Jan Gan Man: समानता का सिद्धांत क्यों कहता है कि Supreme Court को Waqf Bill के खिलाफ दायर याचिकाएं नहीं सुननी चाहिए?

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अश्विनी उपाध्याय जब इस मुद्दे पर जनहित याचिका लेकर तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अदालत में गये थे तब CJI साहब ने पूछा था- आपकी कितनी जमीन पर वक्फ बोर्ड ने कब्जा किया है? CJI साहब ने पूछा था- आप हाईकोर्ट जाने की बजाय सीधे सुप्रीम कोर्ट क्यों आए हैं?

संसद ने जैसे ही वक्फ (संशोधन) अधिनियम को पास किया वैसे ही इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए राजनीतिक दल, सांसद और मुस्लिम संगठन सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये। इन याचिकाओं पर तत्काल सुनवाई के लिए देश की सर्वोच्च अदालत में दलीलें पेश करने के लिए कई नामी गिरामी वकील भी भागे-भागे सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये। अदालत ने याचिकाओं को तत्काल सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करते हुए विचार करने पर सहमति व्यक्त की है। माना जा रहा है कि उच्चतम न्यायालय जल्द ही सुनवाई शुरू करने को लेकर कोई फैसला ले लेगा। सारे देश की नजरें इस बात पर रहेंगी कि संसद से पारित कानून की वैधता को चुनौती अदालत में टिक पाती है या नहीं लेकिन इससे पहले एक बड़ा गंभीर सवाल यह खड़ा होता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट इन याचिकाओं पर सुनवाई करेगा? समानता का सिद्धांत यह कहता है कि सुप्रीम कोर्ट को इन याचिकाओं पर सुनवाई नहीं करनी चाहिए। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि जिस तरह संसद से पारित वक्फ संशोधन अधिनियम को तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले नेताओं ने चुनौती दी है उसी तरह 1995 के वक्फ अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और भारत के पीआईएल मैन के रूप में विख्यात अश्विनी उपाध्याय ने चुनौती दी थी लेकिन उनकी बात सुप्रीम कोर्ट ने नहीं सुनी थी और उन्हें हाई कोर्ट जाने के लिए कह दिया था।

हम आपको बता दें कि अश्विनी उपाध्याय जब इस मुद्दे पर जनहित याचिका लेकर तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अदालत में गये थे तब CJI साहब ने पूछा था- आपकी कितनी जमीन पर वक्फ बोर्ड ने कब्जा किया है? CJI साहब ने पूछा था- आप हाईकोर्ट जाने की बजाय सीधे सुप्रीम कोर्ट क्यों आए हैं? इसलिए देखना होगा कि अब जो लोग संसद से पारित वक्फ संशोधन अधिनियम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गये हैं क्या वही सवाल उनसे भी पूछे जाते हैं। हम आपको बता दें कि वक्फ बोर्ड ने ना तो द्रमुक की जमीन कब्जाई है ना ही कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी और मोहम्मद जावेद की, ना ही एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी की ना ही आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान की इसलिए इन याचिकाकर्ताओं से यह सवाल तो पूछा जाना ही चाहिए कि इनकी कितनी जमीन पर वक्फ बोर्ड ने कब्जा किया है? इन याचिकाकर्ताओं से पूछा जाना चाहिए कि आप हाईकोर्ट जाने की बजाय सीधे सुप्रीम कोर्ट क्यों आये हैं? देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के सामने जो परीक्षा की घड़ी आई है उसमें उसका रुख क्या रहता है।

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हम आपको बता दें कि शीर्ष अदालत में अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली अब तक 10 से अधिक याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। तमिलनाडु में सत्तारुढ़ पार्टी द्रमुक और कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के अलावा ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) और जमीयत उलमा-ए-हिंद ने भी नए वक्फ कानून के खिलाफ याचिका दायर की है। प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने याचिकाओं को तत्काल सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करते हुए विचार करने पर सहमति व्यक्त की है।

उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पांच अप्रैल को वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2025 को मंजूरी दे दी, जिसे संसद ने दोनों सदनों में देर रात तक चली बहस के बाद पारित कर दिया था। राज्यसभा में 128 सदस्यों ने वक्फ विधेयक के पक्ष में और 95 सदस्यों ने विरोध में वोट दिया जबकि लोकसभा में 288 सदस्यों ने इसे समर्थन दिया जबकि 232 ने विरोध में मतदान किया था। इस विधेयक के पारित होने के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने छह अप्रैल को देर रात शीर्ष अदालत में याचिका दायर की थी। इसके प्रवक्ता एसक्यूआर इलियास ने एक बयान में कहा कि याचिका में संसद द्वारा पारित संशोधनों पर कड़ी आपत्ति जताई गई है, क्योंकि ये संशोधन ‘मनमाने, भेदभावपूर्ण और बहिष्कार पर आधारित’ हैं। बयान के मुताबिक, ये संशोधन न केवल भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि यह स्पष्ट रूप से सरकार की वक्फ के प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण करने की मंशा को भी उजागर करता है। इलियास ने कहा कि ये कानून मुस्लिम अल्पसंख्यकों को उनके धार्मिक बंदोबस्त के प्रबंधन से वंचित करता है। वहीं दूसरी ओर भाजपा ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम को चुनौती देने वाली विभिन्न जनहित याचिकाओं की आलोचना करते हुए उन्हें ‘वोट बैंक हित याचिका’ करार दिया है। 

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