ग्रैंड ओल्ड पार्टी का तंग होता हाथ, कांग्रेस के उभरने और बिखरने की पूरी कहानी
इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें यह दर्शाया या बताया गया कि वक्त के साथ-साथ चाल, चरित्र और चेहरा न बदला जाए तो फिर अस्तित्व पर उठने वाले सवालों के जवाब तलाशना मुश्किल हो जाता है।
आज से करीब सात-आठ दशक पहले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एक किताब लिखी थी। 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया', हिंदी में जिसे भारत एक खोज के नाम से जाना जाता है। लेकिन आजादी के 72 साल बाद देश के मानचित्र पर ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस एक खोज बनकर रह गई है। कांग्रेस ने हाल ही में अपना 135वां स्थापना दिवस मनाया।
मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज में साल 1885 में कांग्रेस की बुनियाद पड़ी थी। ब्रिटिश सिविल सेवक एओ ह्यूम ने यह मीटिंग बुलाई। मीटिंग में पहले कांग्रेस अध्यक्ष बने उमेश चंद्र बनर्जी।
14-15 अगस्त 1947 की आधी रात को दुनिया सो रही थी। तब हिन्दुस्तान अपनी नियति से मिलन कर रहा था। कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई का दूसरा नाम बन चुकी थी। उस कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे पंडित जवाहर लाल नेहरू। आज़ादी के उस दौर के पांच साल के भीतर कांग्रेस का सत्ता से साक्षात्कार हुआ। पहली बार दुनिया का लोकतंत्र बना और लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव हुए और नेहरू की रहनुमाई में कांग्रेस जीती। लेकिन नियति से हाथ मिलाने के 30 साल बाद सत्ता कांग्रेस के हाथ से छिटक गई। पहली बार वो मौका आया जब न सिर्फ कांग्रेस हारी बल्कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद भी रायबरेली से चुनाव हार गई। सन 1977 की वो लड़ाई आवाम की सियासी लड़ाई का पहला सबूत था। एक वक्त था कि कांग्रेस का टिकट किसी भी उम्मीदवार के लिए जीत की गारंटी हुआ करता था। कांग्रेस को सत्ता का स्वाभाविक दावेदार माना जाता था। लेकिन 1977 में टूटा मिथक बाद में कई बार टूटा। ऐसी घड़ी भी आई की कांग्रेस टूट का शिकार हुई और समय ने ऐसा खेल दिखाया कि सबसे प्रचंड बहुमत पाने वाले राजीव गांधी पांच साल में सत्ता से बेदखल हो गए।
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ये भी सही है कि 10 साल सत्ता में रहने पर सत्ता विरोधी लहर बन जाती है। ये भी सही है कि तब लोगों की उम्मीदों का बोझ सत्ता के तमाम दावे और वादे उठा नहीं पाते। 16वें लोकसभा के नतीजे 16 मई को आए। कांग्रेस ने अपनी हार का सबसे बुरा दिन देखा।
कांग्रेस ने तो सत्ता की लंबी-लंबी पारियों का दौर देखा फिर ऐसा क्या हुआ कि 10 साल में हालात बेकाबू हो गए और 2014 के चक्रव्यूह में कांग्रेस घिरती चली गई।
बीते दिनों में कांग्रेस के बुरे रिकार्ड पर एक नजर डाल लीजिए जिसे पार्टी के नेता याद भी नहीं चाहेंगे।
इमरजेंसी के साय़े में 1977 में देश में चुनाव हुए।
कांग्रेस ने 492 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे।
कांग्रेस को सिर्फ 154 सीटों पर जीत मिली।
कांग्रेस को वोट मिली 34.52 फीसदी।
लेकिन उस हार को तीन साल में ही जीत में बदलने वाली इंदिरा गांधी की कांग्रेस को राजीव गांधी की अगुवाई में एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा।
वीपी सिंह के बोफोर्स मुद्दे को लेकर छेड़े गए अभियान का असर ऐसा हुआ कि 1989 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 510 सीटों पर लड़कर 197 सीटें हासिल की। तब वोट मिले थे 39.53 फीसदी।
आज के संदर्भ में देखें तो 197 सीट वाला दल बड़ी ठसक के साथ सरकार बना सकता है। 25 साल पहले कांग्रेस के लिए 272 के जादुई आंकड़े से नीचे होना वाकई शर्मानाक माना जाता था। लेकिन उसके बाद भी पार्टी का स्तर गिरता गया। 1991 में एक बार फिर कांग्रेस सत्ता में आई तो जरूर। लेकिन 1996 में कांग्रेस ने 529 सीटें लड़कर 140 सीटें जीती थीं और वोट मिले थे 28.80 फीसदी। वो चुनाव पीवी नरसिम्हा राव की अगुवाई में लड़ा गया था। पार्टी का बुरा हार देख 1998 के लोकसभा चुनाव के दौरान खुद सोनिया गांधी ने प्रचार का जिम्मा संभाला। लेकिन कोई खास फायदा नहीं हुआ।
कांग्रेस ने 477 सीटों पर चुनाव लड़ा और 141 सीटें जीतीं। कांग्रेस का वोट प्रतिशत रहा 25.82। तब तक अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी की ताकत बढ़ती जा रही थी। 1999 में वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिर गई तो दोबारा चुनाव हुए। ये चुनाव कांग्रेस के लिए वाटरलू ही था। कांग्रेस अपने न्यूनतम स्तर पर खड़ी थी। कांग्रेस ने 453 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन जीत मिली थी 114 सीटों पर। हालांकि कांग्रेस के वोट में इजाफा हुआ था 28.30 फीसदी वोट मिले थे। अब कांग्रेस पर अपने इतिहास के बुरे दौर के बादल मंडरा रहे हैं। सभी दौर की वोटिंग के बाद जब परिणाम सामने आए तो वो कांग्रेस के सबसे बुरे दौर की बानगी दिखी। 10 की सत्ता में ऐसा बहुत कुछ हुआ जिससे लोगों का मोहभंग हुआ। ऐसा माना जाता है कि 2009 के चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस के हाथ को मजबूत किया था। मुलायम से छिटके और कांग्रेस से जुड़े मुस्लिम वोटों का ही असर था कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 22 सीटें जीत गई। लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने मुसलमानों की बदतर स्थिति का जो खाका 2008 में खींचा गया। 2013 में भी वही स्थिति रही। यूपीए 1 के दौरान मनरेगा ने कांग्रेस को मजबूती दी। गांव-गांव तक देहाड़ी मजदूरों को मेहनताना मिलने लगा तो कांग्रेस ने उस फसल को 2009 के चुनाव में काटा। लेकिन यूपीए 2 में मनरेगा को लेकर भी कई गड़बड़ियां सामने आई। दूसरी तरफ बढ़ती मंहगाई ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया। उस पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर उनके मंत्री तक महंगी रोकने के लिए सिर्फ तारीख पर तारीख देते रह गए। दूसरी तरफ लाखों-करोड़ों के भ्रष्टाचार आए दिन की बात हो गई। मनमोहन सरकार के मंत्री जेल जाने लगे। कोयला घोटाले की आंच मनमोहन सिंह तक भी पहुंची। सरकार भ्रष्टाचार पर काबू तो नहीं पाई लेकिन मनमोहन के एक बयान ने लोगों के जले पर नमक जरूर छिड़क दिया।
सरकार नाकामियों में घिरती जा रही थी। मनमोहन सिंह ने मौन साध लिया और भ्रष्टाचार पर खामोशी साधने के लिए सेरो शायरी करने लगे। लोगों को मनमोहन की खामोशी से साधा राहुल और सोनिया की चुप्पी साध गई। चार साल तक राहुल खामोश रहे। कभी दिखे तो अध्यादेश को फाड़ते या प्रधानमंत्री से रियायती गैस सिलेंडर बढ़ाने की अपील करते दिखे।
इन सब के बीच 2014 में इस बात पर गफलत बनी रही कि आगामी चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा। हालांकि राहुल को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाकर एक संकेत जरूर दिया गया कि राहुल के हाथों में कांग्रेस की कमान जाने वाली है। लेकिन साफ तस्वीर नहीं उभरी। दूसरी तरफ बीजेपी ने मोदी को बहुत पहले ही प्रधानमंत्री पद का उम्दीवार बना दिया था। सत्ता से बिल्कुल साफ हो जाना सूपड़ा साफ होता है। 100 से भी कम सीटों पर सिमट जाना सूपड़ा साफ कहलाता है।
फिर आया साल 2019 का लोकसभा चुनाव। एक तरफ राज्यों से साफ हो रही कांग्रेस को 2018 जाते-जाते तीन राज्यों में जीत के जरिए संजीवनी दिया। लेकिन लोकसभा चुनाव 2019 के उद्घोष के वक्त जब राहुल ने बड़े बेमन से 'हम सब मिलकर भाजपा को हराएंगे' कहा था तो न तो राहुल को और न ही कांग्रेस को और न ही देश को यह उम्मीद थी कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में मोदी को हरा देगी। लेकिन यह सबको लग रहा था कि वो पहले से बेहतर प्रदर्शन करेगी। लेकिन राहुल आज तक कोई चुनाव नहीं जीतने वाली स्मृति ईरानी के हाथों अमेठी तक गंवा बैठे तो उनकी साख और साहस दोनों ने जवाब दे दिया। जिसके बाद कांग्रेस में गैर गांधी युग की शुरूआत का नया अध्याय लिखे जाने की अटकले शुरू हो गई। कांग्रेस के भीतर से कांग्रेस के टूटने की चिंता सुनाई दी। 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी कहा करते थे कि कांग्रेस की उम्र हो गई 125 साल और ये सवा सौ साल की बुढ़िया देश का भला कैसे कर सकती है। अपरिपक्वता कहे तजुर्बे की कमी या आत्मविश्वास की कमी लेकिन राहुल बार-बार पीएम मोदी के सामने धराशायी होते रहे। 2017 के गुजरात चुनाव के दौरान राहुल को पार्टी की कमान सौंपी गई। कांग्रेस वो चुनाव जीत तो नहीं पाई लेकिन राहुल ने पीएम मोदी को परेशान जरूर कर दिया। लेकिन गोवा, उत्तराखंड, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मेघालय में पार्टी जीत के लिए तरसती रही। छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश को जरूर उन्होंने भाजपा से छीना लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे ने इस जीत को तुक्का साबित कर दिया। राजस्थान में तो कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला और दूसरी बार लोकसभा चुनाव (2014-2019) में प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए सचिन पायलट के मार्कशीट में 0 आया, कमोबेश मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का भी हाल कुछ ऐसा ही रहा। एक साल 7 महीने और 17 दिन तक अध्यक्ष रहने वाले राहुल ने साल 2013 में जयपुर की कड़कड़ाती हुई गर्मी के बीच जब कांग्रेस कार्यसमिति के दौरान सत्ता को जहर बताने वाला भाषण दिया था तो कई कार्यकर्ताओं की आंखे नम हो गई थी। लेकिन उस वक्त वो ये नहीं जानते थे कि राहुल इस जहर को पीने की बजाय मैदान छोड़ भागना पसंद करेंगे। गांधी परिवार के चिराग ने उस वक्त कांग्रेस को अंधेरे में छोड़ा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कांग्रेस मुक्त भारत की परिकल्पना से इतर सोच रहे हैं। नेहरू-गांधी परिवार ने आजादी के बाद करीब 40 साल तक पार्टी के शीर्ष पद पर स्थान हासिल किया है। जवाहर लाल नेहरू ने तीन साल के लिए, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने आठ-आठ साल जबकि सोनिया गांधी ने 19 साल तक अध्यक्ष पद की बागडोर अपने हाथ में रखी और राहुल ने करीब दो साल। पिछले दो दशक को देखें तो पार्टी के अध्यक्ष रहे पीवी नरसिम्हा राव के बाद कोई ऐसा गैर गांधी नेता नहीं हुआ, जिसका राष्ट्रीय स्तर पर जनाधार और स्वीकार्यता हो। पीवी नरसिम्हा राव का कार्यकाल बिना किसी हस्तक्षेप के पूरा हुआ था। इसके बाद सीताराम केसरी को हटा पार्टी की कमान सोनिया गांधी को सौंप दी गई। 19 वर्षों तक अध्यक्ष पद पर रहने वाली सोनिया ने न सिर्फ कांग्रेस को फिर से जीवंत किया था बल्कि 2004 और 2009 के चुनाव में शीर्ष पर भी लेकर गई थी। अप्रैल 1998 में जब सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस की कमान संभाली, तब भी पार्टी की सियासी हालत कमजोर थी। कांग्रेस की हालत दिन-ब-दिन बुरी होती देख सोनिया ने न सिर्फ जिस जिम्मेदारी को संभाला बल्कि दो लोकसभा चुनाव में पार्टी की सरकार भी बनाई। उस वक्त करिश्माई नेता अटल बिहारी वाजपेयी और अपनी रथयात्रा से भाजपा को सत्ता का शिखर हासिल करवाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी की सशक्त जोड़ी सोनिया के सामने थी। लेकिन राहुल ने मोदी और शाह की अपराजय माने जाने वाली जोड़ी जैसी थ्योरी को अपने इस कदम से और बल दिया। राहुल के पीछे हटने के बाद एक बार फिर कांग्रेस की खोज सोनिया पर ही आकर रूकी और उन्हें अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया।
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इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें यह दर्शाया या बताया गया कि वक्त के साथ-साथ चाल, चरित्र और चेहरा न बदला जाए तो फिर अस्तित्व पर उठने वाले सवालों के जवाब तलाशना मुश्किल हो जाता है। कांगेस अपनी हार वाली बीमारी का इलाज इस चुनाव में भी ढूढ़ने में नाकाम रही और बचपन में चाय बेचने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का जो नारा दिया था वो देश के लोगों ने बड़े ध्यान से सुना। कांग्रेस की चुनावी केतली खाली हो गई और बीजेपी का प्याला पूरी तरह से भर गया। 135 साल की उम्र की भारत की ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस के लगातार होते पतन ने उसकी राजनीतिक समझ पर सवाल उठा दिए हैं। पार्टी के नेताओं को लगता है कि देश का स्वभाव कांग्रेस है इसलिए देश कांग्रेस मुक्त नहीं हो सकता लेकिन उन्हें यह नहीं ज्ञात है कि अगर आम लोगों का स्वभाव बदलने लगे तो राजनीति की शैली भी बदल देनी चाहिए।
- अभिनय आकाश
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