अपने देश की याद (व्यंग्य)

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Prabhasakshi

अनुशासित, शोर रहित माहौल में अपने देश की याद आने लगती है। देश की गाड़ियों में लगे अलग अलग आवाज़ में बजने वाले, जानदार, शान बढ़ाऊ हॉर्न दिल में बजते रहते हैं। इनमें से कई भोंपुओं को लगाने की तो कानूनन मनाही होती है लेकिन हम गर्व से लगवाते हैं।

हम जब भी विदेश जाते हैं तो अच्छा लगता है। कुछ दिन मन मर्ज़ी का खाओ, तन मर्ज़ी का पहनो, पिओ, घूमो फिरो और कुछ दिन बाद फिर अपनी रोज़ मर्रा की रूटीन में वापिस। फिर वही ट्रैफिक, धूल मिटटी, चीखना, मारना, पीटना, धर्म के खुशबूदार कांटे और राजनीति के रंगीन सूखे फूल। कभी कभार विदेश में ज़्यादा दिन रहने का मौका मिलता है तो कुछ दिन तक तो वहां ट्रैफिक का अनुशासन अच्छा लगता है। सड़क, गली, बाज़ार में कहीं भी जाओ, कोई हॉर्न नहीं बजा रहा होता। अगर कोई बजाए तो उसे सभ्य नहीं माना जाता। हर जगह सब ‘गिव वे’ नियम को मानते हुए दूसरों को पहले जाने देते हैं।

अनुशासित, शोर रहित माहौल में अपने देश की याद आने लगती है। देश की गाड़ियों में लगे अलग अलग आवाज़ में बजने वाले, जानदार, शान बढ़ाऊ हॉर्न दिल में बजते रहते हैं। इनमें से कई भोंपुओं को लगाने की तो कानूनन मनाही होती है लेकिन हम गर्व से लगवाते हैं। अगर कोई नया पुलिस अफसर चालान करता है तो सिफारिश ढूंढते हैं या फिर चालान की रकम भर कर सम्मानित महसूस करते हैं। विदेश में गाड़ी पार्क करनी हो तो उचित जगह की जाती है। दिव्यांग व्यक्ति के लिए पार्किंग हर जगह है उस पर कोई पार्क नहीं करता। कई जगह तो सिर्फ पांच मिनट के लिए ही खड़ी कर सकते हैं। कई जगह आधा घंटे के लिए, दूसरी जगह ज़्यादा देर के लिए। हम इस व्यवस्था की बहुत तारीफ करते हैं और अपने देश की कुव्यवस्था को गाली देते हैं लेकिन विदेश में कभी देर हो गई तो चालान गाड़ी पर चिपका दिया जाता है। गाड़ी अधिकृत गति से ज़्यादा चलाई तो स्पीड के हिसाब से चालान भरना पड़ता है। चालान की रकम देखकर होश ठिकाने आ जाते हैं तो अपने देश की याद आने लगती है। 

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हम कहने लगते हैं कि अपना देश कितना अच्छा है, कितने मज़े हैं। जितना मर्ज़ी स्पीड से चलाओ जहां चाहे पार्क कर दो । चाहे किसी और की गाड़ी के पीछे खडी कर दो। जिस मर्ज़ी गाड़ी को ठोक दो और निकल लो। छोटी सी गाड़ी में सवारियों की भीड़ बिठा लो। विदेश में तो बच्चे की सीट भी लेनी पड़ती है। वैसे तो हर कहीं पुलिस नज़र नहीं आती लेकिन तंत्र इतना कुशल और मजबूत है कि कोई दुर्धटना हो जाए तो पुलिस पहुंचने में देर नहीं लगाती। इस मोड़ पर भी अपने देश की याद आती है। अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था में फंसी पुलिस को समाज के लिए ज़्यादा समय नहीं मिलता। देश में ‘गिव वे’ लागू नहीं होता बल्कि ‘टेक वे’ लागू होता है जो स्वार्थ जैसी सुविधा देता है। जिसके तहत हम अपनी किसी भी किस्म की गाड़ी निकाल लेते हैं। अपने देश लौटते ही उसी गली सड़ी व्यवस्था का हिस्सा हो जाते हैं क्यूंकि सुव्यवस्था  की बात करेंगे तो फंसे रह जाएंगे।

- संतोष उत्सुक

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