दिल, दिमाग और पेट का कहना (व्यंग्य)
जब तक कुछ किश्तें आराम से चली जाती हैं चलती कार अच्छी लगती है। फिर धीरे धीरे जब हाथ तंग होने लगता है तो कार की किश्त निकालनी मुश्किल होने लगती है। उसे चलाना हो तो बार बार पेट्रोल मांगती है। लोकल चलाने में तो उसकी औसत भी नहीं निकलती।
कुछ महीने पहले उन्होंने मनपसंद कार का टॉप मॉडल खरीदा। बारिश के समय अपने आप चलने वाले वाइपर, सन नहीं बल्कि बड़ी मून रूफ और कई दर्जन सुविधाएं उसमें हैं। उन्होंने उन काफी सुविधाओं बारे बताया और उनमें से कुछ समझाई भी लेकिन मेरे पल्ले ज्यादा नहीं पड़ा सिर्फ इसके कि यह बढ़िया लेकिन महंगी, शान बढ़ाऊ कार है। हमारे महान लोकतांत्रिक देश में अनेक कारें, पड़ोसियों ही नहीं दूसरे शहरों में बसे रिश्तेदारों की कारों की तरफ बार बार देखने के बाद आत्मसंतुष्टि के लिए खरीदी जाती हैं। पैसे न हो तो बैक से कर्ज़ लेकर ली जाती हैं। अपने पास पार्किंग न हो तो जहां भी पार्किंग मिले किराए पर ली जाती है। कार को बढ़िया कवर से ढक दिया जाता है। वहां दूसरे बंदे जो कुछ देर के लिए पार्क करने आते हैं वे पूछना चाहते हैं किसकी गाड़ी है। क्या यह चलती नहीं। पता नहीं लोग क्यूं कारें खरीदकर पब्लिक पार्किंग में खडी कर देते हैं और दूसरों को पार्किंग नहीं मिलती। यह सब सुनकर उस बढ़िया कार को अच्छा नहीं लगता होगा।
जब तक कुछ किश्तें आराम से चली जाती हैं चलती कार अच्छी लगती है। फिर धीरे धीरे जब हाथ तंग होने लगता है तो कार की किश्त निकालनी मुश्किल होने लगती है। उसे चलाना हो तो बार बार पेट्रोल मांगती है। लोकल चलाने में तो उसकी औसत भी नहीं निकलती। कई बार पत्नी की बचत राशि में से किश्त भरनी पड़ती है। काफी दिन बाद चलाओ तो लगता है कार कहीं जख्मी न हो जाए। क्यूंकि उसमें छोटा सा ज़ख्म भी हो गया तो ठीक होने में हज़ारों खर्च हो सकते हैं। कभी न कभी, किसी दिन या रात, लगता है कि क्यूं खरीदी यार हमने यह कार।
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हमारे एक मित्र हैं, अर्थशास्त्र नहीं पढ़ाते फिर भी कहते हैं कि गाड़ी खरीदते हुए, सभी पहले दिल की बात मानते हैं। जो दिल करता है, पत्नी का दिल चाहता है और बेचने वाला दिल से समझाता है वही गाड़ी लेते हैं। चाहे कार में दिए सौ में से अस्सी फीचर पल्ले न पड़ें। खरीदने वाले काफी लोग दिमाग से भी काम लेते हैं। कितनी एवरेज देगी, कहां पार्क करेंगे। कितनी इस्तेमाल होगी उसके हिसाब से मॉडल तय करते हैं लेकिन फिर जब गाड़ी प्रयोग नहीं हो पाती, रोजाना होने वाला ट्रेफिक जैम डराता है तो फिर यह दोनों तरह के बंदे जिन्होंने दिल या दिमाग की मानकर गाड़ी ली है पेट से पूछना शुरू कर देते हैं। समझदार पेट ही उचित सलाह देता है। पेट कहता है सबसे पहले बचत का पेट भरो फिर अपना और परिवार का असली पेट। फिर ज़रूरी जरूरतों का पेट देखो कितना भरना है। फिर फुर्सत में यह सोचो कि निजी गाड़ी के पेट को कितना खिला सकते हो, उसके हिसाब से गाडी खरीदो। उनकी बात ठीक तो है लेकिन अच्छी लगने वाली नहीं। न लगे अच्छी लेकिन पेट की बात उचित है।
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