देश की आर्थिक प्रगति के लिए नागरिकों में भारतीयता के 'स्व' के भाव को जगाना जरूरी
ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत में आगमन के पूर्व विश्व के विनिर्माण उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी वर्ष 1750 में 24.5 प्रतिशत थी, जो वर्ष 1800 में घटकर 19.7 प्रतिशत हो गई और 1830 में 17.8 प्रतिशत हो गई। आगे वर्ष 1880 में केवल 2.8 प्रतिशत रह गई।
अभी हाल ही में ग्वालियर में आयोजित स्वर साधक शिविर में पधारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माननीय डॉ. मोहन भागवत ने एक कार्यक्रम में कहा कि दुनिया विभिन्न क्षेत्रों में आ रही समस्याओं के हल हेतु कई कारणों से अब भारत की ओर बहुत उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। यह सब भारतीय नागरिकों में भारतीयता के “स्व” के भाव के जागने के कारण सम्भव हो रहा है और अब समय आ गया है कि भारत के नागरिकों में “स्व” के भाव का बड़े स्तर पर अवलंबन किया जाये क्योंकि हमारा अस्तित्व ही भारतीयता के “स्व” के कारण है।
इसे भी पढ़ें: यदि हिंदू हिंदू बने रहना चाहते हैं, तो भारत को अखंड बनाया जाना चाहिए: आरएसएस प्रमुख
सरसंघचालक द्वारा कही गई उक्त बात भारत के आर्थिक क्षेत्र पर भी लागू होती है। भारत की आर्थिक प्रगति को यदि गति देनी है तो हमें भारत के नागरिकों में भारतीयता के “स्व” के भाव को बड़े स्तर पर जगाना आवश्यक होगा। देश के नागरिकों में भारतीयता के “स्व” को जगाने से हमारे नागरिकों में देश प्रेम की भावना जागृत होती है और इससे उनमें आर्थिक दृष्टि से तरक्की करने की भावना भी विकसित होने लगती है। जापान, इज़राइल, अमेरिका आदि देशों ने अपने नागरिकों में “स्व” की भावना को जागृत कर अपने देश की आर्थिक तरक्की में चार चांद लगाए हैं। इसके ठीक विपरीत, यदि किसी देश के नागरिकों में “स्व” की भावना नहीं है और उस देश पर यदि किसी विदेशी आक्रांता का शासनकाल स्थापित हो जाता है तो देश की अर्थव्यवस्था किस प्रकार तहस नहस हो जाती है इसका जीता जागता उदाहरण भारत रहा है।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत में आगमन के पूर्व विश्व के विनिर्माण उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी वर्ष 1750 में 24.5 प्रतिशत थी, जो वर्ष 1800 में घटकर 19.7 प्रतिशत हो गई और 1830 में 17.8 प्रतिशत हो गई। आगे वर्ष 1880 में केवल 2.8 प्रतिशत रह गई तथा वर्ष 1913 में तो केवल 1.4 प्रतिशत ही रह गई थी परंतु वर्ष 1939 में कुछ सुधरकर 2.4 प्रतिशत हो गई थी। ब्रिटिश शासन काल में भारत के विनिर्माण उत्पादन को तहस-नहस कर दिया गया था। इस सबके पीछे ब्रिटिश शासन काल की नीतियां तो जिम्मेदार थी हीं साथ ही भारत के नागरिकों में “स्व” की भावना का कमजोर हो जाना भी एक बड़ा कारण था।
1750 के आसपास, भारत सूती वस्त्रों का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक था। कपास, लिनेन के भारतीय वस्त्रों तथा ऊनी सामानों का एशिया, अफ्रीका और साथ ही यूरोप भी बहुत बड़ा बाजार था। मुक्त व्यापार नीति ने भारत और ब्रिटेन के बीच कपड़ा व्यापार की दिशा को उलट दिया। सस्ते दामों पर इंग्लैंड से मशीन द्वारा निर्मित कपड़ों के भारी मात्रा में आयात ने भारतीय कपड़ा उद्योग के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ा दी। इसके अलावा, ब्रिटेन द्वारा भारतीय वस्त्रों के ब्रिटेन में आयात पर भारी शुल्क लगाया गया। शीघ्र ही, भारतीय वस्त्रों पर सुरक्षात्मक शुल्क लगाने की ब्रिटिश सरकार की नीति के कारण भारत कच्चे कपास का निर्यातक और कपड़ों का आयातक बन गया।
भारतीय बाजार में ब्रिटिश सामानों के शुल्क मुक्त प्रवेश तथा निर्यातित भारतीय हस्तशिल्प उत्पादों पर भारी करों ने भारतीय हस्तशिल्प उद्योग को भी पूरी तरह से तबाह कर दिया था। भारत में निर्मित हस्तशिल्प उत्पाद, घरेलू तथा विदेशी, दोनों ही बाजारों से लुप्त होने लगे थे। इसके अलावा, एक शिल्पकार के उत्पादों की तुलना में कारखानों में बने उसी प्रकार के उत्पाद सस्ते होने के साथ-साथ गुणवत्ता की दृष्टि से भी बेहतर होते थे, जिसके फलस्वरूप भारतीय शिल्प उद्योग धीरे-धीरे समाप्त होता चला गया।
भारत पर ब्रिटिश शासनकाल के दौरान यूनाइटेड किंगडम में तो प्रति व्यक्ति आय में तेज वृद्धि होने लगी परंतु भारत में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि धीमी होने के साथ ही नीचे भी गिरने लगी थी। भारत में वर्ष 1600 में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (1990 अंतरराष्ट्रीय डॉलर में) 550 डॉलर था, जो वर्ष 1700 तक 550 डॉलर ही बना रहा वर्ष 1757 में गिरकर 540 डॉलर हो गया और वर्ष 1857 में 520 डॉलर हो गया। 1947 में जरूर थोड़ा सुधर कर 618 डॉलर हो गया था। वहीं दूसरी ओर यूनाइटेड किंगडम में वर्ष 1600 में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद वर्ष 1600 में 947 डॉलर था जो वर्ष 1700 में 1250 डॉलर हो गया तथा 1757 में 1424 डॉलर होकर 1857 में 2717 डॉलर हो गया तथा 1947 में तो 6318 डॉलर हो गया।
इसी प्रकार, ब्रिटिश शासन के कार्यकाल के दौरान भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर भी बहुत कम होती चली गयी वहीं यूनाइटेड किंगडम के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर बहुत तेज होती चली गयी। वर्ष 1600 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (1990 अंतरराष्ट्रीय डॉलर मिलियन में) 74,250 मिलियन डॉलर था। यह वर्ष 1700 में बढ़कर 90,750 मिलियन डॉलर हो गया एवं वर्ष 1757 में 99,900 मिलियन डॉलर का हो गया तथा वर्ष 1857 में 118,040 मिलियन डॉलर हो गया तो वर्ष 1947 में 255,852 मिलियन डॉलर हो गया। अब यूनाइटेड किंगडम की स्थिति देखें। यूनाइटेड किंगडम में वर्ष 1600 में सकल घरेलू उत्पाद 6,007 मिलियन डॉलर था जो वर्ष 1700 में बढ़कर 10,709 मिलियन डॉलर हो गया तथा 1757 में 18,768 मिलियन डॉलर हो गया और वर्ष 1857 में 76,584 मिलियन डॉलर तक पहुंच कर वर्ष 1947 में तो 314,969 मिलियन डॉलर का हो गया।
इसे भी पढ़ें: भारत के विभाजन की पीड़ा का समाधान विभाजन को निरस्त करना है: भागवत
ब्रिटिश शासन काल में न केवल भारत के अर्थतंत्र को तहस-नहस किया गया बल्कि अंग्रेजों ने जाति और साम्प्रदायिक चेतना को उकसाते हुए प्रतिक्रियावादी ताकतों की मदद भी की थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी शासनकाल में, पश्चिमी सभ्यता के आगमन के फलस्वरूप ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां सक्रिय रूप में काफी व्यापक हो गई थीं। ये मिशनरियां ईसाइयत को श्रेष्ठ धर्म के रूप में मानती थीं और पश्चिमीकरण के माध्यम से वे भारत में इसका प्रसार करना चाहती थीं, जो उनके अनुसार धर्म, संस्कृति और भारतीयता के “स्व” में यहां के मूल निवासियों के विश्वास को नष्ट कर देगा। इस दृष्टि से ईसाई मिशनरियों ने उन कट्टरपंथियों का समर्थन किया, जिनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण, उनके अनुसार, भारतीय देशी संस्कृति और विश्वासों तथा भारतीयता के “स्व” को कमजोर करने वाला था। साथ ही उन्होंने साम्राज्यवादियों का भी समर्थन किया, क्योंकि उनके प्रसार के लिए कानून और व्यवस्था एवं ब्रिटिश वर्चस्व का बना रहना आवश्यक था। इसके साथ ही वे व्यापारियों और पूंजीपतियों के समर्थन की अपेक्षा भी रखते रहे क्योंकि ईसाई धर्मांतरित लोग उनके सामान के बेहतर ग्राहक होंगे और इस प्रकार भारत ब्रिटिश उत्पादों का एक बड़ा बाजार बन गया था। परंतु भारत में आज स्थितियां पूर्णतः बदल गई हैं। धीमे-धीमे ही सही परंतु अब भारतीय नागरिकों में भारतीयता के “स्व” की भावना बलवती होती जा रही है। जिसके चलते अब भारत में आर्थिक विकास में भी गति आती दिखाई दे रही है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
अन्य न्यूज़