आचार्य विनोबा भावे ने भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलन के माध्यम से समाज को नई दिशा दी
विनोबा भावे ने गाँधीजी के साथ देश के स्वाधीनता संग्राम में बहुत काम किया। उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज और व्यक्ति से जुड़ी थी। इसी कारण सन्त स्वभाव के बावजूद उनमें राजनैतिक सक्रियता भी थी।
दिव्य कर्तव्य, मानवतावादी सोच, सबके उदय की कामना, चिन्मयी पुरुषार्थ और तेजोमय शौर्य से मानव-मानव की चेतना को झंकृत करने एवं धरती को जय जगत का सन्देश देने वाले युगपुरूष संत विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर 1895 को हुआ था। इस महापुरूष ने भूदान, डाकूओं के आत्मसमर्पण तथा जय जगत के विचारों द्वारा वैश्विक समास्याओं के अहिंसक तरीके से समाधान निकालने के जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत किये थे। वे हमारे लिये एक प्रकाश स्तंभ, राष्ट्रीयता, नैतिकता एवं अहिंसक जीवन एवं पीड़ितों एवं अभावों में जी रहे लोगों के लिये आशा एवं उम्मीद की एक मीनार थे, रोशनी उनके साथ चलती थी। वे संतों की उत्कृष्ट पराकाष्ठा थे, भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, विशिष्ट उपदेष्टा, महान विचारक तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। उनका मूल नाम विनायक नरहरी भावे था। वे भारत में भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलन प्रणेता के रूप में सुपरिचित थे। वे भगवद्गीता से प्रेरित जनसरोकार वाले जननेता थे, प्रवचनकार थे, महामनीषी थे, जिनका हर संवाद सन्देश बन गया है। वे कर्मप्रधान व्यक्ति थे इसलिए गीता उनका आदर्श थी। उन्होंने अपने प्रवचनों में गीता का सार बेहद सरल शब्दों में जन-जन तक पहुँचाया ताकि उनका आध्यात्मिक उदय हो सके, अंधेरों में उजाले एवं सत्य की स्थापना हो सके।
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विनोबा भावे ने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था। इस कार्यक्रम में वे पदयात्री की तरह गाँव-गाँव घूमे और इन्होंने लोगों से भूमिखण्ड दान करने की याचना की, ताकि उसे कुछ भूमिहीनों को देकर उनका जीवन सुधारा जा सके। उनका यह आह्वान जितना प्रभावी रहा, वह विस्मित करता है। इस पवित्र कार्य में जमींदार लोग भी गरीबों को दिल खोलकर जमीन देने के लिए आगे आये। यह संसार की अपनी तरह की अनूठी अहिंसक क्रान्ति है। वे गांधीवादी विचारों पर चले। रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों का प्रयोग किया। 1955 तक आते-आते भू-आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। इसका अर्थ था ‘सारी भूमि गोपाल की’। उनकी जन नेतृत्व क्षमता का अंदाज इसी घटना से लगता है कि इन्होंने चम्बल के डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया और 19 मई, 1960 को डकैत गिरोहों के 11 मुखियाओं ने विनोबाजी प्रभावित होकर उनके चरणों में अपने हथियार रखते हुए आत्मसमर्पण किया था। आज देश पर हावी हो चुके नक्सलवाद पर विनोबा भावे- जेपी वाली अहिंसा रूपी लगाम लगायी जा सकती है। आतंकवाद तथा नक्सलवाद की जड़ पर चोट की जाये केवल पत्तों पर दवा छिड़कने से स्थायी समाधान नहीं मिलेगा।
विनोबा भावे को भारत का राष्ट्रीय आध्यापक और महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी समझा जाता है। आज भी कुछ लोग यही कहते हैं। मगर यह उनके चरित्र का एकांगी और एकतरफा विश्लेषण है। वे गांधीजी के ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी’ से बहुत आगे, स्वतंत्र सोच एवं मानवतावादी कार्यक्रमों के स्वामी थे। मुख्य बात यह है कि गांधीजी के प्रखर प्रभामंडल के आगे उनके व्यक्तित्व का स्वतंत्र मूल्यांकन हो ही नहीं पाया। उनको हम ज्ञान का अक्षय कोष कह सकते हैं। गांधी के सान्निध्य में आने से पहले ही विनोबा आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त कर चुके थे। संत ज्ञानेश्वर एवं संत तुकाराम उनके आदर्श थे। आश्रम में आने के बाद भी वे अध्ययन-चिंतन के लिए नियमित समय निकालते थे। भूदान यज्ञ में विनोबाजी प्रतिदिन दो बार प्रवचन करते थे और अपने प्रत्येक प्रवचन में नयी-नयी बातें कहते थे। एक दिन उनसे पूछा गया, ‘‘बाबा, आप इतने दिनों से भाषण देते आ रहे हैं, लेकिन आपके हर भाषण में कुछ नवीनता रहती है। यह कैसे संभव होता है?’’ विनोबाजी ने कहा, ‘‘पैदल जो चलता हूं। उससे धरती का स्पर्श होता है और प्रकृति से नजदीक का संबंध जुड़ता है। मन में नित-नयी स्फूर्ति उत्पन्न होती है। उसी से नयी-नयी बातें सूझती हैं।’’ बिनोबाजी ने जो कहा, उसमें बड़ी सच्चाई थी। मैंने स्वयं अनुभव किया कि जब मैं अणुव्रत आन्दोलन के प्रणेता आचार्य तुलसी के साथ अनेक वर्षों तक पैदल घूमा, मुझे जो अनुभूतियां हुई, जो ज्ञान मिला, वह अद्भुत था। उसका कारण यही था कि पैदल गति से मनुष्य के मस्तिष्क के बंद द्वार खुल जाते हैं और बाहर की ताजी शुद्ध हवा भीतर आती है।
विनोबा भावे ने गाँधीजी के साथ देश के स्वाधीनता संग्राम में बहुत काम किया। उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज और व्यक्ति से जुड़ी थी। इसी कारण सन्त स्वभाव के बावजूद उनमें राजनैतिक सक्रियता भी थी। उन्होंने सामाजिक अन्याय तथा धार्मिक विषमता का मुकाबला करने के लिए देश की जनता को स्वयंसेवी होने का आह्वान किया। उनके आध्यात्मिक विकास में उनकी माँ रुक्मिणी देवी का गहरा प्रभाव था। वे महात्मा गाँधी द्वारा पहले एकल सत्याग्रही के रूप में चुने गए और गाँधीजी ने उन्हें ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में भी साथ लिया। पवनार आश्रम में आने के बाद वही उनका स्थायी मुख्यालय बन गया। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद विनोबा भावे ने समाज सुधार के आंदोलन की शुरुआत की। इस क्रम में भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलन बहुत प्रभावी रहे। उनका मानना था कि भारतीय समाज के पूर्ण परिवर्तन के लिए अहिंसक एवं नैतिक क्रांति की आवश्यकता है। इसके लिये वे आचार्य तुलसी और उनके अणुव्रत आन्दोलन को उपयोगी मानते थे और उन्हें अपना पूरा समर्थन प्रदत्त किया।
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विनोबा भावे करुणाशील थे, उनकी करुणा एवं संवेदना से पूरी मानवता आप्लावित थी। नेतृत्व वही सफल होता है जो सबको साथ लेकर, सबका अपना होकर चले। उनका नेतृत्व कद ऊंचा इसलिये उठ गया, क्योंकि उन्होंने अपना वात्सल्य, प्रेम, विश्वास और सौहार्द सबमें बांटा। उपलब्धियों में सबको सहभागी माना। अपने साथियों एवं कार्यकर्ताओं का दर्द-बांटना उनकी सर्वोपरि प्राथमिकता थी। इसका उदाहरण मेरा परिवार- मेरे पिता श्री रामस्वरूप गर्ग एवं माता श्रीमती सत्यभामा गर्ग हैं। सन् 1959 में वे पदयात्रा करते हुए अजमेर आये, उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी एक कार्यकत्र्री सत्यभामा गर्ग कैंसर से पीड़ित है और जीवन-मृत्यु के बीच संघर्षरत हैं, तो वे उनसे मिलने इमली मौहल्ला की संकरी गलियों में गये, तीसरी मंजिल तक चढ़ कर उन्हें अपना आशीर्वाद दिया। संभवतः यह विनोबा जैसा व्यक्तित्व ही कर सकता है।
1970 में उन्होंने यह घोषणा की कि अब वह स्थायी रूप से केवल पवनार में रहेंगे। 25 दिसम्बर 1974 से उन्होंने एक वर्ष का मौन व्रत रखा। महात्मा गाँधी के गहन अनुयायी होने के कारण वह कांग्रेस पार्टी के निर्विवाद समर्थक थे। 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने लोकतन्त्र तथा संविधान को परे करते हुए आपातकाल लगाया, तब भी विनोबाजी ने इन्दिरा गाँधी तथा कांग्रेस का समर्थन किया। वह समय विनोबा भावे के मौन व्रत था तब भी उन्होंने एक स्लेट पर लिखकर अपना सन्देश दिया था कि ‘आपातकाल अनुशासन पर्व है’ इस बात को लेकर वह विवाद से घिर गए थे और उनकी आध्यात्मिकता तथा जन-सरोकार को संशय से देखा जाने लगा था।
विनोबा भावे नवंबर 1982 में गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्होंने जैन धर्म के संलेखना- संथारा के रूप में भोजन और दवा का त्याग कर इच्छापूर्वक मृत्यु का वरण करने का निर्णय किया। उनका 15 नवंबर 1982 को निधन हो गया। सचमुच! वह कर्मवीर कर्म करते-करते कृतकाम हो गया। पर हमारे सामने प्रश्न है कि हम कैसे मापें उस आकाश को कैसे बांधे उस समंदर को, कैसे गिने बरसात की बूंदों को? विनोबा की रचनात्मक, सृजनात्मक एवं समाज-निर्माण की उपलब्धियां इतनी ज्यादा है कि उनके आकलन में गणित का हर फार्मूला छोटा पड़ जाता है। विनोबा भावे को सामुदायिक नेतृत्व के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय रेमन मैगसाय पुरस्कार मिला था। उन्हें 1983 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
विनोबा भावे जी की 126वीं जयंती को मानव जाति के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज कराने के लिए ‘जय जगत’ के अनुरूप सारी वसुधा को कुटुम्ब बनाने का हमें संकल्प लेना चाहिए। गुफाओं से शुरू हुई मानव सभ्यता की अंतिम ‘जय जगत’ अर्थात वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था (विश्व संसद) के गठन एवं वसुधैव कुटुम्बकम-समूची दुनिया एक परिवार की मंजिल की दिशा में सफल कदम बढ़ाना विनोबाजी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हम विनोबा को भौतिक चमत्कारों से तोलने का मन और माहौल न बनाये बल्कि उनके जीवन-आदर्शों को जीवन में अपनाये। क्योंकि उनका तो एक-एक कर्म स्वयं पूजा है, मन्दिर की आरती, मस्जिद की अजान, गुरु़द्वारा की गुरुवाणी है। वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व उनसे प्रेरणा ले तो आदर्श एवं संतुलित समाज का सपना आकार ले लेगा।
ललित गर्ग
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