृत्यु हो गयी तब उनकी पत्नी काशीबाई और उनके बेटे जनार्दन ने नर्मदा नदी के किनारे रावेरखेडी, पश्चिम निमाड, मध्य प्रदेश में बाजीराव का अंतिम संस्कार किया था।
बाजीराव की मौत के बाद सन् 1740 में उनकी दूसरी पत्नी मस्तानी का भी निधन हो गया और तब बाजीराव की पहली पत्नी काशीबाई ने मस्तानी व बाजीराव के पुत्र शमशेर बहादुर प्रथम का हमेशा ख्याल रखा था।
पेशवा बाजीराव, जिन्हें बाजीराव प्रथम भी कहा जाता है, मराठा साम्राज्य के एक महान पेशवा थे। उस समय पेशवा का अर्थ होता था प्रधानमंत्री। वे मराठा छत्रपति शाहूजी महाराज के चतुर्थ प्रधानमंत्री थे। बाजीराव ने अपना प्रधानमंत्री का पद सन् 1720 से अपनी मृत्यु सन् 1740 तक बहुत ही सफलतापूर्वक संभाला था।
बाजीराव का गौरवशाली इतिहास:-
बचपन से बाजीराव को घुड़सवारी करना, तीरंदाजी, तलवार, भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाने का बहुत शौक था। 13-14 वर्ष की खेलने की आयु में बाजीराव अपने पिताजी के साथ अभियानों पर घूमते थे। वह उनके साथ घूमते हुए राज दरबारी चालों, युद्ध नीति व रीति-रिवाजों को आत्मसात करते रहते थे। यह क्रम 19-20 वर्ष की आयु तक चलता रहा। अचानक एक दिन बाजीराव के पिता का निधन हो गया, तो वह मात्र बीस वर्ष की उम्र में छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा बना गये। इतिहास के अनुसार बाजीराव घुड़सवारी करते हुए लड़ने में सबसे माहिर थे और यह माना जाता है कि उनसे अच्छा घुड़सवार सैनिक भारत में आज तक कभी नहीं देखा गया। उनके पास 4 घोड़े थे, जिनका नाम नीला, गंगा, सारंगा और औलख था। अपने प्रिय घोडों की देखभाल बाजीराव स्वयं करते थे। पेशवा बाजीराव की लंबाई 6 फुट, हाथ लंबे, शरीर बलिष्ठ था। पूरी सेना को वो हमेशा बेहद सख्त अनुशासन में रखते थे। अपनी बेहतरीन भाषण शैली से वो सेना में एक नया जोश भर देते थे।
अल्पवयस्क उम्र के होते हुए भी बाजीराव ने अपनी असाधारण योग्यता प्रदर्शित की। पेशवा बनने के बाद अगले बीस वर्षों तक बाजीराव मराठा साम्राज्य को लगातार बहुत तेजी से बढ़ाते रहे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था। वह जन्मजात नेतृत्वशक्ति, अद्भुत रणकौशल, अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने अपने बेहद प्रतिभासंपन्न अनुज भाई चिमाजी अप्पा के सहयोग द्वारा शीघ्र ही मराठा साम्राज्य को भारत में सर्वशक्तिमान् बना दिया था। अपनी वीरता, अपने नेतृत्व क्षमता, गुरिल्ला युद्ध तकनीक व बेहतरीन युद्ध-कौशल योजना के द्वारा यह महान वीर योद्धा बाजीराव जंग के मैदान में 41 लड़ाई लड़ा और हर लड़ाई को जीतकर हमेशा अजेय विजेता रहा। छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह वह बहुत ही कुशल घुड़सवार थे। घोड़े पर बैठे-बैठे भाला चलाना, बनेठी घुमाना, बंदूक चलाना उनके बाएँ हाथ का खेल था। घोड़े पर बैठकर बाजीराव के भाले की फेंक इतनी जबरदस्त होती थी कि सामने वालें दुश्मन को जान बचने के लाले पड़ जाते थे।
बाजीराव के समय में भारत की जनता मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी। यह आक्रांता भारत के देवस्थान मंदिरों को तोड़ते, जबरन धर्म परिवर्तन करते, महिलाओं व बच्चों को मारते व उनका भयंकर शोषण करते थे। ऐसे में बाजीराव पेशवा ने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ऐसी विजय पताका फहराई कि चारों ओर उनके नाम का डंका बजने लगा। उनकी वीरता को देखकर लोग उन्हें शिवाजी का साक्षात अवतार मानने लगे थे।
बाजीराव की शौर्यगाथा:-
- सन् 1724 में शकरखेडला में बाजीराव पेशवा ने मुबारिज़खाँ को परास्त किया था।
- सन् 1724 से 1726 तक मालवा तथा कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
- सन् 1728 में पालखेड़ में महाराष्ट्र के शत्रु निजामउलमुल्क को पराजित करके उससे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूली की।
- सन् 1728 में मालवा और बुंदेलखंड पर आक्रमण कर मुगल सेनानायक गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर विजय प्राप्त की। तदनंतर मुहम्मद खाँ बंगश को परास्त किया सन् 1729 में।
- सन् 1731 में दभोई में त्रिंबकराव को नतमस्तक कर बाजीराव ने आंतरिक विरोध का दमन किया। सीदी, आंग्रिया तथा पुर्तगालियों एवं अंग्रेजो को भी बहुत ही बुरी तरह पराजित किया।
- बाजीराव का मुगलों की दिल्ली को जिताने का अभियान, उन्होंने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। उस वक्त देश में कोई भी ऐसी ताकत नहीं थी, जो सीधे दिल्ली पर आक्रमण करने का ख्वाब भी दिल में ला सके। मुगलों का और खासकर दिल्ली दरबार का ऐसा खौफ सबके सिर चढ़कर बोलता था। लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब दिल्ली पर खुद सीधा हमला होगा। बाजीराव ने उसी उद्देश्य से दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। 10 दिन की दूरी बाजीराव ने केवल 500 घोड़ों के साथ 48 घंटे में बिना रुके बिना थके पूरी कर ली। देश के इतिहास में अब तक 2 राजाओं के आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं- एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए 9 दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा महान योद्धा बाजीराव का दिल्ली की मुगल सल्तनत पर हमला करना। बाजीराव ने आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है वहां पर अपनी सेना का कैंप डाल दिया, उसके पास केवल 500 घुड़सवार सैनिक योद्धा थे। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के अंदर सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में 10 हजार सैनिकों की टोली को बाजीराव से निपटने के लिए भेजा। बाजीराव के 500 लड़ाकों ने उस सेना को 28 मार्च 1737 के दिन बुरी तरह शिकस्त दी। यह दिन भारत के इतिहास का स्वर्णिम दिन था और मराठा ताकत के लिए सबसे बड़ा दिन।
-सन् 1737 तक बाजीराव की सैन्यशक्ति का चरमोत्कर्ष था। उसी वर्ष भोपाल में बाजीराव पेशवा ने फिर से निजाम को पराजय दी। अंतत: 1739 में उन्होनें नासिरजंग पर विजय प्राप्त की थी।
बाजीराव प्रथम को एक महान घुड़सवार सेनापति के रूप में जाना जाता है और इतिहास के उन महान योद्धाओं में बाजीराव का नाम आता है जिन्होंने कभी भी अपने जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारा, यह उनकी महानता व युद्ध कौशल को दर्शाता है। बाजीराव के रूप में भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा वीर महायोद्धा घुड़सवार सेनापति हुआ था।
अमेरिकी इतिहासकार बर्नार्ड मांटोगोमेरी के अनुसार
"बाजीराव पेशवा भारत के इतिहास का सबसे महानतम सेनापति था और पालखेड़ युद्ध में जिस तरीके से उन्होंने निजाम की विशाल सेनाओं को पराजित किया उस वक्त सिर्फ बाजीराव प्रथम ही कर सकते थे उसके अलावा भारत या भारतीय उपमहाद्वीप में यह सब करने की क्षमता किसी और से नहीं थी।"
बाजीराव प्रथम और उनके भाई चिमाजी अप्पा ने बेसिन के लोगों को पुर्तगालियों के अत्याचार से भी बचाया जो जबरन धर्म परिवर्तन करवा रहे थे और जबरन यूरोपीय सभ्यता को भारत में लाने की कोशिश कर रहे थे। सन् 1739 में अंतिम दिनों में अपने भाई चिमाजी अप्पा को भेजकर उन्हें पुर्तगालियों को हरा दिया और वसई की संधि करवा दी थी।
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जिस समय बाजीराव प्रथम को सन् 1720 में छत्रपति शाहूजी महाराज ने मराठा साम्राज्य का पेशवा नियुक्त किया था, जिसके बाद कई सारे बड़े मंत्री बाजीराव से नाराज हो गए जिसके कारण उन्होंने युवा सरदारों को अपने साथ में लाना शुरू कर दिया जिसमें मल्हारराव होलकर, राणोजीराव शिंदे आदि मुख्य रूप से शामिल थे, इन सभी ने बाजीराव के साथ मिलकर संपूर्ण भारत पर अपना प्रभाव जमाने को रात-दिन एक कर दिया था। बाजीराव प्रथम कि सबसे बड़ी जीत सन् 1728 में पालखेड की लड़ाई में हुई जिसमें उन्होंने निजाम की सेनाओं को पूर्णतया दलदली नदी के किनारे लाकर खड़ा कर दिया था, अब निजाम के पास आत्मसमर्पण के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था, 6 मार्च 1728 को उन्होंने मुंशी शेवगाँव की संधि की थी।
उन्होंने छत्रपति शाहूजी महाराज को मराठा साम्राज्य का वास्तविक छत्रपति घोषित कर दिया और संभाजी द्वितीय को कोल्हापुर का छत्रपति। उसके बाद बाजीराव ने कई और लड़ाई लड़ी।
सन् 1737 में जब बाजीराव दिल्ली फतह के बाद वापस पुणे की ओर लौटे, जहां पर मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला ने साआदत अली खान और हैदराबाद के निजाम को लिखा कि आप बाजीराव को पुणे से पहले ही रोक ले, जिसके चलते निजाम व बाकी सभी की सेना का सामना बाजीराव से भोपाल के निकट हुआ। जिसमें 24 दिसंबर 1737 के दिन मराठा सेना ने सभी को जबरदस्त तरीके से हराया। निजाम ने अपनी जान बचाने के के लिए बाजीराव से संधि कर ली। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा, मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने 50 लाख रुपए बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे।
मालवा का संपूर्ण क्षेत्र अब मराठो को प्राप्त हो गया, इससे मराठों का प्रभाव संपूर्ण भारत में स्थापित हो गया। बाजीराव ने सन् 1730 मे शनिवार वाड़ा का पुणे में निर्माण करवाया और पुणे को राजधानी बनाया। बाजीराव ने ही पहली बार देश में "हिंदु पदशाही" का सिद्धांत दिया और सभी हिंदुओं को एक कर विदेशी शक्तियों के खिलाफ लड़ने का बीड़ा उठाया, हालांकि उन्होंने कभी भी किसी अन्य धर्म के मानने वाले लोगों पर कोई अत्याचार नहीं किया।
उन्होंने सन् 1739 में अपने भाई की चिमाजी की सेनाओं के द्वारा पुर्तगालियों को बेसिन में पराजित करके वसई की संधि कर ली, जिसके तहत पुर्तगालियों के अभद्र पूर्ण व्यवहार से भारतीय जनता को बाजीराव प्रथम ने बचा लिया। बाजीराव प्रथम बहुत ही महान और काबिल हिंदू महायोद्धा थे, संपूर्ण भारत में बाजीराव प्रथम की ताकत का जबरदस्त खौफ फैला हुआ था, यहां तक कि जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय भी उनकी काफी तारीफ करते थे। सन् 1731 में उन्होंने मोहम्मद खान बंगस की सेना को पराजित कर महाराजा छत्रसाल को उसे बचा लिया और वापस उनका बुंदेलखंड राज्य उनको सम्मान के साथ लौटा दिया, इसे प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी पुत्री मस्तानी का विवाह बाजीराव से कर दिया और जब छत्रसाल की मौत हुई तो बाजीराव को बुंदेलखंड राज्य का एक तिहाई हिस्सा मराठा साम्राज्य में मिलाने के लिए दे दिया गया था।
बाजीराव पेशवा की वीरता के बारे में इतिहास तथा राजनीति के एक विद्वान् सर रिचर्ड टेंपिल ने बाजीराव की महत्ता का यथार्थ अनुमान एक वाक्य समूह में किया है। वह लिखते है कि-
"सवार के रूप में बाजीराव को कोई भी मात नहीं दे सकता था। युद्ध में वह सदैव अग्रगामी रहता था। यदि कार्य दुस्साध्य होता तो वह सदैव अग्नि-वर्षा का सामना करने को उत्सुक रहता। वह कभी थकता न था। उसे अपने सिपाहियों के साथ दुःख-सुख उठाने में बड़ा आनंद आता था। विरोधी मुसलमानों और राजनीतिक क्षितिज पर नवोदित यूरोपीय सत्ताओं के विरुद्ध राष्ट्रीय उद्योगों में सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा उसे हिंदुओं के विश्वास और श्रद्धा में सदैव मिलती रही। वह उस समय तक जीवित रहा जब तक अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक संपूर्ण भारतीय महाद्वीप पर मराठों का भय व्याप्त न हो गया। उसकी मृत्यु डेरे में हुई, जिसमें वह अपने सिपाहियों के साथ आजीवन रहा। महान योद्धा युद्धकर्ता पेशवा के रूप में तथा हिंदू शक्ति के महान अवतार के रूप में मराठे उसका हमेशा स्मरण करते रहेंगे।"
देश में जब भी होलकर, सिंधिया, पवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकतों की बात होगी तो पता चलेगा कि वे सब पेशवा बाजीराव प्रथम की ही देन थीं। ग्वालियर, इंदौर, पूना और बड़ौदा जैसी ताकतवर रियासतें बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आईं। बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर ही जिंदा थी।
बाजीराव का 28 अप्रैल 1740 में केवल 40 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठा शासकों के लिए ही नहीं, बल्कि देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी बहुत ही दर्दनाक भविष्य लेकर आया। उनकी मृत्यु के चलते ही अगले 200 वर्ष तक भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा और उनके बाद देश में कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांधकर आजाद करवा पाता। जब भी भारत के इतिहास के महान योद्धाओं की बात होगी तो निस्संदेह महान पेशवा श्रीमंत बाजीराव प्रथम का नाम हमेशा गर्व से लिया जायेगा और वह हमेशा हम सभी भारतवासियों के आदर्श व प्रेरणास्रोत सदा बने रहेंगे। आज पुण्यतिथि पर हम सभी भारत के महावीर महान योद्धा बाजीराव प्रथम को भावपूर्ण श्रदांजलि अर्पित करते हैं।
दीपक कुमार त्यागी
स्वतंत्र पत्रकार, स्तंभकार व रचनाकार
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