जनवरी में दीपावली मनाता जनजातीय ग्राम मेंढापानी

Tribal village Mendhapani
Prabhasakshi

वैसे तो देश भर में जनजातीय समाज का दीपावली उत्सव बड़ा ही विशिष्ट व उल्लेखनीय होता है किंतु गोंडवाना के जनजातीय समाज की दीपावली का तो कहना ही क्या!! इनके जीवन में दीपावली व होली का त्यौहार केवल आता नहीं है, आकर ठहर जाता है!

भारतीय पशुधन प्रेम अद्भुत कथा है यह! सौ प्रतिशत जनजातीय एवं अनुसूचित जाति की जनसंख्या वाले मेंढापानी ग्राम (बैतूल) की यह कथा अविश्वसनीय भी है! अविश्वनीय इसलिए, कि अपने देश के जनजातीय बंधु, अपने होली-दीपावली के पर्वों से किसी प्रकार का समझौता नहीं करते। वे अपने इन उत्सवों को डूबकर, रसमय होकर मनाते हैं और इन त्योहारों को जीते हैं। ये जनजातीय त्यौहारों को स्वयं में समाहित कर लेते हैं। 

वैसे तो देश भर में जनजातीय समाज का दीपावली उत्सव बड़ा ही विशिष्ट व उल्लेखनीय होता है किंतु गोंडवाना के जनजातीय समाज की दीपावली का तो कहना ही क्या!! इनके जीवन में दीपावली व होली का त्यौहार केवल आता नहीं है, आकर ठहर जाता है! इनके चौक, चौपालों, खारी, ढानी, बाजारों, टोलों, टपरों, मठ, मुठिया, मेलों, ग्रामों में और, उससे भी बढ़कर इनके हृदय में दीपावली ठहर जाती है! हाँ, ये वनवासी बंधु, त्योहारों को हृदय में धारते हैं और उसे उतार लेते हैं अपने अन्तर्तम तक। होली, दीवाली को मनस्थ और तनस्थ कर लेने का ही प्रभाव होता है कि बैतूल जिले का जनजातीय समाज एक मास तक इन त्योहारों को सतत मनाता ही रहता है। इस मध्य वह कोई काम नहीं करना चाहता। इस मध्य उसे आप कितनी भी अधिक मजदूरी का, वेतन का लालच दे दो; वह नहीं आयेगा काम पर!  इनकी होली, दीवाली केवल अपने ही परिवार में, मोहल्ले में या ग्राम में नहीं मनती है। ये जनजातीय बंधु, उस क्षेत्र में स्थित प्रत्येक ग्राम में एक दूसरे के गाँव में जाकर घर में रात्रि विश्राम करके ही दीवाली मनाते हैं। सभी एक दूसरे के गाँव में जाते हैं और भव्य आतिथ्य का आनंद लेते हैं।

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तो आते हैं, बैतूल जिले के एक विशुद्ध जनजातीय व अनुसूचित जाति वाले गाँव, मेंढापानी की कहानी पर। मेंढापानी में लगभग तीन सौ पचास घर हैं, सभी घर या तो जनजातीय बंधुओं के हैं या अनुसूचित जाति बंधुओं के। दोनों की जीवन शैली लगभग वनवासी ही है। 

लगभग तीन वर्ष पूर्व कोविड महामारी के दिनों के आसपास ही भारत के कुछ प्रदेशों में पशुधन को लंपी वायरस नामक एक बीमारी ने घेर लिया था। बैतूल में भी एक सौ चौबीस ग्रामों में यह बीमारी फेल गई थी। हजारों गाय, बैल, भैंसों को लंपी वायरस ने अपना शिकार बना लिया था। इन्हीं दिनों में मेंढापनी में भी सैकड़ों गाय, बेल, भैंस आदि पशु लंपी से ग्रसित होकर गोलोकवासी हो गए थे। वह दीपावली के एन पूर्व का सितंबर का माह था; वर्ष था, 2022! मेंढापानी के निवासी अपने प्रिय पशुधन के असमय व बड़ी संख्या में निधन से इतने दुखी हुए कि इन्होंने अपने सबसे बड़े, सबसे प्रिय, सबसे सुंदर त्यौहार दीपावली को ही त्याग दिया। जब आसपास के ग्रामवासियों को यह बात पता चली तो पंचायत बैठी और पंचायत ने, शोकग्रस्त मेंढापानी वासियों से दीपावली मनाने का आग्रह किया। तब तक जनवरी, 2023 आ चुका था। इस प्रकार, अक्टूबर-नवंबर की दीपावली मेंढापानी में पहली बार जनवरी में मनाई गई। लंपी वायरस के विदा होने पर ही जनवरी, 2023 में मेंढापनी निवासियों ने दीपावली मनाई थी। अपने दिवंगत पशुधन के प्रति मेंढापानी के ग्रामीण बंधुओं का शोक यहाँ भी रुका नहीं, उन्होंने तीन वर्षों तक उनका प्रियतम दीपावली का पर्व जनवरी में मनाने का निर्णय लिया। अपने दिवंगत पशुधन के प्रति शोक प्रकट करने का उनका यह अपना तरीका था।

यह अंतिम वर्ष था जब मेंढापानी निवासियों ने दीपावली का पर्व कार्तिक मास में न मनाकर, जनवरी में मनाया था। इस वर्ष मेंढापानी के ग्रामवासियों के आग्रह पर उनकी इस जनवरी माह वाली दीपावली में सम्मिलित होने का अवसर मुझे भी मिला। आड़ा-टेढ़ा, जैसा भी सही पर इन वनवासी बंधुओं के साथ नृत्य करने में मुझे भी बड़ा आनंद आया। मेंढापानी के निवासियों संग चाय पर चर्चा भी हुई और उनके संग सहभोज का भागी भी बना! बड़ा ही अद्भुत, उमंग, उल्लास व उत्साह से भरा वातावरण था समूचे गाँव का। भले ही छोटे-छोटे घर-आँगन होंगे मेंढापानी के निवासियों के, किंतु उनके दिल के जैसे ही, घर में भी लोग समाते ही चले जा रहे थे। एक-एक घर में तीस-तीस चालीस-चालीस मेहमान थे। प्रत्येक घर के सामने आठ-दस बाइक्स तो अनिवार्य रूप से खड़ी ही थी। किसी भी मोटरसाइकिल पर तीन से कम लोग तो आए ही नहीं थे। फटफटी पर चार लोगों को बैठा लेना तो इन ग्रामीणों के लिए बड़ी ही सामान्य सी बात है। पूरा गांव मेले के वातावरण में, गीत, संगीत, नृत्य, चाय-पानी, भोजन के क्रम में डूबा हुआ सा और सराबोर सा झूम रहा था। बस एक कमी खल रही थी कि यहाँ वहाँ ऊँचे स्वर में बजने वाले संगीत में उनके अपने जनजातीय गीत और नृत्य ग़ायब थे। फिल्मी गीतों और डीजे के शोर ने पारंपरिक गीतों व नृत्य के स्वरों को दबा दिया था। यह दुखद लगा। शेष सभी कुछ बड़ा ही आनंदित कर देने वाला था! युवक युवतियां तो अपनी झूम में थे ही, बड़े और वृद्ध भी अपने पूरे रंग में दिख रहे थे। सभी ने एक से एक रंग बिरंगे, चटकीले रंगों वाले कपड़े पहने हुए थे। युवक-युवतियों के माथे पर डिस्को इलेक्ट्रानिक बल्बों से जलने वाले बकल झिलमिला रहे थे। इन रंगीन लाइटिंग में उनके चेहरे के साज सिंगार को और अधिक चमक और उत्साह मिल रहा था। युवक-युवतियाँ संग-संग हाथों में हाथ थामे घूम रहे थे, नाच रहे थे। निश्चित ही मेंढापानी में इस मेले के दिन पच्चीस-पचास रिश्ते तो तय हुए ही होंगे।

मुझे अपने मध्य पाकर ग्रामवासी बड़े ही प्रसन्न हुए, उन्होंने बड़े ही हृदय से स्वागत किया। मैंने भी अवसर छोड़ा नहीं और बहुतेरी बातें की। उनसे आग्रह किया कि अगले वर्ष दीपावली कार्तिक मास में ही मनाएँ और फिल्मी गानों और डीजे के स्थान पर पारंपरिक गीत व नृत्य को ही थामें रहें। गौवंश के प्रतु, पशुधन के प्रति, इन भोले भाले ग्रामीणों का प्रेम और श्रद्धा यूँ ही बनी रहे, यही कामना..         

-प्रवीण गुगनानी

विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में सलाहकार, राजभाषा

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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