नेता जी का प्यारा पजामा (व्यंग्य)

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नेताजी के पाजामे की तलाश शुरू हुई। पूरे बंगले में कोहराम मच गया। नौकर-चाकर, ड्राइवर, पीए—सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाने में जुट गए। पाजामा कहीं नहीं मिला। यह कोई मामूली पजामा नहीं था, बल्कि वह पजामा था जो चुनावों में उनके साथ रहा, घोटालों की धूल सह चुका था, और जनता की भावनाओं के पसीने में भीग चुका था।

नगर के प्रतिष्ठित नेताजी सुबह-सुबह उठे तो पाया कि उनका प्रिय पजामा गायब था! यह कोई मामूली पजामा नहीं था, बल्कि वह पजामा था जो चुनावों में उनके साथ रहा, घोटालों की धूल सह चुका था, और जनता की भावनाओं के पसीने में भीग चुका था। नेताजी ने तुरंत अपनी धर्मपत्नी को जगाया, "सुनो! मेरा पजामा गायब है!"

धर्मपत्नी ने अंगड़ाई लेते हुए कहा, "तो? नया सिलवा लो।"

"अरे, तुम क्या जानो! यही पजामा पहनकर मैंने भाषण दिए, यही पहनकर भ्रष्टाचार के आरोप झेले, और यही पहनकर विधानसभा में धरना दिया! यह कोई मामूली कपड़ा नहीं, मेरी राजनीतिक पहचान है!"

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"फिर पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दो।"

"पुलिस को मत छेड़ो, उन्हें अभी पार्टी ऑफिस में भीड़ काबू करनी है!"

नेताजी के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। उनके चुनावी घोषणापत्र जितनी गहरी।

नेताजी के पाजामे की तलाश शुरू हुई। पूरे बंगले में कोहराम मच गया। नौकर-चाकर, ड्राइवर, पीए—सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाने में जुट गए। लेकिन पाजामा कहीं नहीं मिला।

"साब, कहीं उड़ तो नहीं गया?" एक नौकर ने डरते-डरते पूछा।

"अबे! पाजामा कोई पतंग है?" नेताजी गुर्राए।

तभी पीए ने कान में फुसफुसाया, "साहब, मुझे शक है कि विपक्ष ने इसे गायब करवा दिया है।"

नेताजी ने सिर पीट लिया, "अबे, ये विपक्ष वाले इतने समझदार कब से हो गए?"

टीवी चैनलों को जैसे ही इस खबर की भनक लगी, ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लगी— "बड़े नेता का पजामा चोरी! क्या देश में सुरक्षित हैं हमारे कपड़े?"

एक मशहूर एंकर चीख रहा था, "दोस्तों, आज हम एक गंभीर मुद्दे पर बात करेंगे—आखिर हमारे नेताओं के कपड़े क्यों सुरक्षित नहीं? क्या लोकतंत्र खतरे में है?"

विपक्ष ने तुरंत बयान जारी कर दिया, "यह सरकार की विफलता का प्रतीक है। जब एक वरिष्ठ नेता का पजामा सुरक्षित नहीं, तो जनता का क्या होगा?"

मीडिया का उबाल देखकर नेताजी को लगा कि अब तकरीबन पंद्रह पाजामे मिल जाएंगे, लेकिन उनका तो अब भी अता-पता नहीं था।

इस बीच जनता ने भी सोशल मीडिया पर अभियान छेड़ दिया। ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा— #ReturnPajamaOfNetaji

कुछ ने मीम बना दिए—

"पजामा वापस दो, वरना कुर्सी छीन लेंगे!"

"नेताजी का पजामा, देश की शान!"

एक नेताजी समर्थक बोला, "ये विपक्षी चाल है, वो नहीं चाहते कि नेताजी बिना पाजामे के भी महान बनें!"

तभी किसी ने सलाह दी, "नेताजी, नया खरीद लीजिए।"

"अरे मूर्ख, पाजामा कोई विचारधारा है, जो बदल दूँ?"

नेताजी के घर के बाहर भीड़ इकट्ठी हो गई। लोग मोमबत्तियाँ जलाकर प्रदर्शन करने लगे।

"नेताजी का पजामा लाओ, देश बचाओ!"

आखिरकार पुलिस सक्रिय हुई। इलाके की नाकाबंदी कर दी गई। जांच अधिकारी गंभीरता से बोले, "हम वैज्ञानिक तरीके से छानबीन करेंगे!"

पीछे से किसी पत्रकार ने चुटकी ली, "सीबीआई बुला लें क्या?"

तभी पड़ोसी रामलाल ने धीरे से कहा, "नेताजी, आपका पजामा तो कल धोबी के यहाँ था!"

नेताजी के चेहरे का रंग उड़ गया, जैसे चुनाव में जमानत जब्त हो गई हो!

सारे कैमरे धोबी की दुकान पर जा पहुंचे। रिपोर्टर चिल्लाया, "लाइव कवरेज देखिए, नेताजी का पजामा बरामद होगा या नहीं?"

धोबी बेचारा हक्का-बक्का! "साहब, मैंने तो बस धोने के लिए लिया था!"

नेताजी गरजे, "बेवकूफ! बिना अनुमति के कैसे लिया? ये लोकतंत्र है, यहाँ सरकार से पहले अनुमति लेनी पड़ती है!"

धोबी कांपते हुए बोला, "साहब, मैंने सोचा, गंदा हो गया होगा…"

"गंदा? तेरा दिमाग गंदा है! ये पाजामा मेरे संघर्ष की पहचान है!"

पुलिस ने नेताजी का पजामा जब्त कर लिया और उसे साक्ष्य की तरह सफेद दस्ताने पहनकर उठाया, मानो कोई राष्ट्रीय धरोहर हो।

अब नेताजी को फैसला लेना था—पजामा वापस पहनें या जनता के भावनात्मक ज्वार को देखते हुए इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दें?

"नेताजी, अगर इसको शहीद का दर्जा दे दें तो?"

"क्या मतलब?"

"मतलब इसे स्मारक में रख दें, लोग श्रद्धांजलि देंगे, और आपको हमेशा याद करेंगे!"

अगले दिन अखबारों में खबर छपी— "नेता जी का पजामा राष्ट्र को समर्पित!"

सरकार ने तुरंत फैसला किया कि नेताजी के पाजामे को राष्ट्रीय संग्रहालय में स्थान दिया जाएगा। उद्घाटन समारोह में भीड़ उमड़ी।

नेताजी ने गर्व से घोषणा की, "यह कोई साधारण वस्त्र नहीं, यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहचान है! आज से यह पाजामा जनता का हुआ!"

जनता ने नारा लगाया— "जब तक सूरज-चाँद रहेगा, नेताजी का पजामा अमर रहेगा!"

उधर धोबी बेचारा सोच रहा था, "काश, मैंने ये पाजामा खुद रख लिया होता… कम से कम दो रोटी के लिए राजनीति में आ सकता!"

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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