ज्यादा बुद्धिमान बुद्धिजीवी कौन (व्यंग्य)

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संतोष उत्सुक । Oct 12 2019 2:08PM

सुनते थे, किसी ज़माने में बुद्धिजीवी अपने क्रियाकलापों के माध्यम से समाज व राष्ट्र को नई व सही दिशा देने का साहसिक प्रयास करते थे। अब हमारा समाज अति सभ्य हो गया है और देश अत्यंत विकसित स्थिति में आ गया है।

सबसे ज्यादा मिजाज़ बदलने वाले वक़्त ने बुद्धिजीवियों को नष्ट करने की काफी कोशिश की लेकिन कमबख्त यह कौम, ख़त्म ही नहीं होती। राजनीति, धर्म जैसी शानदार व जानदार ताकतों ने भी काफी चोट की लेकिन फिर भी यह बुद्धिजीवी बिच्छू बूटी की मानिंद उगते रहे हैं। सामाजिक बदलावों के साथ लोगों की बुद्धि ने भी रूप बदले हैं, तभी यह पता नहीं चलता कि कौन सा ‘बुद्धिजीवी’ बुद्धिमान है और कौन सा अबुद्धिमान। बुद्धि का रंग दिखता कुछ और है और निकलता कुछ और ही है। किसी को भी सही या गलत स्थापित करने की दुविधा तो हर ज़माने में रही है। लेकिन जितना संजीदा पंगा अब कुव्यवस्था के खिलाफ न होकर, सम्मानित, प्रसिद्ध, स्थापित बुद्धिजीवियों का आपस में होने लगा है, उतना किसी युग में नहीं देखा गया।  

इस कारण बुद्धि का शेयर बाज़ार और रेट्स आसमान छू रहे हैं। इतनी बरसात के बावजूद इस बहस में आग लगी हुई है कि सही बुद्धिजीवी कौन है। ‘बुद्धि’, वास्तव में अब असमंजस का विषय बनती जा रही है। समझ नहीं आ रहा कि विश्वगुरुओं के हमारे देश में महागुरु कौन है, माफ करें असली या ज्यादा बुद्धिमान बुद्धिजीवी कौन है। बुद्धिमान होने के नए और रंगीन प्रतिमान सामने आ रहे हैं। नेता, अक्सर स्वार्थ के घोड़ों पर सवार अलग अलग दिशाओं में दौड़ते हुए, एक दूसरे को कोसते हुए लेकिन देश प्रेम की बात करते दिखते हैं। इसका प्रभाव बुद्धिमानों पर भी खूब पड़ा है, ‘इधर’ के समझदार लोग रंग, डिजायन और खुशबू की बातें करते हैं तो ‘उधर’ के समझदार लोग हवा, आग और पानी  की बातें करते हैं। 

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दरअसल बातें दोनों समझदारी की कर रहे होते हैं लेकिन खुद को ज़्यादा समझदार समझने और दिखाने के चक्कर में गुस्ताखी हो लेती है। इस सन्दर्भ में फेसबुक व व्हाट्स बहुत साथ निभाते हैं। कोने में बिठा दी गई बुद्धि कहती है, यह लोग एक साथ बैठकर बातें करें तो ज़्यादा बुद्धिमानी उगाई जा सकती है। नई व्यवस्था तो यही समझाने पर तुली है कि जब एक ही किस्म के ज़्यादा लोग, शक्ति की बुद्धि हासिल कर लें तो वे नैसर्गिक रूप से ज़्यादा बुद्धिमान माने ही जाएंगे। उदाहरणतया किसी भी तरह का शक्तिशाली व्यक्ति कविता रचेगा तो वो उच्च कोटि की ही कविता होगी। आम कविताएं लिखने के लिए तो सामान्य लोग बहुतेरे पड़े हैं। बुद्धि वास्तव में बहुत खराब वस्तु होती है, कितनी ही बार दिमाग खराब कर देती है। समय के साथ सही तरीके से प्रयोग न की जाए तो नुकसान करती है। ‘राजनीतिक’ पूर्वाग्रह दिमाग में घुस जाएं तो, एक बुद्धिजीवी दूसरे बुद्धिजीवी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि खराब करने वाला, राष्ट्रीयता और मानवता के खिलाफ दिखने लगता है।

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सुनते थे, किसी ज़माने में बुद्धिजीवी अपने क्रियाकलापों के माध्यम से समाज व राष्ट्र को नई व सही दिशा देने का साहसिक प्रयास करते थे। अब हमारा समाज अति सभ्य हो गया है और देश अत्यंत विकसित स्थिति में आ गया है। सामयिक बुद्धिमता इस बात की मांग करती है कि जब देश में सभी नदियां एक तरफ बह रही हों, कोई रंग नाराज़ न हो, जवान हो मनोरंजन, बुज़दिली, हिम्मत और बहादुरी एक जैसा खाना खा रही हों, तो बुद्धिमान बुद्धिजीवियों को सामाजिक और आर्थिक असमानता, गुस्सा, नफरत, बदला,  मरना और मारना, विकास से विनाश जैसे तुच्छ विषयों पर अपना कीमती समय नष्ट नहीं करना चाहिए। क्यूंकि यह सब प्रवृतियां सृष्टि की देन हैं। इनमें बदलाव लाने का मानवीय बुद्धि का दखल कभी सफल नहीं हो सका है। बुद्धिमान बुद्धिजीवी लोगों को विश्व स्तर की बढ़िया मनोरंजक किताबें पढ़नी चाहिए, निश्छल प्रेम और प्रकृति प्रेम पर खूब कविताएं लिखनी चाहिए और  घर के कामकाज में पत्नी का हाथ दिल खोलकर बटाना चाहिए।

- संतोष उत्सुक

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