1949 से 2020: विस्तारवाद नीति के तहत चीन कुछ इस तरह से अपने भू-भाग बढ़ाता चला गया
ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत के साथ चीन की कोई सीमा नहीं लगती थी। 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता संभाली और उसके बाद से अपने विस्तारवाद की पालिसी शुरू की। फिर तिब्बत के साथ विवाद शुरू हुआ। ऐतिहासिक रूप से चीन की सीमा भारत के साथ नहीं लगती थी।
बीते दिनों एक तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई। जिस तस्वीर में भगवान राम द्वारा चीनी ड्रैगन का वध करते दिखाया गया है। वहीं पोस्टर पर संदेश में लिखा है, 'हम जीतते हैं हम मारते हैं। चीन के कट्टर दुश्मन ताइवान में वहां की एक न्यूज वेबसाइट ने फोटो ऑफ द डे में ऐसी तस्वीर को चुना है। लेकिन इस तस्वीर ने भारत में भी खूब सुर्खियां बटोरी। अब इस तस्वीर के निहतार्थ को वर्तमान के प्रसंग से जोड़ कर देखेंगे तो ये तस्वीर बताता है कि अब हमें ड्रैगन यानी चीन से लड़ना है। जो हमारे संयम, सहनशीलता और विनम्रता की परीक्षा ले रहा है।
करे ही विनय राम सहि संग लक्ष्मण करत विलंब, सिन्धु प्रण प्रति क्षण, बीते समय न होत प्रतीक्षा, देंगे राम अब सिन्धु को शिक्षा।
प्रभु राम जिन्हें विनम्रता और सदाचारी कहा जाता है उन्हें भी एक बार क्रोध आ गया था। रामचरित मानस के अनुसार लंका पर चढ़ाई के लिए सेतु निर्माण आवश्यक था। इसके लिए भगवान श्री राम अपने भ्राता लक्ष्मण के साथ तीन दिन तक समुद्र से रास्ता देने की प्रार्थना करते रहे। लेकिन समुद्र नहीं माना। इस संबंध में तुलसीदास जी ने लिखा है-
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
तब भगवान श्री राम ने क्रोध में कहा था कि आप लोककल्याण के मार्ग को भूलकर, अत्याचार के मार्ग पर जा चुके हैं। इसलिए आपका विनाश आवश्यक है। उनके ऐसा निश्चय करते ही समुद्र देवता थर-थर कांपने लगते हैं तथा प्रभु श्री राम से शांत होने की प्रार्थना करते हैं। कहा जाता है कि देवासुर संग्राम के समय असुर ने छिपने के लिए समुद्र का सहारा लिया था जिस वजह से कुछ असुरी प्रवर्ति और गुण उसमें आ गए थे। ये तो सभी को पता है कि आतंक की पनाहगाह पाकिस्तान जहां दहशतगर्दों को न केवल पनाह मिलती है बल्कि उनका पालन-पोषण भी होता है। चीन और पाकिस्तान की दोस्ती जगजाहिर है। ऐसे में हमेशा दगाबाजी और पीठ में खंजर घोपने वाले चीन में ऐसी असुरी शक्ति के गुण कहां से आएं ये आप भी समझ ही सकते हैं। असुर स्वाभाव का प्राणी प्रेम और निवेदन की भाषा नहीं समझता हैं बल्कि बल और क्रोध की भाषा ही समझते हैं।
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भारत ही ऐसा देश है जिसने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। भारत ने अपने सीमा के मर्यादी की लक्ष्मण रेखा का हमेशा सम्मान किया। भारत की संस्कृति और विरासत में सदियों से ऐसा रहा है कि कोई भी देश या उसकी विशालकाय सेना बल में हमारे बराबर हो या हमसे अधिक, हम हिन्दुस्तानियों को अगर कोई युद्ध में ललकारे तो हम सुख पूर्वक उससे लड़ते हैं। लद्दाख में भारतीय और चीनी सैनिकों के साथ हुई झड़प के बाद दोनों देशों में तनाव चरम पर है। सीमा पर गतिरोध को लेकर जारी सैन्य और कूटनीतिक बैठक का कोई समाधान निकलता दिखाई नहीं दे रहा है। वहीं, बढ़ते तनाव को देखते हुए दोनों देशों की सेनाओं ने एलएसी के इलाके में अपनी उपस्थिति को और मजबूत कर दिया है। वर्तमान के भारत चीन विवाद को समझने के लिए आपको इतिहास में जाना जरूरी है। वो इतिहास जो चीन की आजादी से पहले का है। आपको ये जानकर हैरानी होगी की चीन का भारत के साथ 1949 से पहले तक सीमा का कोई विवाद ही नहीं था। यानी की ये विवाद जबरदस्ती बनाया गया है और चीनी शासन द्वारा रचा गया है।
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ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत के साथ चीन की कोई सीमा नहीं लगती थी। 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता संभाली और उसके बाद से अपने विस्तारवाद की पालिसी शुरू की। फिर तिब्बत के साथ विवाद शुरू हुआ। ऐतिहासिक रूप से चीन की सीमा भारत के साथ नहीं लगती थी। भारत की सीमा अधिकांशतः तिब्बत और कुछ हद तक मध्य एशिया के पूर्वी तुर्किस्तान में साथ लगती थी। 1949 में जब कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली तो पीले रंग के मैप में जो नजर आ रहा है वही उस वक्त का चीन था। कम्युनिस्ट चीनी शासन ने सोशलिस्टों को ताईवान खदेड़ दिया। उन्होंने तिब्बत और झिंजियांग पर भी अपना कब्जा स्थापित किया। जिसके बाद अपनी विस्तारवाद की नीति को बढ़ाते हुए चीन जब भारत से लगती सीमावर्ती क्षेत्रों के पास पहुंचा उसके बाद ही ये विवाद शुरू हुआ।
चीन में हेही और तेंगचोंग नाम की 2 जगहें हैं। यदि आप इन दोनों के बीच में एक काल्पनिक रेखा खींचते हैं तो यह आज के चीन को 2 हिस्सों में विभाजित करती है। पूर्वी भाग के हिस्से में चीन की 94% आबादी है! वह ऐतिहासिक चीन था। जबकि पश्चिमी भाग को चीन ने अपने जमीन विस्तार नीति के तहत कब्जा किया है।
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इस मैप में चीन के भारत में क्षेत्र दावे को प्रदर्शित करता है
चीन अपना दावा अक्साई चीन, लद्दाख के भाग, उत्तराखंड के कुछ भाग, शक्सगम घाटी और पूरे अरूणाचल प्रदेश पर करता है। बौद्ध बहुसंख्यक आबादी वाली तिब्बत पर कम्युनिस्ट चीन का कब्जा करना 20वीं सदीं की बड़ी त्रासदी में से एक है। तिब्बत 1000 से भी ज्यादा वर्षों तक भारत का सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक पड़ोसी था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि तिब्बत एशिया की नौ प्रमुख नदियों का उद्गम क्षेत्र है और चीन ने लगभग सभी समुद्री भाग को अपने कब्जे में ले लिया।
भारत चीन बॉर्डर की कुल लंबाई 3488 किमी है। ये सीमाएं जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से होकर गुज़रती है। जम्मू-कश्मीर में 1597, अरुणाचल से 1126 किमी, सिक्किम से 200 किमी, उत्तराखंड से 345 किमी और हिमाचल प्रदेश से 200 किमी की सीमा जुड़ती है।
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इन चार जगहों पर है भारत-चीन का विवाद
पैंगोंग झील
इस झील का पूरा नाम पैंगोंगे त्सो है जो 134 किलोमीटर लंबी है। यह झील हिमालय में करीब 14,000 फुट से ज्यादा की ऊंचाई पर स्थित है। इस झील का 45 किलोमीटर क्षेत्र भारत में पड़ता है, जबकि 90 किलोमीटर क्षेत्र चीन में आता है। कहा जाता है कि पश्चिमी सेक्टर में चीन की तरफ से अतिक्रमण के एक तिहाई मामले इसी पैंगोंग त्सो झील के पास होते हैं। इसकी वजह ये है कि इस क्षेत्र में दोनों देशों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर सहमति नहीं है। ये झील चुशूल घाटी के रास्ते में आती है। चीन इस रास्ते का इस्तेमाल भारत-अधिकृत क्षेत्र में हमले के लिए कर सकता है। साल 1962 के युद्ध के दौरान यही वो जगह थी जहां से चीन ने अपना मुख्य आक्रमण शुरू किया था।
गालवन घाटी
पश्चिमी हिमालय की गालवान नदी घाटी को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद है। गालवन घाटी विवादित क्षेत्र अक्साई चीन में आता है। गालवन घाटी लद्दाख़ और अक्साई चीन के बीच भारत-चीन सीमा के नज़दीक स्थित है। यहां पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) अक्साई चीन को भारत से अलग करती है।
डोकलाम
2017 में भी डोकलाम में चीनी सेना कई किलो मीटर तक भारत में प्रवेश कर गई थी। उस समय 73 दिनों तक तनाव रहने के बाद दोनों देश तनाव कम करने के लिए राजी हो गए थे। चीनी सेना ने विवादित क्षेत्र में निर्माण कार्य तो रोक दिया था, लेकिन वह डोकलाम पठार पर बनी रही थी। डोकलाम चीन और भूटान के बीच का विवाद है, लेकिन सिक्किम बॉर्डर के नज़दीक ही पड़ता है। ये इलाक़ा सामरिक रूप से भी अहम है।
तवांग
अरुणाचल प्रदेश में स्थित तवांग भारत के लिए सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। चीन तवांग को तिब्बत का हिस्सा बताता है और कहता है कि तवांग और तिब्बत में काफ़ी ज़्यादा सांस्कृतिक समानता है। 1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान चीन ने तवांग पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था। लेकिन अरुणाचल को लेकर भौगोलिक स्थिति पूरी तरह से भारत के पक्ष में जिसके कारण चीन युद्ध जीतकर भी तवांग से पीछे हट गया था।
नाथूला
नाथूला हिमालय का एक पहाड़ी दर्रा है जो भारत के सिक्किम राज्य और दक्षिण तिब्बत में चुम्बी घाटी को जोड़ता है। यह 14 हजार 200 फीट की ऊंचाई पर है। भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध के बाद इसे बंद कर दिया गया था। इसे वापस जूलाई 5, 2006 को व्यापार के लिए खोल दिया गया है।
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अहम है गलवान घाटी
पश्चिमी हिमालय की गालवान नदी घाटी को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद है। गालवन घाटी विवादित क्षेत्र अक्साई चीन में आता है। गालवन घाटी लद्दाख़ और अक्साई चीन के बीच भारत-चीन सीमा के नज़दीक स्थित है। यहां पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) अक्साई चीन को भारत से अलग करती है। 1962 की जंग के दौरान भी गालवन नदी का यह क्षेत्र जंग का प्रमुख केंद्र रहा था। इसकी शुरुआत तो 1958 से हो गई थी जब अक्साई चीन में चीन ने सड़क बनाई थी जो कराकोरम रोड से जुड़ती है और पाकिस्तान की तरफ़ भी जाती है। जब सड़क बन रही थी तब भारत का ध्यान उस पर नहीं गया लेकिन सड़क बनने के बाद भारत के तत्ताकीलन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उस पर आपत्ति जताई थी। उस वक़्त से ही भारत कह रहा है कि अक्साई चीन को चीन ने हड़प लिया है।
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चीन-वियतनाम युद्ध
वियतनाम चीन के मुकाबले बहुत छोटा देश है। चीन के साथ युद्ध के समय वियतनाम के पास सैनिकों और हथियारों की बेहद कमी थी। लेकिन 16 दिनों तक चले युद्ध में चीन को भारी नुकसान उठाना पड़ा और उसके करीब 30 हजार सैनिक मारे गए। हालांकि चीन ने हमेशा ये दावा किया कि उसके सिर्फ 6 हजार सैनिक ही मारे गए थे। युद्ध में वियतनाम के भी करीब 20 हजार सैनिकों की जान गई थी। विशेषज्ञ बताते हैं कि इस युद्ध में चीन को 50 प्रतिशत सफलता भी नहीं मिल पाई थी। चीन को न सिर्फ वियतनाम से वापस लौटना पड़ा बल्कि वो कंबोडिया में तैनात वियतनाम की सेना को भी पीछे धकेलने में असफल रहा था।
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वाजपेयी ने चीन को किया सिक्किम को भारत का हिस्सा मानने पर राजी
भारत-चीन के वर्तमान संदर्भ में एक व्यक्ति को स्मरण किया जाना जरूरी है। जिसकी अपनी अलग नीति थी और जिसके दम पर वह भारत-चीन संबंधों और सीमा संबंधी मसले का हल तलाशने की बखूबी कोशिश भी अपने दौर में की थी। हम बात कर रहे हैं अटल बिहारी वाजपेयी की। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे कि दोस्त बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोसी देश नहीं। वह हमेशा भारत के पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंधों की वकालत किया करते थे लेकिन सुरक्षा की कीमत पर उन्होंने किसी तरह का समझौता नहीं किया। अटल बिहारी वाजपेयी 1979 उन्नीस सौ उन्नासी में चीन के बीजिंग का दौरा करने वाले पहले भारतीय विदेश मंत्री थे। यह उस समय का उनका एक बेहद साहसिक फैसला था, जिसके बाद से ही भारत और चीन के बीच रिश्ते सुधरने की कवायद शुरू हुई। (1979) उन्नीस सौ उन्नासी में चीन ने सीमा विवाद को लेकर वियतनाम पर हमला कर दिया था। वह वियतनाम को सबक सिखाना चाहता था लेकिन खुद उसकी ही फजीहत हो गई थी। इस युद्ध में भारत ने वियतनाम का का खुलकर पक्ष लिया था। अटल बिहारी वाजपेयी उस समय विदेश मंत्री थे। फरवरी 1979 में चीन ने वियतनाम पर हमला किया तो उस समय वाजपेयी चीन की यात्रा पर थे। भारत ने चीन के हमले का विरोध किया और वाजपेयी चीन की यात्रा बीच में छोड़ कर भारत लौट आए थे। परमाणु परीक्षण के पांच साल बाद 2003 में वाजपेयी ने चीन का दौरा किया। इस दौरान वह बीजिंग गए तो शक और आशंकाओं से घिरे चीनी नेताओं के सामने उन्होंने सीमा संबंधी सवालों पर विशेष प्रतिनिधियों को बहाल करने का नया विचार पेश किया था। इसी दौरान वाजपेयी ने तिब्बत को चीन का क्षेत्र माना, लेकिन बदले में वह चीन से सिक्कम को भारत का सूबा स्वीकार कराने ही नहीं बल्कि इसकी मान्यता दिलाने में भी सफल रहे। बता दें कि अटल बिहारी वाजपेयी ने 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय नेहरू सरकार की नीतियों की धज्जियां उड़ा दी थीं। वाजपेयी उस समय राज्यसभा के सदस्य हुआ करते थे।
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आजाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री का ऐतिहासिक बयान का भी जिक्र करना जरूरी है। राज्य सभा में (10 सितम्बर 1959) जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “इससे बढ़कर मूर्खता नहीं होगी कि दो महान राष्ट्र (भारत और चीन) चंद पहाड़ी शिखरों पर कब्जे के खातिर युद्ध करें|” तो समझाना होगा कि इन्हीं बंजर पथरीली इलाके में लद्दाख से तिब्बत को शिनजियांग से जोडती हुई सड़क का चीन ने निर्माण किया है| यह भारत भूमि पर है | तभी निकट में ही लद्दाख के स्पंगगुर दर्रे में भारतीय पुलिस टुकड़ी को चीन की सेना ने मार डाला था| यह वास्तविक नियंत्रण रेखा के समीप है। इस पर नेहरू का बयान लोकसभा में (28 अगस्त 1959) आया था। प्रधान मंत्री ने स्वीकारा कि चीन के प्रधान मंत्री झाऊ एनलाई ने वादाफरामोशी की थी| सीमा के बारे में कहा कुछ, किया कुछ और। नेहरु की व्यथा थी कि: “अब झाऊ मेरे भाई नहीं रहे।” तब नारा गूंजता था “हिंदी-चीनी भाई-भाई।”
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लगभग 60 साल बाद, एक बार फिर से आक्रामक रणनीति तैनात की गई है। बात अगर गुजरे महीने की हो तो चीनी सैनिकों ने सीमा का उल्लंघन किया और भारतीय क्षेत्र में प्रवेश किया। झड़प हुई जिसके बाद दोनों ही देशों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हुई। इतिहास गवाह है चीनी सेना तबतक हावी रहती है जबतक आप बचाव की मुद्रा में रहते हैं. चीनियों की बड़ी सेना को धूल में मिटाने का इतिहास हमारे पास है. इसलिए चीन की बड़ी सेना से घबराने की जरूरत नही है. पहाड़ों पर लड़ने की क्षमता हमारी सबसे बड़ी ताकत है।
- अभिनय आकाश
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