बचपन में आपका कोई साथी जरूर रहा होगा जो हमेशा क्लास में आपको डांट खिलवाने के चक्कर में रहता होगा? यहां आपने कुछ भी भूल कि और बस उसकी बांछे खिल गई, वाह! अभी इसको मजा चखाता हूं। लाख प्रयत्न के बाद भी आप उससे पीछा नहीं छुड़ा पाते। उस वक्त आपको ये साथी बड़ा अप्रिय लगता होगा और आप सोचते होंगे कि ये क्यों मेरे पीछे पड़ा है और आप उससे दूरी बनाकर भी रखने की कोशिश करते होंगे। लेकिन जाने-अनजाने में ये साथी आपको वक्त का पाबंद, नियम का पक्का और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेह बना जाता है और इस बात का आपको पता भी नहीं चलता है। इस पूरे क्रम को देश के संदर्भ से जोड़ कर देखें तो आपका बचपन देश की अर्थव्यवस्था है, आप सत्ताधारी हैं...मतलब फुल पावर के साथ और यही पर आपके साथ आपका वो बचपन वाला कांटेदार साथी विपक्ष के रोल में है।
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जब सत्ता कुछ गलती करती है, विपक्ष उस पर सवाल उठाता है और सत्ताधारी होने की वजह से आप जवाबदेह हैं। साथ ही साथ सत्ताधारी के मन में ये बात रहती है एक किस्म का डर रहता है कि अगर कुछ गलत हुआ तो विपक्ष है, वो बवाल काट देगा। जनता की आवाज विपक्ष की आवाज होती है। लंबी लड़ाई के बाद 1947 में जब भारत को आजादी मिली तो एक तरफ उम्मीदें थीं और दूसरी तरफ कई आशंकाएं भी थीं। पश्चिमी दुनिया के एक बड़े हिस्से को लगता था कि भारत लोकतंत्र की राह पर ज्यादा दूर तक नहीं चल पाएगा। इसकी एक वजह तो उसकी असाधारण विविधता थी जिसके चलते कहा जाता था कि इस एक देश में कई देश हैं। इसी दौरान देश में कुछ हस्तियां हुईं जिन्होंने सत्ता का मोह छोड़कर उससे लोहा लिया और यह कमी पूरी की। इन व्यक्तित्वों ने तब सर्वशक्तिमान कहे जाने वाले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कई निर्णयों को चुनौती दी। इनमें राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण या जेपी का नाम लिया जाता है। विपक्ष का मतलब होता है "विकल्प"। विपक्ष की परिभाषा विकल्प से ही शुरू होती है। देश में नरेंद्र मोदी सरकार दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में काबिज है। 303 सीटें बीजेपी को मिली है और फुल मैजोरिटी के साथ पूरे धमक के साथ धड़ाधड़ फैसले ले रही है और मनचाहे बिलों को पास कराकर अपने मैनिफेस्टो में किए गए वादों को पूरा करने में जुटी है। लेकिन लोकतंत्र की दूसरी सबसे खूबसूरत तस्वीर यानी विपक्ष आज कहां है?
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14-15 अगस्त 1947 की आधी रात को दुनिया सो रही थी। तब हिन्दुस्तान अपनी नियति से मिलन कर रहा था। कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई का दूसरा नाम बन चुकी थी। उस कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे पंडित जवाहर लाल नेहरू। आज़ादी के उस दौर के पांच साल के भीतर कांग्रेस का सत्ता से साक्षात्कार हुआ। पहली बार दुनिया का लोकतंत्र बना और लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव हुए और नेहरू की रहनुमाई में कांग्रेस जीती। लेकिन नियति से हाथ मिलाने के 30 साल बाद सत्ता कांग्रेस के हाथ से छिटक गई। ये भी सही है कि 10 साल सत्ता में रहने पर सत्ता विरोधी लहर बन जाती है। ये भी सही है कि तब लोगों की उम्मीदों का बोझ सत्ता के तमाम दावे और वादे उठा नहीं पाते। 16वें लोकसभा के नतीजे 16 मई को आए। कांग्रेस ने अपनी हार का सबसे बुरा दिन देखा। 2014 में इस बात पर गफलत बनी रही कि आगामी चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा। हालांकि राहुल को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाकर एक संकेत जरूर दिया गया कि राहुल के हाथों में कांग्रेस की कमान जाने वाली है। लेकिन साफ तस्वीर नहीं उभरी। फिर आया साल 2019 का लोकसभा चुनाव। एक तरफ राज्यों से साफ हो रही कांग्रेस को 2018 ने जाते-जाते तीन राज्यों में जीत के जरिए संजीवनी दी। लेकिन लोकसभा चुनाव 2019 के उद्घोष के वक्त जब राहुल ने बड़े बेमन से 'हम सब मिलकर भाजपा को हराएंगे' कहा था तो न तो राहुल को और न ही कांग्रेस को और न ही देश को यह उम्मीद थी कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में मोदी को हरा देगी। लेकिन यह सबको लग रहा था कि वो पहले से बेहतर प्रदर्शन करेगी। लेकिन राहुल आज तक कोई चुनाव नहीं जीतने वाली स्मृति ईरानी के हाथों अमेठी तक गंवा बैठे तो उनकी साख और साहस दोनों ने जवाब दे दिया। जिसके बाद कांग्रेस में गैर गांधी युग की शुरूआत का नया अध्याय लिखे जाने की अटकलें शुरू हो गई। लेकिन फिर से एक बार कांग्रेस की खोज बीमारियों से जूझ रहीं सोनिया गांधी पर ही आकर रूकी।
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सूरदास, भक्तिकाल के कवि ने खूब लिखा श्रीकृष्ण की भक्ति में और उनकी भक्ति का नायाब नमूना है जो मैं आपको सुना रहा हूं। मेरो मन अनत कहां सुख पावै जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै। परम गंग को छाँड़ि पियसो, दुरमति कूप खनावै॥ जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल खावै। 'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कैन धावे। ये कविता भक्तिकाल में लिखी गई थी और ये कविता आज भी एक पार्टी की भक्ति के साथ मौजू है। भक्ति एक परिवार के लिए। भक्त है कांग्रेस पार्टी और जिसकी भक्ति की जा रही है वो है गांधी परिवार।
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जीत के जोश में जरूरी आवाजें दब जाया करती हैं और हार वो आईना है जो ऐसी बातों को खाद-पानी मुहैया कराता है। आखिरकार कांग्रेस के अंदर से आवाज उठनी शुरू हुई। फुसफुसाहटें कुछ समय पहले से सुनाई दे रही थीं, लेकिन पूर्व सांसद और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित ने वह बात खुल कर कह दी, जो थी तो सबके मन में, पर कोई जुबान पर नहीं ला रहा था।
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इस कांग्रेस में सब परेशान क्यों हैं। संदीप ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं पर सवाल उठाते हुए कहा कि वे पार्टी में नेतृत्वहीनता की स्थिति दूर करने की कोई पहल यह सोचकर नहीं कर रहे कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे।
कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर लगातार उठ रहे सवालिया निशान और पार्टी के भीतर मचे घमासान का असर कहीं न कहीं राज्यों पर भी नजर आने लगा है। दिल्ली चुनाव के नतीजों के बाद से पार्टी के भीतर जो रस्साकसी शुरू हुई है, वह अभी थमने का नाम नहीं ले रही। इसके चलते पार्टी के भीतर केंद्र से लेकर राज्यों तक नेताओं की बयानबाजी और बगावती तेवर सामने आ रहे हैं। वहीं संगठन से लेकर कुछ राज्यों में अहम पदों की नियुक्तियां भी लंबे समय से अटकी पड़ी हैं।
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राजस्थान
यहां राहुल गांधी ब्रिगेड के सचिन पायलट परेशान हैं। हाल ही में नागौर में दलितों की पिटाई हुई। उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट ने तुरंत ही बयान देते हुए कहा कि गृह मंत्रालय में सबकुछ ठीक नहीं है और लापरवाही का नतीजा है नागौर कांड। यहां आपको बता दें कि गृह मंत्रलाय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पास है। ये पहला मौका नहीं है कि युवा सचिन ने तीन बार के मुख्यमंत्री पर हमला किया है। कोटा में बच्चों की मौत पर दोनों की तल्खी देखी जा चुकी है। दोनों एक दूसरे पर लगातार हमला कर रहे हैं और राहुल-सोनिया इनका झगड़ा सुलझा नहीं पा रहे हैं।
मध्य प्रदेश
यहां भी राहुल गांधी ब्रिगेड के ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भी परेशानी हो रही है। मुख्यमंत्री कमलनाथ बन गए और ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश अध्यक्ष का पद भी नहीं मिला। उल्टे लोकसभा का चुनाव भी हार गए और अब सियासत की सड़क पर हैं। राज्यसभा चुनाव के लिए दावेदारी की गणित भिड़ा रहे हैं। टीकमगढ़ में कह दिया कि कमलनाथ सरकार ने मांग नहीं मानी तो वो खुद भी सड़क पर आ जाएंगे।
महाराष्ट्र
यहां पर युवा नेता मिलिंद देवड़ा इस कदर परेशान हैं कि दिल्ली में आप की जीत पर केजरीवाल की तारीफ कर दी।
पंजाब
यहां मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू अमरिंदर सिंह की सरकार से अलग हो गए और हसमुख सिद्धू इस कदर परेशान हो गए कि ठहाके लगाना ही जैसे भूल गए हों।
दिल्ली
दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी की क़रारी हार के बाद रणनीति को लेकर उठा विरोध अब नए अध्यक्ष की मांग तक पहुंच गया।
लीडरशिप को लेकर चल रहे असमंजस के चलते राज्यों में भ्रम की स्थिति है। कई राज्यों से जुड़े अहम फैसले भी इसके चलते टलते जा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों पर भी इसका असर दिख रहा है। तीनों ही राज्यों में लंबे समय से अध्यक्ष का मामला लटका हुआ है। कर्नाटक इकाई में प्रदेश अध्यक्ष का पद काफी समय से खाली पड़ा हुआ है। इस पद को लेकर अलग-अलग गुट के लोग दिल्ली में हाईकमान से मिलकर जाते रहे हैं। सक्षम लोग गांधी परिवार के किसी भी सदस्य का नेतृत्व सहजता से स्वीकार कर लेते हैं, पर खुद यह जिम्मेदारी संभालने को इनमें से एक भी तैयार नहीं होता। कुछ मायनों में इससे मिलती-जुलती स्थिति से अभी आठ साल पहले तक बीजेपी भी गुजर रही थी, मगर उसे असमंजस से बाहर निकालने के लिए आरएसएस का नेतृत्व मौजूद था। कांग्रेस में तो ऐसा कोई बाहरी शक्ति केंद्र भी नहीं है। कांग्रेस के युवा नेता चाहे वो मिलिंद देवड़ा, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य इसलिए भी परेशान हैं कि उनके राहुल गांधी भी परेशान हैं कि कांग्रेस के अध्यक्ष बने की नहीं। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और वर्तमान में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है लेकिन अध्यक्ष पद पर नियुक्ति में देरी से पार्टी को नुकसान पहुंच रहा है और पार्टी जितना जल्दी इस असमंजस को खत्म करेगी पार्टी के हित में ही होगा।
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देश के अंदर कांग्रेस के अंदर ही वो ताकत है जो बाकी सारे दलों को अपने साथ लेकर एक मजबूत गठबंधन बना सके जिसका उदाहरण हम संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के रूप में भी देख चुके हैं। लेकिन इसके लिए कांग्रेस पार्टी का मजबूत होना जरूरी है ओर ये तभी मुमकिन है जब पार्टी को एक सही नेतृत्व मिले।
कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या ये है कि वो गांधी परिवार से आगे सोच ही नहीं सकती। गांधी परिवार ही कांग्रेस की एकजुटता का बड़ा कारण है। जब गांधी परिवार में कोई सही विकल्प नहीं मिलता तो कांग्रेस भटकती रह जाती है। सोनिया गांधी लंबे समय से बीमार चल रही हैं। उन्हें बार-बार अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। ऐसे में कोई चाहिए जो हर समय पार्टी के लिए मौजूद रहे और मजबूत फ़ैसले ले।''''वहीं, प्रियंका गांधी को देखें तो वो कई सालों तक पार्टी से दूर रही हैं तो अब अचानक अध्यक्ष पद संभालना मुमकिन नहीं है। पार्टी में हमेशा राहुल गांधी को ही नेतृत्व के तौर पर उभारा गया है। कांग्रेस के पास राहुल गांधी ही एकमात्र विकल्प हैं और अब उनकी ज़रूरत भी महसूस होने लगी है। कांग्रेस के सीनियर नेता और पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री के बेटे अनिल शास्त्री ने भी माना कि कांग्रेस का अस्तित्व उस समय खत्म हो जाएगा जब कोई गांधी परिवार के बाहर का नेता पार्टी की बागड़ोर संभालेगा। -अभिनय आकाश
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