चाय का चक्कर (व्यंग्य)

tea
Creative Commons licenses

हमारा काम खत्म हुआ तो बड़े बाबू ने कहा, "साहब के साथ चाय पी लीजिए।" चाय पीने का अनुभव मेरे लिए नया नहीं था, लेकिन सरकारी अधिकारियों के साथ चाय पीने का ख्याल मुझे थोड़ी घबराहट दे रहा था। फिर भी, सोचा, यह अनुभव कुछ नया हो सकता है।

एक दिन मैं और मेरे मित्र, विकास जी, एक सरकारी दफ्तर में गए थे। दफ्तर में पहुंचते ही यह खबर फैल गई कि किसी बड़े आदमी के साथ कोई राजनेता दफ्तर में आया है। खैर, यह खबर जल्द ही बड़े साहब के कानों तक पहुंच गई होगी, जो एक अनुभवी अधिकारी थे। साहब ने अपनी डेली ड्यूटी के दस्तावेजों को पलटते हुए एक पल के लिए सोचा होगा, "अगर कोई राजनेता दफ्तर में आए, तो क्या करना चाहिए?" और फिर, साहब ने सोचा होगा—"उसे चाय जरूर पिलानी चाहिए।" उनके दिमाग में और भी विचार आए होंगे—"अगर उसके साथ कोई अन्य व्यक्ति हो तो उसे भी चाय पिलानी चाहिए।" उन्होंने फिर बड़े बाबू को आदेश दिया, "जब इनका काम खत्म हो जाए, तो उन्हें चाय के लिए ले आइए।"

हमारा काम खत्म हुआ तो बड़े बाबू ने कहा, "साहब के साथ चाय पी लीजिए।" चाय पीने का अनुभव मेरे लिए नया नहीं था, लेकिन सरकारी अधिकारियों के साथ चाय पीने का ख्याल मुझे थोड़ी घबराहट दे रहा था। फिर भी, सोचा, यह अनुभव कुछ नया हो सकता है। हम दोनों साहब के कमरे में दाखिल हुए। साहब के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान फैली हुई थी, जो कि किसी सरकारी अधिकारी की विशेष मुस्कान थी—अत्यधिक विनम्रता और ढ़ोंग का मिश्रण।

इसे भी पढ़ें: सच को आंच आए भी तो क्या (व्यंग्य)

साहब ने मुस्कराते हुए पूछा, "क्या हाल हैं, शर्मा जी?" उनका सवाल इतना सामान्य था कि एक ही शब्द में इसका उत्तर दिया जा सकता था—"सब ठीक है।" शर्मा जी ने हलका सा उत्तर दिया और फिर साहब ने मेरी ओर रुख किया, "और आप, मिश्रा जी, आपका काम कैसा चल रहा है?" मैंने भी उसी रूटीन तरीके से जवाब दिया—"सब ठीक है।"

अब सवाल उठता है, जब कोई सरकारी अधिकारी बात करने के लिए कुछ नहीं चाहता, तो क्या किया जाए? हम तीनों की नजरें दरवाजे पर थीं। हम तीनों चाय के इंतजार में थे। लेकिन चाय का क्या? चाय तो थी ही नहीं। चपरासी, जो चाय लाने गया था, हमारी ओर देखकर दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहा था। वह चाय के लिए इतना दूर क्यों गया था? और चाय आ भी रही थी या नहीं, इस पर कोई कुछ नहीं कह पा रहा था।

साहब की स्थिति भी दिलचस्प थी। वह अपने पद की प्रतिष्ठा के बारे में सोचते हुए कुर्सी पर बिल्कुल तनकर बैठ गए थे। लेकिन जैसे ही शर्मा जी ने अपनी छड़ी की मूठ पर हाथ रखा, साहब की मुद्रा ढीली हो गई। वह अब छड़ी पर ध्यान केंद्रित करने लगे, मानो वह छड़ी ही कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हो।

हमारे बीच चुप्पी थी, लेकिन यह चुप्पी किसी असहज स्थिति से ज्यादा किसी जाल का हिस्सा लग रही थी। साहब अपनी पेंसिल को गाल पर घिस रहे थे, मैं पेपरवेट से खेल रहा था और श्रीवास्तव जी छड़ी की मूठ पर हाथ फेरने में लगे हुए थे। तीनों की स्थिति बहुत ही अजीब थी। हम जैसे गहरे समुद्र में डूबते जा रहे थे, और चाय का जहाज हमें कहीं नजर नहीं आ रहा था।

फिर अचानक साहब ने घंटी बजाई। चाय के लिए घंटी बजाना अधिकारियों का एक परंपरागत तरीका था, जो किसी तरह की नर्वसनेस को शांत करने के लिए होता था। चपरासी दरवाजे से आया और उसने बताया कि होटल में दूध खत्म हो गया था और वह काफी दूर से चाय ले कर आ रहा था। यह सुनकर हमें और भी घिन आ रही थी। दूध खत्म हो गया? हम चाय के बिना ही बैठने को मजबूर थे!

हम तीनों की हालत जैसे सर्दी में सिकुड़ी हुई थी। साहब ने अपनी पेंसिल को गाल पर रगड़ते हुए दरवाजे की ओर देखा। हम सब एक-दूसरे को देखकर शून्य में खो गए थे। साहब ने फिर वही सवाल पूछा, "क्या हाल हैं, शर्मा जी?" शर्मा जी ने फिर जवाब दिया, "सब ठीक है।" फिर उन्होंने मेरी ओर रुख किया, "क्या हाल है, मिश्रा जी?" और मैंने भी वही जवाब दिया, "सब ठीक है।"

यह खेल कुछ ऐसा लग रहा था जैसे हम एक-दूसरे से बहुत दूर खड़े हो, लेकिन फिर भी एक दूसरे के साथ खड़े हैं। साहब को यह समझने में वक्त नहीं लगा कि चाय का इंतजार करना व्यर्थ था। वह फिर से घंटी बजाते हैं, और चपरासी के आने के बाद हम सब चाय पीने में लगे। चाय आ चुकी थी, लेकिन चाय का स्वाद हमारी स्थिति से कहीं अधिक बेहतर था। हम जल्दी से चाय पीते हुए उठे और साहब से विदा ले ली। दरवाजे तक पहुंचते ही, विकास जी ने कहा, "मिश्रा जी, क्या हाल हैं हैदराबाद के?" मैं हंसते हुए बोला, "बस ठीक हैं, विकास जी, बस ठीक हैं!"

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़