शिया-सुन्नी विवाद, इसका इतिहास और 1500 सालों से चले आ रहे खूनी संघर्ष की पूरी कहानी
शिया-सुन्नी के बीच पंथों का बंटवारा पैगंबर मोहम्मद के निधन के बाद हुआ। मोहम्मद साहब के बाद उनका उत्तराधिकारी कौन होगा? इसको लेकर दोनों पंथों में मतभेद हैं। जिस शरिया कानून पर इस्लाम चलता है वो भी इन दोनों पंथों में कुछ मुद्दों में अलग-अलग है।
आज हम मुसलमानों की बात करेंगे। ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर रसूलुल्लाह यानी अल्लाह के अलावा कोई दूसरा भगवान नहीं है। मोहम्मद साहब उसके सच्चे रसूल हैं। इस्लाम को मानने वाले दुनियाभर के मुसलमान खुद को इस्लाम के अनुयायी कहते हैं। इस्लाम की बात करेंगे। जिसका शाब्दिक अर्थ है अल्लाह को समर्पण। इस तरह से मुसलमान वो हैं जिसने खुद को अल्लाह को समर्पित कर दिया। यानि इस्लाम धर्म के नियमों पर चलने लगा। लेकिन इस्लामी कानून की अपनी समझ और इसके इतिहास के मुताबिक इस्लाम के मानने वाले मुसलमान कई पंथों में बंटे हुए हैं। दुनियाभर के मुस्लिमों को अगर मोटे तौर पर देखें तो ये दो पंथों या फिरकों शिया और सुन्नी में बंटे हैं। इनके अलावा छोटे-छोटे दूसरे भी फिरके हैं। हालांकि शिया और सुन्नी भी कई फ़िरक़ों या पंथों में बंटे हुए हैं। अल्लाह एक हैं और मोहम्मद उसके आखिरी दूत हैं। इस बात पर शिया-सुन्नी दोनों सहमत हैं। लेकिन अगर दोनों पंथ इस बात पर सहमत हैं तो विवाद क्या है? क्या कारण है कि सऊदी अरब और ईरान एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं। क्या कारण है कि यमन के अंदर हुती और हदी आपस में लड़ते रहते हैं। ईराक और सीरिया जहां आईएसआईएस है वहां शिया-सुन्नी का विवाद चलता रहता है। कुल मिलाकर देखें तो आखिर क्या वजह है कि इस्लाम को मानने वाले ही आपस में लड़ रहे हैं। इसके लिए हमने रिसर्च की है। अखबारों और रिपोर्ट्स को खंगाना है। पुरानी जानकारियों को जुटाकर एक तथ्यात्मक विश्लेषण तैयार किया है।
सबसे पहले दो लाइनों में बताते हैं कि शिया सुन्नी होते कौन हैं-
सुन्नी- सुन्नत का मतलब उस तौर तरीक़े को अपनाना है जिस पर पैग़म्बर मोहम्मद (570-632 ईसवी) ने ख़ुद अमल किया हो और इसी हिसाब से वे सुन्नी कहलाते हैं। दुनिया के लगभग 80-85 प्रतिशत मुसलमान सुन्नी हैं जबकि 15 से 20 प्रतिशत के बीच शिया हैं।
शिया- शिया मुसलमानों की धार्मिक आस्था और इस्लामिक क़ानून सुन्नियों से काफ़ी अलग हैं। वह पैग़म्बर मोहम्मद के बाद ख़लीफ़ा नहीं बल्कि इमाम नियुक्त किए जाने के समर्थक हैं। उनका मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके असल उत्तारधिकारी उनके दामाद हज़रत अली थे।
इन दोनो पंथों का बंटवारा पैगंबर मोहम्मद के निधन के बाद हुआ। मोहम्मद साहब के बाद उनका उत्तराधिकारी कौन होगा? इसको लेकर दोनों पंथों में मतभेद हैं। जिस शरिया कानून पर इस्लाम चलता है वो भी इन दोनों पंथों में कुछ मुद्दों में अलग-अलग है। पैगंबर मोहम्मद का जन्म 570ईं के आसपास माना जाता है। उनकी मृत्यु 632 ई के आसपास की मानी जाती है। 40 साल की उम्र में उन्हें अल्लाह का आखिरी दूत घोषित किया गया।
इसे भी पढ़ें: क्या है शरद पूर्णिमा के दिन अमृत बरसने का मतलब? जानें माँ लक्ष्मी को प्रसन्न करने के उपाय
शिया-सुन्नी विवाद का संपूर्ण घटनाक्रम
इस्सलाम की शुरूआत और पैगंबर की गदीर की घोषणा
601 ई में पैगंबर मोहम्मद ने इस्लाम धर्म की शुरुआत की। 632 ई में पैगंबर मोहम्मद अपनी जिंदगी का आखिरी हज पूरा करके मक्का से मदीना जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने सभी हाजियों को गदीर के मैदान में रूकने का आदेश दिया। ये जगह जोहफा के पास थी, जहां से कई रास्ते निकलते थे। कहा जाता है कि इसी जगह पर पैगंबर साहब को अल्लाह ने संदेश भेजा। यह संदेश कुरआन में भी मौजूद है, कुरआन के पांचवे सूरह (सूरह मायदा) की 67 वीं आयत में उस संदेश के बारे में बताया गया 'कि 'ऐ रसूल उस संदेश को पहुंचा दीजिये जो आपके परवरदिगार (अल्लाह) की तरफ से आप पर नाज़िल (बताया जा) हो चुका है। अगर आपने यह संदेश नहीं पहुंचाया तो गोया (मतलब) आपने रिसालत (इस्लाम का प्रचार प्रसार) का कोई काम ही नहीं अंजाम दिया। पैगंबर मोहम्मद साहब ने सभी हाजियों को ज़ोहफा से 3 किलोमीटर दूर गदीर नामक मैदान पर रुकने के आदेश दे दिए। मोहम्मद साहब ने उन लोगों को भी वापिस बुलवाया जो लोग आगे जा चुके थे और उन लोगों का भी इंतज़ार किया जो लोग पीछे रह गए थे। तपती गर्मी और चढ़ती धूप के आलम में भी लोग मोहम्मद साहब का आदेश पाकर ठहरे रहे। इस दौरान सीढ़ीनुमा ऊंचा मंच भी बनाया गया जिसे मिम्बर कहा जाता है। हदीसों के मुताबिक इसी मंच यानी कि मिम्बर से पैगंबर मोहम्मद साहब ने अपने दामाद हज़रत अली को गोद में उठाया और कहा कि 'जिस जिसका मैं मौला हूं उस उस के ये अली मौला हैं। यहां तक दोनों ही समुदाय एकमत हैं।
क्यों दो धड़ों में बंट गए मुसलमान
उस वक्त तक शिया और सुन्नी नाम के शब्दों की ही उपज नहीं हुई थी। यानी अभी तक मुसलमान धड़ों में नहीं बंटा था। पैगंबर मोहम्मद साहब अपने शहर पहुंचे और कुछ ही महीनों के बाद उनका निधन हो गया। मोहम्मद साहब के निधन के बाद मोहम्मद साहब की गद्दी पर उनका कौन वारिस बैठेगा इसी को लेकर दोनों ही समुदाय अलग-थलग पड़ गए। एक पक्ष का मानना था कि मोहम्मद साहब ने किसी को अपना वारिस नहीं बनाया है। इसलिए योग्य शख्स को चुना जाए। दूसरे पक्ष का मानना था कि पैगंबर मोहम्मद ने गदीर के मैदान में जो घोषणा की थी वो वारिस को लेकर ही थी। एक धड़े ने पैगंबर मोहम्मद के ससुर अबु बक्र को अपना नेता माना। जबकि दूसरे धड़े ने पैगंबर मोहम्मद के दामाद हजरत अली को अपना नेता माना। पैगंबर मोहम्मद के कथनों और कार्यों यानी सुन्ना में विश्वास रखने वाले सुन्नी कहलाए। हजरत अली को पैगंबर मोहम्मद का वारिस मानने वाले शियाने अली यानी शिया कहलाए।
अज़ान से लेकर नमाज़ तक के तौर तरीके अलग अलग
सुन्नी समुदाय ने हज़रत अबु बक्र के बाद हज़रत उमर, हज़रत उमर के बाद हज़रत उस्मान और हज़रत उस्मान के बाद हज़रत अली को अपना खलीफा चुना। जबकि शिया मुसलमानों ने खलीफा के बजाय हज़रत अली को अपना इमाम माना और हज़रत अली के बाद ग्याहर अन्य इमामों को मोहम्मद साहब का उत्तराधिकारी माना। खलीफा और इमाम का अर्थ लगभग एक जैसा ही है, इन दोनों का ही अर्थ उत्ताराधिकारी का है। यानी दोनों ही समुदायों के बीच असल लड़ाई मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी के पद को लेकर है। हालांकि दोनों ही समुदायों में काफी सारी भिन्नताएं हैं जो दोनों को ही एक दूसरे से अलग करती है। इन दोनों समुदाय के लोगों की अज़ान से लेकर नमाज़ तक के तौर तरीके अलग अलग हैं।
इसे भी पढ़ें: जलियांवाला बाग नरसंहार और उधम सिंह की प्रतिज्ञा, ड्वायर पर दो गोलियां दाग दिया संदेश- अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते
वक्त के साथ और गहरी होती गई शिया-सुन्नी के बीच की खाई
अली की लीडरशिप को पैगंबर की पत्नी और अबु बकर की बेटी आयशा ने चुनौती दी। 656 ई. में इराक के बसरा में अली और आयशा के बीच युद्ध हुआ। आयशा उस युद्ध में हार गई। शिया-सुन्नी के बीच की खाई और भी गहरी हो गई। इसके बाद दमिश्क के मुस्लिम गवर्नर मुआविया ने भी अली के खिलाफ जंग छेड़ दी, जिसने दोनों के बीच दूरियां और भी अधिक बढ़ा दीं। 661 में हजरत अली की हत्या के बाद खलीफा का पद उम्याद वंश के हाथों में चला गया। 680 ई में हजरत अली के बेटे हुसैन अपने 72 साथियों के साथ मक्का से कर्बला गए। इसके बाद अली और पैगंबर मोहम्मद की बेटी फातिमा के बेटे यानी पैगंबर के नवासे हुसैन ने इराक के कुफा में मुआविया के बेटे यजीद के खिलाफ जंग छेड़ दी। शिया मुस्लिम इसे कर्बला की जंग कहते हैं, जो धार्मिक रूप से बहुत बड़ी अहमियत रखता है। इस जंग में हुसैन की हत्या कर दी गई और उनकी सेना हार गई। शिया समुदाय के लिए हुसैन एक शहीद बन गए। कर्बला की जंग के बाद सुन्नी खलीफाओं को डर सताने लगा कि शिया फिर से बगावत कर सकते हैं। इसी डर की वजह से सुन्नी खलीफाओं ने शियाओं पर दमन बढ़ा दिया। यहीं से शिया और सुन्नी के बीच दुरियां बढ़ने लगी।
शिया बहुल देश | सुन्नी बहुल देश |
इराक | सऊदी अरब |
ईरान | यूएई |
अजरबैजान | इंडोनेशिया |
बहरीन | पाकिस्तान |
- | भारत समेत 40 देश |
दोनों के बीच शुरू हुई वर्चस्व की जंग
शिया और सुन्नी मुस्लिमों ने अलग-अलग विचारधारा अपना ली। सुन्नी मुस्लिमों ने सेक्युलर लीडरशिप चुनी। वहीं दूसरी ओर शिया मुस्लिम इमामों को अपना धार्मिक नेता मानते हैं, जिन्हें वह पैगंबर मोहम्मद के परिवार द्वारा नियुक्त किया हुआ मानते हैं। 1501 में पर्शिया (अब ईरान) में सफाविद वंश स्थापित हुआ। सफाविदों ने शिया इस्लाम को स्टेट रिलिजन घोषित कर दिया। पहली बार शिया मुस्लिम भी सत्ता में आए। सुन्नी खलीफाओं के ओटोमन साम्राज्य (केंद्र तुर्की) के साथ सफाविदों (केंद्र ईरान) की करीब 200 साल तक जंग चलती रही। 17वीं सदी तक इन वंशों का प्रभाव फीका पड़ने लगा, लेकिन इसका असर आज के भौगोलिक विस्तार में देखा जा सकता है। 1941 में शिया बहुल ईरान में शाह रजा पहलवी गद्दी पर बैठे। वो शिया इस्लाम को मानते थे, लेकिन उन पर अमेरिका का पिट्ठू होने के आरोप लगे। शियाओं के धार्मिक नेता आयोतोल्लाह रुहोल्लाह खोमेनी ने भी उनका विरोध किया, जिसके बाद खोमेनी को निर्वासित कर दिया गया।1978 में करीब 20 लाख लोग शाह के खिलाफ प्रदर्शन करने शाहयाद चौक में जमा हुए। इसे ही इस्लामिक रिवॉल्यूशन कहा जाता है। 1980 पाकिस्तान में लश्कर-ए-जंगवी और सिपाह-ए-सहाबा जैसे कट्टर सुन्नी समूह बने। इन संगठनों ने अगले 4 दशक में हजारों शियाओं को मौत के घाट उतार दिया। इसी साल इराक ने ईरान के खिलाफ जंग शुरू कर दी। 8 साल चली इस जंग में दोनों तरफ के 10 लाख से ज्यादा लोग मारे गए। 1991 में इराक के सुन्नी शासक सद्दाम हुसैन के खिलाफ शिया मुस्लिमों ने बगावत कर दी। सद्दाम की सेना ने 10 हजार से ज्यादा शियाओं को मार दिया। 1997-98 के दौरान सुन्नी इस्लाम को मानने वाले तालिबान ने मजार-ए-शरीफ और बामियान में हजारों शियाओं को मार दिया। ईरान के 8 डिप्लोमेट का भी कत्ल कर दिया जिसके बाद दोनों देशों के बीच जंग जैसे हाखात बन गए थे। 2020 में पाकिस्तान में शियाओं पर अचानक हमले बढ़ गए। 2021 में अफगानिस्तान पर एक बार फिर कट्टर सुन्नी विचारधारा के लोग हावी हो गए। स्कूल के बाहर विस्फोट में 85 लोगों की मौत हो गई।
-अभिनय आकाश
अन्य न्यूज़