UP Elections। उत्तर प्रदेश की राजनीति में क्यों बढ़ गई Om Prakash Rajbhar की Demand
छात्र जीवन में राजभर टेंपो चलाकर अपना खर्च निकाला करते थे। धीरे-धीरे कुछ पैसे बचाएं और बाद में जीप खरीदी और पैसेंजर ढोने का काम किया। इससे बाद उनकी जान-पहचान अच्छी होने लगी। इसी कड़ी में कुछ राजनेताओं से उनकी पहचान हो गई और उसके बाद उन्होंने राजनीति का रुख किया।
उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने है। इन सब के बीच एक नाम ऐसा है जिसकी खूब चर्चा हो रही है। वह नाम सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर का है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में भले ही ओमप्रकाश राजभर कोई बहुत बड़ा नाम ना हो लेकिन इनकी चर्चा भी खूब हो रही है और बड़ी पार्टियां समय-समय पर इनको अपने साथ लाने की कोशिश भी करती रहती हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठबंधन भाजपा के साथ हुआ था। ओमप्रकाश राजभर ने पहली बार विधानसभा का चुनाव जीता और योगी आदित्यनाथ की सरकार में मंत्री भी बने। हालांकि भाजपा के साथ उनकी ज्यादा दिन तक नहीं बन पाई। उन्होंने लगातार भाजपा के खिलाफ अपने बगावती तेवर को दिखाना शुरू कर दिया और आखिरकार ओमप्रकाश राजभर ने भाजपा के साथ अपने गठबंधन को तोड़ लिया। इसके बाद से वह लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर हमलावर होते गए। योगी आदित्यनाथ पर भी उन्होंने जमकर हमले किए जिसके बाद से वह लगातार सुर्खियों में रहने लगे।
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2019 के चुनाव आते आते ही भाजपा के साथ उनकी तल्खी इतनी बढ़ गई थी कि उन्होंने प्रदेश की 39 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दए। हालांकि 23 मई को आए परिणाम के बाद इस चुनाव में वह अप्रसांगिक नजर आने लगे। राजभर ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1981 में की थी वह भी कांशीराम से प्रभावित होने के बाद। शुरुआत में उन्होंने बहुजन समाजवादी पार्टी को ज्वाइन किया था और बनारस के जिलाध्यक्ष बने थे। हालांकि भदोही जिले का नाम संतरविदास नगर किए जाने को लेकर ओमप्रकाश राजभर की मायावती के साथ में तल्खी बढ़ गई थी। 2001 में उन्होंने बसपा छोड़ दी और सोनेलाल पटेल की पार्टी में शामिल हो गए। यहां भी वह ज्यादा नहीं टिक सके। इसके बाद 27 अक्टूबर 2002 को उन्होंने अपनी पार्टी बनाई। पार्टी का नाम रखा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी। 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने उत्तर प्रदेश और बिहार की सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, कहीं से उन्हें सफलता नहीं मिली। हालांकि वोट प्रतिशत ठीक-ठाक रहा।
2007 के उत्तर प्रदेश चुनाव में 97 सीटों पर भी अपने उम्मीदवार उतारे पर सीट नहीं मिली। 2009 के चुनाव में अपना दल के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ा। इस बार भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली। 2010 के बिहार और 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने अपने पार्टी के उम्मीदवार उतारे लेकिन कहीं सफलता नहीं मिली। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को कोई कामयाबी नहीं मिली। हालांकि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन किया। 8 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और चार पर जीत हासिल हुई।
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छात्र जीवन में राजभर टेंपो चलाकर अपना खर्च निकाला करते थे। धीरे-धीरे कुछ पैसे बचाएं और बाद में जीप खरीदी और पैसेंजर ढोने का काम किया। इससे बाद उनकी जान-पहचान अच्छी होने लगी। इसी कड़ी में कुछ राजनेताओं से उनकी पहचान हो गई और उसके बाद उन्होंने राजनीति का रुख किया। ओमप्रकाश राजभर ने पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए हक की लड़ाई लड़नी शुरू कर दी। यही कारण है कि उन्हें पिछड़े वर्गों का एक अच्छा खासा समर्थन मिलना शुरू हो गया। भाजपा के साथ में उन्होंने गठबंधन भी इसी शर्त पर किया था कि सरकार बनी तो पिछड़ों के आरक्षण में बंटवारा कर दिया जाएगा।
सवाल यह है कि सभी पार्टियों के लिए ओमप्रकाश राजभर इतनी महत्वपूर्ण क्यों है? दरअसल, उत्तर प्रदेश में राजभर वोटों की संख्या लगभग 12 फ़ीसदी है। पूर्वांचल में इसकी तादाद ज्यादा है। गाजीपुर, चंदौली, घोसी जैसे क्षेत्रों में राजभर मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी मानी जाती है। लोकसभा की ऐसी कई सारी सीटें हैं जहां राजभर वोट 50000 से ढाई लाख तक के बीच में है। जैसे की बलिया, चंदौली, सलेमपुर, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, लालगंज, अंबेडकरनगर, मछली शहर, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, भदोही। यही कारण है कि सभी बड़ी पार्टियां राजभर को अपने साथ गठबंधन में शामिल करने को तैयार रहती हैं।
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