फिल्म बनाना व्यवसाय नहीं (व्यंग्य)

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संतोष उत्सुक । Apr 21 2025 1:25PM

वह ऐसे सवालों को दिमाग में जगह नहीं देना चाहते कि बच्चों और किशोरों को क्या देखना चाहिए ताकि वे एक बार मिली ज़िंदगी में सुव्यवस्थित रह पाएं, शिक्षा पर ध्यान दें, स्वास्थ्य का ख्याल रखें, उत्तरदायित्त्व समझें।

पिछले दिनों प्रसिद्ध फिल्म निर्मात्री ने कहा कि फिल्म बनाना व्यवसाय नहीं है। जिस समाज में शिक्षा, धर्म, भक्ति और राजनीति व्यवसाय हो चुके हों, उनका हर अध्याय बाज़ार के हाथों लिखा जा रहा हो वहां ऐसा कहना व्यंग्य हो सकता है या फिर धर्म और राष्ट्रप्रेम में डूबे निर्माता का छवि बरकरार रखने के लिए हो सकता है ऐसा कहना। उन्होंने यह भी कहा कि देश का बड़ा हिस्सा अभी विकसित हो रहा है। यह डायलाग तो विपक्ष के नेता का लगा। यह भी कहा गया कि लोग किशोरावस्था और बचपन में जी रहे हैं। उन्हें संभवत पता नहीं कि विकासजी ने ज़िंदगी की इन दोनों अवस्थाओं के साथ क्या किया है। 

उन्होंने फिर जलेबी जैसा बयान दिया कि मनोरंजन को बहुत से लोग व्यवसाय के रूप में देखते हैं। फिल्म बनाना, कंटेंट क्रिएट करना बिजनेस नहीं होता। यह तो एक कला है। फिर से लगा कि इतनी प्रसिद्ध ज़बान क्या कह रही है। यह तो उन्होंने खुद पर भी व्यंग्य का रंग डाल दिया। सिर्फ कला के लिए फिल्म बनाना निजी चुनाव हो सकता है लेकिन अधिकांश निर्माता ऐसे विषय लाते हैं जो आम दर्शकों के स्वाद को बदल दें। उन्हें ऐसे निर्देशक चाहिएं जो दर्शकों के विशाल वर्ग को काबू में कर लें। उनकी रुचियां बिगड़ती हैं तो बिगड़ें, फिल्म बनाने वालों को तो सिर्फ सफलता और पैसा चाहिए। पैसा होने के कारण ही चीज़ें खरीदी जाती हैं। 

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वह ऐसे सवालों को दिमाग में जगह नहीं देना चाहते कि बच्चों और किशोरों को क्या देखना चाहिए ताकि वे एक बार मिली ज़िंदगी में सुव्यवस्थित रह पाएं, शिक्षा पर ध्यान दें, स्वास्थ्य का ख्याल रखें, उत्तरदायित्त्व समझें। इन जैसे निर्माताओं ने सिर्फ कला या समाज को प्रेरित करने के लिए धारावाहिक या फ़िल्में नहीं बनाई बलिक दर्शकों की रुचियों को बिगाड़कर ऐसे विषयों पर धारावाहिक या फ़िल्में बनाई जिससे समाज में अपारिवारिक मनोरंजन, गलत रीतियों, द्विअर्थी संवाद, सेक्स कामेडी के कारण और उदंड व्यवहार की घास उगने लगी। जिसके कंटीलेपन के कारण सभी आयुवर्ग के दर्शक ज़ख़्मी भी हुए। नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी को तिलांजलि देने के कारण मनोरंजन, शुद्ध धंधा हो गया।  

सामयिक बदलावों की मांग के कारण विकासजी ने खूब योगदान दिया। ऐसा न करते तो बेचारे बॉक्स ऑफिस और उसकी शाखाओं का क्या होता। अब निर्माताओं की आर्थिक ज़िम्मेदारी हो गई है कि करोड़ों लगाएं। फिल्म के सीन और डांस दर्शकों के शरीर और दिमाग को हिला दें। हिंसा, नफरत, वीभत्स फूहड़ता में लिपटी अकहानियां जिन्हें देखकर कुत्सित भावनाएं जाग उठें। सामयिक, पारिवारिक, क्षेत्रीय, धार्मिक, आर्थिक और राष्ट्रीय समस्याएं डर कर वक़्त के अंधेरे कोने में खड़ी रहें।  

फिल्म बनाना व्यवसाय है या नहीं यह अलग बात है। वास्तविकता यह है कि वर्तमान की उलझनों से मनोरंजन को कोई मतलब नहीं है। आवश्यक फिल्म बनाना कोई खेल नहीं है।

- संतोष उत्सुक

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