गुरुद्वारों की आज़ादी से परिवारवाद के उलाहनों तक, अकाली दल की पूरी कहानी, अलग होकर चुनाव लड़ रही बीजेपी पंजाब में दिखा पाएगी दम?
दिसंबर 1920 में एक सहायता समूह के रूप में इसकी स्थापना की गई थी। तब से लेकर आज तक शिरोमणि अकाली दल ने एक लंबा सफर तय किया है। गुरुद्वारों का संचालन उस वक्त निजी तौर पर होता था और उनका नियंत्रण भी कुछेक महंतों के हाथ में होता था।
साल था 1920 का और दिसंबर की 14 तारीख जब पंजाब की राजनीति में एक नया राजनीति दल अस्तित्व में आया। और वर्तमान दौर में अपने अस्तित्व के सौ वर्ष मना रहा। लेकिन इन सौ सालों में पंजाब में गुरुद्वारों की आज़ादी से लेकर परिवारवाद के आरोपों को झेलने वाले अकाली दल का इतिहास काफी उठापटक वाला रहा है। इस दौरान ये कई बार टूटा और एकजुट भी हुआ। ऐसे में आज के इस विश्लेषण में आपको अकाली दल के गठन से लेकर उठापटक की दास्तां से रूबरू करवाने के साथ ही इसके बीजेपी से बीएसपी की ओर शिफ्ट होने की कहानी भी बताएंगे। इसके साथ ही इसका पंजाब की राजनीति और अकाली-बीजेपी की जुदा हुई राहों के राजनीतिक नफा-नुकसान से भी भी अवगत कराएंगे।
दिसंबर 1920 में एक सहायता समूह के रूप में इसकी स्थापना की गई थी। तब से लेकर आज तक शिरोमणि अकाली दल ने एक लंबा सफर तय किया है। गुरुद्वारों का संचालन उस वक्त निजी तौर पर होता था और उनका नियंत्रण भी कुछेक महंतों के हाथ में होता था। महंतों के खिलाफ लोगों में गुस्से की कुछ तात्कालिक वजहें भी थीं। चूंकि इन्हें ब्रिटिश हुकूमत का पूरा समर्थन मिलता था इसलिए ये महंत भी सरकार का साथ देते थे। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के गठन के एक महीने बाद 15 नवंबर को ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण से गुरुद्वारों को मुक्त कराने के लिए 14 दिसंबर, 1920 को शिरोमणि अकाली दल का गठन एक स्वयंसेवी समूह के रूप में किया गया था। पूर्व एसजीपीसी के सचिव लमेघ सिंह का कहना है कि आंदोलन कई कारणों से शुरू हुआ था, ननकाना साहिब में मत्था टेकने के दौरान एक उपायुक्त की बेटी की छेड़खानी का मामला एक ट्रिगर प्वाइंट था। इस घटना से आक्रोश पैदा हुआ और यह महसूस किया गया कि गुरुद्वारों को मुक्त कराया जाना चाहिए। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से एक फरमान जारी हुआ जिसमें विदेशों में रहकर अंग्रेजी सरकार के खिलाफ संघर्ष कर रहे गदर आंदोलन से जुड़े क्रांतिकारियों को विद्रोही घोषित कर दिया गया और दूसरी घटना यह हुई कि साल 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग में नरसंहार करने वाले जनरल डायर को सरोपा भेंट करके उन्हें सिख घोषित कर दिया गया। आंदोलन यूं तो अहिंसक रहा लेकिन 20 फरवरी 1921 को ननकाना साहब गुरुद्वारे में प्रवेश करने की कोशिश रहे अकालियों पर गोली चलाई गई जिसके परिणामस्वरूप 4,000 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। मोर्चा ने अंततः सिख गुरुद्वारा अधिनियम 1925 के अधिनियमन का नेतृत्व किया, जिसने गुरुद्वारों को SGPC के नियंत्रण में ला दिया। इसने कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन का मार्ग प्रशस्त करते हुए, औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ पार्टी को खड़ा किया।
स्वतंत्रता पूर्व युग
अकाली दल ने आजादी से पहले की अवधि के दौरान कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, जो 1930 के दशक में शुरू हुआ और 1940 के दशक में जारी रहा। पूर्व अकाली नेता मास्टर तारा सिंह की पोती किरणजोत कौर ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि यह "मास्टर तारा सिंह के प्रयासों के कारण था कि विभाजन के समय पंजाब का आधा हिस्सा पाकिस्तान की ओर जाने से रोक दिया गया था। उन्होंने सिख नेताओं को "बातचीत की मेज" पर लाने का श्रेय मास्टर तारा सिंह को दिया।
पंजाबी सूबा आंदोलन
कहानी की शुरुआत 1929 में होती है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन 31 दिसंबर को तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ। इस ऐतिहासिक अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने 'पूर्ण स्वराज' का घोषणा-पत्र तैयार किया। जिसका तीन समूहों ने खुलकर विरोध किया। पहला- मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने दूसरा दलितों के अधिकार की लड़ाई लड़ रहे भीमराव आंबेडकर और तीसरा शिरोमणि अकाली दल के मास्टर तारा सिंह। यही से एक सिख नॉमलैंड के लिए पहली अभिव्यक्ति सामने आई। 1947 की मांग पंजाबी सूबा आन्दोलन में बदल गई। बंटवारे के बाद भारत दो भागों में बंट गया। अकाली गुट ने सिखों के लिए अलग सूबे की मांग की। स्टेटरी आर्गनाइजेशन कमीशन ने इस मांग को खारिज कर दिया। ये पहला मौका था जब पंजाब को भाषा के आधार पर अलग दिखाने की कोशिश हुई। 1956 में, संत फतेह सिंह के नेतृत्व में अकाली दल ने पंजाबी सूबा के लिए एक आंदोलन शुरू किया, जिसमें प्रदर्शनकारियों ने हजारों की संख्या में गिरफ्तारी दी। 1957 में मुख्यमंत्री भीम सेन सच्चर के हिंदी और पंजाबी दोनों को राज्य की आधिकारिक भाषा बनाने के फैसले ने मोर्चा को और बढ़ावा दिया। राज्य पुनर्गठन आयोग का पंजाबी भाषा पर आधारित सूबा की मांग को खारिज करने का निर्णय, इस दलील पर कि यह हिंदी से अलग भाषा के रूप में गिनने के लिए पर्याप्त नहीं था। साल 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर जिन राज्यों की स्थापना हुई, उसमें पंजाब का नाम नहीं था। अकाली दल ने इसे भेदभावपूर्ण बताया, यह बताते हुए कि कैसे 14 आधिकारिक भाषाओं में से प्रत्येक को एक राज्य दिया गया था। दो शीर्ष अकाली नेता, संत फतेह सिंह और मास्टर तारा सिंह, लंबे उपवास पर बैठे, पहला 1960 के अंत में 22 दिनों के लिए, और बाद में 15 अगस्त, 1961 से 48 दिनों के लिए, अपनी मांग के समर्थन में, लेकिन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू अडिग रहे। इस आंदोलन के दौरान कुल मिलाकर लगभग 57,000 अकालियों को जेल में डाल दिया गया था।
क्या है आनंदपुर साहिब प्रस्ताव
पंजाब में अकाली दल कांग्रेस का विकल्प बनकर उभर चुका था। इंदिरा गांधी ने इसके जवाब के तौर पर 1972 में सरदार ज्ञानी जैल सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर खड़ा किया। 1973 में सिखों ने की पंजाब के स्वायत्तता की मांग की1 1978 में पंजाब की माँगों पर अकाली दल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित किया। इसके मूल प्रस्ताव में सुझाया गया था कि भारत की केंद्र सरकार का केवल रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर अधिकार हो जबकि अन्य सब विषयों पर राज्यों के पास पूर्ण अधिकार हों। वे ये भी चाहते थे कि भारत के उत्तरी क्षेत्र में उन्हें स्वायत्तता मिले। अकालियों की पंजाब संबंधित माँगें ज़ोर पकड़ने लगीं। अकालियों की प्रमुख मांगें थीं - चंडीगढ़ पंजाब की ही राजधानी हो, पंजाबी भाषी क्षेत्र पंजाब में शामिल किए जाएं, नदियों के पानी के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की राय ली जाए। वहीं जैल सिंह का बस एक ही मकसद था-शिरोमणि अकाली दल का सिखों की राजनीति में वर्चस्व कम करना। लगभग सारे गुरुद्वारों, कॉलेजों और स्कूलों में अकालियों का ही प्रबंधन था। अकालियों के प्रभाव की काट के लिए जैल सिंह ने सिख गुरुओं के जन्म और शहीदी दिवसों पर कार्यक्रमों का आयोजन, प्रमुख सड़कों और शहरों का उनके नाम पर नामकरण और सिख गुरुओं की महत्ता का वर्णन जैसे दांव चले।
निरंकारियों से झड़प
इंदिरा गांधी ने इस प्रस्ताव को ‘देशद्रोही’ बताया था। इन सब हालात के बीच एक शख्स का उदय हुआ जिसका नाम था जरनैल सिंह भिंडरावाले। इस बीच अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच अमृतसर में 13 अप्रैल 1978 को हिंसक झड़प हुई। इस घटना को पंजाब में चरमपंथ की शुरुआत के तौर पर देखा जाता है। विश्लेषक मानते हैं कि शुरुआत में सिखों पर अकाली दल के प्रभाव को कम करने के लिए कांग्रेस ने सिख प्रचारक जरनैल सिंह भिंडरावाले को परोक्ष रूप से प्रोत्साहन दिया। 1978 में, पार्टी ने प्रस्ताव को संशोधित किया और पंथिक एजेंडे (खालसे का बोल बाला) से राज्य के लिए स्वायत्तता पर ध्यान केंद्रित किया। प्रस्ताव में चंडीगढ़ को पंजाब में स्थानांतरित करने और पड़ोसी राज्यों के कुछ पंजाबी भाषी क्षेत्रों को शामिल करने के लिए सीमाओं के पुन: समायोजन की भी मांग की गई। अकालियों ने इस प्रस्ताव पर केंद्र की कांग्रेस सरकार से बातचीत शुरू की। जब वार्ता विफल हो गई, तो संत हरचरण सिंह लोंगोवाल की अध्यक्षता वाली पार्टी ने 4 अगस्त, 1982 को दमदमी टकसाल के प्रमुख संत जरनैल सिंह भिंडरावाले के साथ गठबंधन में धर्म युद्ध मोर्चा का शुभारंभ किया, जिसके धर्म प्रचार आंदोलन और कट्टरपंथी बयानबाजी ने उन्हें एक बड़ा जीत दिलाई थी। जल्द ही, पाकिस्तान द्वारा समर्थित उग्रवाद ने पंजाब में कट्टरपंथियों के साथ एक अलग संप्रभु सिख राज्य की मांग की। नरमपंथियों को हाशिये पर धकेल दिए जाने के कारण अकाली दल कई गुटों में बंट गया।
राजीव गांधी-लोंगोवाल समझौता
केंद्र और अकाली दल के बीच गतिरोध ने जून 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार हुआ और फिर इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई, और अक्टूबर में सिख विरोधी नरसंहार हुआ। एक साल बाद लोंगोवाल के नेतृत्व में उदारवादी अकाली नेताओं ने राजीव गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के साथ बातचीत फिर से शुरू की, जिसके परिणामस्वरूप 24 जुलाई 1985 को राजीव गांधी-लोंगोवाल समझौता हुआ। एसएस बरनाला के नेतृत्व वाली अकाली सरकार बहुत लंबे समय तक नहीं चली, और कट्टरपंथी तत्वों ने राज्य को अपने कब्जे में ले लिया, इसे 1987 से पांच साल के लिए राष्ट्रपति शासन के अधीन कर दिया गया। लेकिन 90 के दशक के मध्य तक, प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में अकाली दल, अधिकांश उदारवादी गुटों को अपने पाले में खींचने में कामयाब हो गया, और अकाली दल (अमृतसर) जैसे कट्टरपंथियों को धीरे-धीरे हाशिए पर डाल दिया गया।
बीजेपी और अकाली आए साथ
साल 1996 में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो गई जो पिछले साल कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुए किसान आंदोलन की शुरुआत तक चलता रहा। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल कई बार सत्ता में रही है लेकिन साल 1970 में प्रकाश सिंह बादल के मुख्यमंत्री बनने के बाद से पार्टी में पूरी सत्ता उनके परिवार के ही पास केंद्रित हो गई है। साल 1992 में शिरोमणि अकाली दल ने विधानसभा चुनाव का बहिष्कार कर दिया, लेकिन साल 1997 में बीजेपी के साथ मिलकर भारी बहुमत से सत्ता में वापसी की। तब से लेकर साल 2021 तक पार्टी ने तीन बार सरकारें बनाईं और तीनों बार प्रकाश सिंह बादल ही मुख्यमंत्री बने। प्रकाश सिंह बादल के बेटे सुखबीर सिंह बादल पिछली सरकार में राज्य के उप मुख्यमंत्री के साथ पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री भी थीं लेकिन पिछले साल कृषि कानूनों क विरोध में उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अकाली दल ने एनडीए से अलग होने की भी घोषणा कर दी।
वर्तमान में अकाली दल
कभी अपने मजबूत कैडर और आंतरिक-पार्टी लोकतंत्र के लिए जाने जाने वाले अकाली दल पर अब बादल की जागीर होने का आरोप है। 2004 में पार्टी संरक्षक प्रकाश सिंह बादल ने अपने बेटे सुखबीर बादल को पार्टी अध्यक्ष नियुक्त किया, ऐसा करने वाले वे पहले मौजूदा अध्यक्ष बने। हालांकि सुखबीर को पार्टी की धर्मनिरपेक्ष साख को मजबूत करने के लिए व्यापक रूप से श्रेय दिया गया। अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान बेअदबी और व्यापक नशीले पदार्थों की तस्करी के मामलों से परेशान, पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनावों में अपना सबसे खराब प्रदर्शन दर्ज किया, 117 में से केवल 15 सीटें जीतीं। दलित वोटों पर नजर रखते हुए शिअद ने अब बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया है, जो 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
नए गठबंधन के साथ नए सिरे से मैदान में उतरेगी भाजपा
माना जा रहा है कि भाजपा इस बार सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। या पार्टी नए गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरी तो नए सहयोगियों को कुछ सीटें दे सकती है। दोनों ही स्थितियों में भाजपा को फायदा हो सकता है।मनजिंदर सिंह सिरसा का भाजपा में शामिल होना बड़ा दांव माना जा रहा है। बीजेपी के एक नेता ने बताया कि पंजाब की 117 सीटों में से 66 सीटें ऐसी हैं जहां 50 पर्सेंट से ज्यादा हिंदू हूं। उनके मुताबिक अकाली दल को बीजेपी के साथ होने का फायदा मिलता रहा। लेकिन अब बीजेपी के समर्थक एक साथ आएंगे।
-अभिनय आकाश
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