Prajatantra: टिकट बंटवारे में गहलोत-वसुंधरा का कितना दिखा दम, पहली लड़ाई में किसकी हुई जीत?
ऐसा प्रतीत होता है कि राजस्थान में वसुंधरा राजे ने एक शानदार वापसी की है। सितंबर के अंत में जो वसुंधरा राजे हाशिए पर दिखाई दे रही थीं, उनकी स्थिति में नवंबर की शुरुआत में, भारी बदलाव आया और राजे की मजबूत वापसी अब राजस्थान में चुनावी लड़ाई के सबसे चर्चित पहलुओं में से एक है।
राजस्थान में टिकटों की उलझनें आखिरकार खत्म हो गया है। कांग्रेस में अशोक गहलोत और भाजपा में वसुंधरा राजे पर सबकी नजर है। सबकी नजर इस बात पर है कि आलाकमान की ओर से किसके करीबी को ज्यादा टिकट दिया गया है। यही अब हम आपको बताते हैं।
वसुंधरा राजे का कितना रहा दम
ऐसा प्रतीत होता है कि राजस्थान में वसुंधरा राजे ने एक शानदार वापसी की है। सितंबर के अंत में जो वसुंधरा राजे हाशिए पर दिखाई दे रही थीं, उनकी स्थिति में नवंबर की शुरुआत में, भारी बदलाव आया और राजे की मजबूत वापसी अब राजस्थान में चुनावी लड़ाई के सबसे चर्चित पहलुओं में से एक है। करिश्मा, जन अपील और जमीनी स्तर पर जुड़ाव के मामले में भाजपा के सबसे बड़े नेता होने के बावजूद, राजे को 2018 का चुनाव हारने के बाद से ही भगवा ब्रिगेड द्वारा किनारे कर दिया गया था। लगातार नजरअंदाज की गईं राजे राजनीतिक तौर पर गुमनामी के कगार पर नजर आ गई थीं। जब भाजपा उम्मीदवारों की पहली सूची सामने आई और उसमें उनके पसंदीदा उम्मीदवारों में से किसी को भी शामिल नहीं किया गया, तो इसने एक बड़ी चर्चा शुरू कर दी कि राजे को निर्णायक रूप से दरकिनार किया जा रहा है। सात सांसदों को मैदान में उतारने और कई राजे वफादारों को टिकट देने से इनकार कर दिया गया, इससे यह धारणा बन गई कि राजे को अंततः पार्टी द्वारा किनारे कर दिया गया है।
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लेकिन भाजपा की दूसरी सूची में उनके लगभग 30 वफादारों को जगह दी गई और वसुंधरा को उनकी पारंपरिक सीट झालरापाटन आवंटित की गई। बाद की सूचियों में भी, बड़ी संख्या में उनके वफादारों को टिकट मिला, जिसके बारे में कहा जाता है कि राजस्थान में भाजपा के 200 उम्मीदवारों में से पांच दर्जन से अधिक राजे खेमे से हैं। हालांकि, पूर्व मंत्री युनूस खान, अशोक परनामी, राजपाल सिंह शेखावत और अशोक लाहोटी को बीजेपी ने टिकट इस बार नहीं दिया है। ये सभी वसुंधरा राजे के राइट हैंड माने जाते रहे हैं। यह वसुंधरा राजे के लिए सियासी तौर पर यह बड़ा झटका है। पार्टी ने वसुंधरा राजे को उनकी परंपरागत सीट से प्रत्याशी बनाया है, लेकिन मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया है। इसको लेकर भी चर्चा जारी है।
अलोक गहलोत की बात
बात अगर अशोक गहलोत की करें तो वह भी अपने करीबियों को टिकट दिलवाने में उतरे कामयाब नहीं हुए। भले ही मंत्री शांति धारीवाल को तमाम विरोधियों के बावजूद टिकट मिल गया है लेकिन अशोक गहलोत के करीबी महेश जोशी और राजेंद्र राठौड़ जैसे मजबूत नेताओं को उम्मीदवार पार्टी ने नहीं बनाया है। यह दोनों वही नेता है जिन्होंने गहलोत की कुर्सी बचाने के लिए कांग्रेस हाई कमान के आदेशों को चुनौती दी थी। इसके अलावा गहलोत के विशेषाधिकारी लोकेश शर्मा को भी टिकट नहीं दिया गया है जबकि लालचंद कटारिया के चुनाव लड़ने से इनकार के बाद पायलट के करीबी अभिषेक चौधरी चुनावी मैदान में है। अशोक तंवर को भी गहलोत ने टिकट देने की बात कही थी लेकिन पार्टी ने उनकी इस बात को नहीं माना है। साथ ही साथ गहलोत के करीबी राजीव अरोड़ा भी टिकट के दावेदार थे इसको भी पार्टी ने स्वीकार नहीं किया है। सूर्यकांता व्यास बीजेपी से कांग्रेस में आए और गहलोत ने उन्हें टिकट देने की बात कही थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कांग्रेस ने कहीं ना कहीं पायलट और उनके करीबी नेताओं को भी महत्व दिया है। जब वेद प्रकाश सोलंकी को टिकट दिया गया तो उससे साफ हो गया कि पायलट को भी अहमियत कांग्रेस की ओर से दी जा रही है।
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राजनीतिक दलों को चुनावी मौसम में सभी को साथ लेकर चलने की आवश्यकता होती है। खासकर के पार्टियां यह भी देखतीं हैं कि उनके गुड बुक में कौन से नेता है और कौन जरूरत के समय उनके साथ खड़ा रह सकता है। यही कारण है कि पार्टी से ज्यादा किसी एक नेता को प्रधानता देने वाले उम्मीदवारों को कई बार बेटिकट रहना पड़ जाता है। यही तो प्रजातंत्र है।
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