Lal Bahadur Shastri Jayanti: लाल बहादुर शास्त्री के आदर्शों को जीना उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि
स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के 119वें जन्मदिन पर उन्हें श्रद्धांजलि मात्र दे देना ही काफ़ी नहीं है। उनके जीवन आदर्शों और नैतिक मूल्यों को जनमानस तक पहुँचाना और देश की उन्नति में उनके अतुल्य योगदान को याद करना ही उन्हें सच्चे अर्थों में श्रद्धांजलि होगी।
भारत की पहचान क्या है- धर्म-निरपेक्षता, सर्व-धर्म समानता, भाषा और संस्कृति या सनातन परम्परा? यह सत्य है कि ये सारे तत्व भारत की पहचान के अटूट हिस्से हैं, किन्तु इन सबसे बढ़ कर भारत की असली पहचान हैं यहाँ के लोग। ये लोग ही तो हैं जिनके माध्यम से भारत की पहचान सुदूर देशों तक पहुँचती है। ये लोग ही तो हैं जिनकी उपलब्धियाँ, जिनके विचारों और जिनके कर्मों से भारत की पहचान को एक नई ऊँचाई मिलती है। भारतभूमि के ऐसे अनगिनत सपूतों में ही एक नाम है लाल बहादुर शास्त्री, जिनके जीवन का हर पहलु एक पाठशाला है जिसे पढ़ कर आत्मसात करना आज के समय और आज की पीढ़ी दोनों की आवश्यकता है।
आज स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के 119वें जन्मदिन पर उन्हें श्रद्धांजलि मात्र दे देना ही काफ़ी नहीं है। उनके जीवन आदर्शों और नैतिक मूल्यों को जनमानस तक पहुँचाना, उनके लघु किन्तु गरिमामय जीवन की विशालता को समाज के सम्मुख लाना और देश की उन्नति में उनके अतुल्य योगदान को याद करना ही उन्हें सच्चे अर्थों में श्रद्धांजलि होगी। 2 अक्टूबर को गाँधी जयन्ती की संज्ञा दी गई है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। स्वयं शास्त्री जी भी महात्मा गाँधी के अनुयायी और प्रशंसक रहे हैं। गाँधी के ही आह्वान पर वे स्वदेशी आन्दोलन से जुड़े, राजनीति में आए और जीवन भर गाँधी के आदर्शों पर चले। किन्तु गाँधी के सच्चे शिष्य होने के बावजूद कई सालों तक उनकी उपेक्षा की गई, गिने-चुने स्थानों पर उनके नाम लिए गए और आम जनों से उनको हमेशा दूर रखा गया। यह सब जान बुझ कर किया गया या अनजाने में यह एक बहस का मुद्दा है और आज इस बहस में नहीं जाना। किन्तु पिछले कुछ वर्षों से उन्हें लगातार याद किया जा रहा है, अखबारों में उनके नाम के आलेख छपते हैं और सोशल मीडिया पर भी उन्हें जम कर याद किया जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि हीरा भले ही साल-दर-साल कोयले में दबा रहे, उसकी पहचान मिटाना आसान नहीं होता। वह अपनी चमक से स्वयं ही सबकी नज़रों में आ जाता है और एक बार नज़र में आ जाए तो उसे छुपा पाना नामुमकिन हो जाता है। लाल बहादुर शास्त्री का व्यक्तित्व भी हीरे के सामान है – कद-काठी में छोटे, किन्तु अन्तर से दृढ़, शालीन और नीतिपूर्ण – उन्हें जानने के बाद उनसे प्रभावित हुए बिना रह पाना नामुमकिन है।
उनके जीवन से जुडी कुछ बातें आपसे साझा कर रही हूँ। हो सकता है इन प्रसंगों को आपने पहले भी सुना हो किन्तु इनकी पुनरावृत्ति मन को आनंद ही देगी।
प्रसंग 1: हम बचपन से सुनते आए हैं कि ईमानदारी एक सर्वोत्तम नीति है किन्तु इसका अनुसरण करते कितने लोगों को जानते हैं हम? खास कर जब सत्ता का सुख और कुर्सी का रौब साथ मिल जाए तो ईमानदारी का अध्याय किसे याद रहता है? ऐसे समय में जब ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठता किताबों तक सिमित होकर रह गए हैं, उन्हें आचरण में लाने के लिए शास्त्री जी के जीवन की यह घटना अत्यंत महत्वपूर्ण और असरदायक है। बात उस समय की है जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बन चुके थे और उनके सरकारी आवागमन के लिए उन्हें एक विदेशी इम्पाला कार दी गई थी। सीधे-सादे शास्त्री जी को इम्पाला से कोई मोह न जगा और वे स्वयं के लिए वही पुरानी सरकारी अम्बेसडर कार का ही उपयोग करते रहे। इम्पाला विदेशी मेहमानों के लिए प्रयोग किया जाने लगा। इम्पाला अधिकतर समय प्रधानमंत्री निवास में खड़ी रहती थी। उनके बच्चे तब किशोरावस्था में थे और इम्पाला के लिए बड़े लालायित रहते थे। एक रात बाबूजी (शास्त्री जी) से छुपकर उनके दूसरे बेटे सुनील शास्त्री इम्पाला कार से कहीं बाहर चले गए और वापस आकर अपने कमरे में सो गए। शास्त्री जी को रात में ही इस बात की जानकारी हो गयी थी। सुबह-सुबह उन्होंने अपने बेटे को बुलाकर उनसे कहा कि आपकी उम्र अभी गाड़ी चलाने की इजाज़त नहीं देता अतः ऐसा दोबारा नहीं करेंगे। उस समय सुनील मात्र 16 वर्ष के थे। फिर अपने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि बीते रात इम्पाला कितने किमी चली उसका हिसाब उन्हें बताया जाए और जो भी हिसाब बनता है उसे उनकी पत्नी से लेकर सरकारी कोष में जमा करवा दें। साथ ही यह भी हिदायत दी कि रिकार्ड में ‘निजी कार्य में उपयोग किया गया’ ऐसा लिखा जाए। महज़ 14 किमी के लिए न तो उन्होंने अपने ओहदे का इस्तेमाल किया और ना अपने बेटे की गलती को दबाने की कोशिश की। इस एक कृत्य से उन्होंने अपने परिवार और सभी कर्मचारियों को यह सीख दे दी कि कोई भी उनके पद को अपने निजी लाभ के लिए गलत रूप से प्रयोग न कर सके। लाल बहादुर शास्त्री वास्तव में ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे।
प्रसंग 2: देखन में छोटन लगे, घाव करे गम्भीर, पाँच फुट दो इंच के छोटे कद के भीतर एक दृढ़-निश्चयी देशभक्त रहता है ये समझने के लिए उनसे एक मुलाक़ात ही काफ़ी थी। शास्त्री जी की कद-काठी और सौम्य आवाज़ अक्सर लोगों को इस गफ़लत में डाल देती थी कि यह छोटा, नरम-सा दिखने वाला इंसान भारत की रक्षा कैसे कर पाएगा! पकिस्तान के जनरल अयूब खान को भी यही ग़लतफ़हमी हो गयी थी जब 1964 में काइरो में हुए गुट-निरपेक्ष सम्मलेन से लौटते हुए कराँची हवाई अड्डे पर उनकी मुलाकात शास्त्री जी से हुई थी। शास्त्री जी की शालीनता को कमज़ोरी समझकर 1965 में पकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया किन्तु इस युद्ध में पकिस्तान की करारी हार हुई थी। भारत न केवल विजयी रहा बल्कि, इसी युद्ध का परिणाम था कि भारत अन्न उत्पादन में भी आत्मनिर्भर बना। हरित क्रान्ति, ‘जय जवान, जय किसान’ और आत्मनिर्भर भारत की शुरुआत यहीं से हुई थी। युद्ध जीतने के चार दिनों बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में भाषण देते हुए शास्त्री जी ने कहा था, “अयूब साहब कहते रहे कि हमें क्या, हम तो अपनी टैंकों को लेकर आगे बढ़ेंगे.. सैकड़ों टैंकों के साथ टहलते हुए दिल्ली पहुँच जाएँगे। तो इस तरह से टहलते हुए घूमते हुए दिल्ली में आने का उनका इरादा था। और जब ये इरादा हो तो कुछ अगर हम भी टहल कर लाहौर की तरफ चले गए तो मैं समझता हूँ मैंने, या हम लोगों ने कोई गलत बात तो ऐसी नहीं की।” यह एक कुशल नेतृत्व का ही परिचय था कि अहिंसा का पालन करने वाले शास्त्री जी ने समय की माँग को समझते हुए पकिस्तान के हमले का जवाब सेना को खुली छूट देकर जवाबी हमले से दिया, न कि शांति प्रस्ताव भेजकर। 15 अगस्त 1965 को लाल किले से दिए भाषण में उन्होंने कहा था, “अगर तलवार की नोंक पर या एटम बम के डर से कोई हमारे देश को झुकाना चाहे, दबाना चाहे.. ये देश हमारा दबने वाला नहीं है।” उनके इस वक्तव्य से ही उनके मज़बूत इरादे, अटल फैसले और अदम्य आत्मविश्वास का परिचय मिलता है।
इसी युद्ध के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने शास्त्री जी को धमकी दी थी कि यदि शास्त्री जी ने पकिस्तान के खिलाफ़ लड़ाई बंद नहीं की तो अमरीका भारत को गेहूँ भेजना बंद कर देगा। उस समय भारत खाद्यान्न के लिए अमरीका पर निर्भर था और गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं हुआ था किन्तु जॉनसन की यह बात शास्त्री जी ही नहीं बल्कि समूचे भारत के आत्मसम्मान पर गहरा आघात था। उस दिन उन्होंने अपनी पत्नी को शाम का खाना बनाने से मना कर दिया। वे देशवासियों से सप्ताह में एक समय का उपवास रखने की अपील करने वाले थे किन्तु ऐसा करने से पहले वे परखना चाहते थे कि क्या वे स्वयं अपने परिवार के साथ ऐसा करने में सक्षम हैं या नहीं। जब अपनी पत्नी, बच्चों समेत वे स्वयं एक समय का उपवास रखने में सफल रहे तब उन्होंने देशवासियों से सप्ताह में एक समय उपवास रखकर अनाज बचाने की माँग की जिसका समूचे देश पर गहरा असर हुआ। एक तरफ अनाज बचाने के प्रयास किए जा रहे थे तो दूसरी तरफ किसानों को धान उगाने के लिए प्रेरित किया गया।
सेना का मनोबल बढ़ाना, किसानों को आत्मनिर्भर बनाना वास्तव में भारत को आत्मनिर्भर बनाना था। यह उनका आत्मसम्मान ही था कि अमरीकी राष्ट्रपति की धमकी से डरे बिना उन्होंने भारत को अनाज के लिए आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप 1964 में 120 लाख टन गेहूँ का उत्पादन हुआ और 1968 में यह बढ़ कर रिकार्ड 170 लाख टन हो गया।
प्रसंग 3: वर्ष 1963 में कामराज योजना के तहत् उन्होंने नेहरू मंत्रीमंडल के गृह मंत्री के पद से इस्तीफा दिया था। उसी शाम उस ज़माने के मशहूर पत्रकार कुलदीप नय्यर उनके घर गए तो देखा कि उनके घर में चारों और अँधेरा फैला है। सभी कमरे की बत्तियाँ बुझी हुई थी और केवल एक कमरा, जहाँ शास्त्रीजी कुछ पढ़ रहे थे, में रौशनी थी। कारण पूछने पर पता चला कि अब जब वे मंत्री नहीं रहे तो बिजली के बिल का भुगतान उन्हें अपनी जेब से देना होगा और जब बाक़ी कमरे खाली हैं तो वहाँ रौशनी जलाकर बिजली क्यों बर्बाद करना। उनकी सादगी के ऐसे कई किस्से उनपर लिखी किताबों में उपलब्ध हैं।
प्रसंग 4: उनके पुत्र अनिल शास्त्री बताते हैं कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी जब उनके पास अपनी कार नहीं थी तो बच्चों के आग्रह पर उन्होंने एक कार खरीदने का मन बनाया। उनके खाते में इतने पैसे नहीं थे कि जिससे कार खरीदी जा सके। कार खरीदने के लिए उन्होंने बैंक से लोन लिया। दुर्भाग्य से लोन की अवधि में ही उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। इन्दिरा गाँधी ने शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री से कहा कि उन्हें लोन चुकाने की आवश्यकता नहीं है, वे बैंक से लोन माफ़ करने का आग्रह करेंगी। इस पर ललिता शास्त्री ने कहा कि ऐसा ना करें, इससे शास्त्री जी के सम्मान को ठेस पहुँचेगी। ललिता जी ने अपने पेंशन के पैसों से बाक़ी का लोन चुकाया। ऐसे थे लाल बहादुर शास्त्री के संस्कार जिसने मरणोपरांत भी अपनी नीतियों का साथ नहीं छोड़ा, अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया।
प्रसंग 5: ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ का प्रमाण उनके जीवन के हर प्रसंग से मिलता है। उस ज़माने में विद्यालयों में ‘पैरेंट-टीचर मीट’ नहीं होते थे तब भी रिज़ल्ट लेने के लिए अभिभावकों का आना अच्छा समझा जाता था। एक बार शास्त्री जी स्वयं अपने बेटे का रिज़ल्ट लेने पहुँच गए। टीचर ने जब उन्हें अपनी कक्षा के बाहर खडा देखा तो उनके सम्मान में स्वयं उठ कर आगे आते हुए कहा, “अपने क्यों तकलीफ़ की। यह तो आप किसी से भी मंगवा सकते थे।” इस पर शास्त्री जी ने कहा कि वे वहाँ एक प्रधानमंत्री नहीं बल्कि एक अभिभावक की रूप में आए हैं और अपने बेटे की शिक्षा संबंधी बातों की जानकारी लेकर चले गए। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी गाड़ी भी आम अभिभावकों की तरह परिसर के बाहर ही लगवाई थी, और पैदल ही अन्दर गए थे। दूसरों को नीतिगत पाठ पढ़ाना एक बात है और स्वयं अपने आदर्शों का पालन करना सर्वोतम पाठ है। शास्त्री जी और उनका परिवार इसका जीता-जागता प्रमाण है। एक पति और पिता के आदर्शों को उनकी पत्नी और संतानों ने अपने कर्मों से सदैव जीवित रखा।
मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होंने देश के लिए कुछ कर गुजरने का संकल्प लिया था। सोलह वर्ष में अपनी पढ़ाई छोधकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। असहयोग आन्दोलन, दांडीमार्च और अन्य सभी महत्वपूर्ण आंदोलनों में उन्होंने सक्रिय रूप से भागीदारी की। जेल भी गए, किन्तु अपने इरादों से टस-से-मस न हुए। न उन्हें कभी सत्ता का लोभ रहा, ना कुर्सी का अभिमान। तभी तो नेहरु मंत्रिपरिषद में रेलमंत्री रहते हुए एक रेल-दुर्घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। यह जानते हुए कि इस हादसे में उनकी कोई गलती नहीं है नेहरूजी ने उनका इस्तीफ़ा मंज़ूर किया ताकि यह घटना आने वाली पीढ़ी के लिए एक मिसाल बने। जिन परिस्थितियों में जैसे समय में लाल बहादुर शास्त्री ने देश की बागडोर सम्भाली थी और अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन किया था, वह आसान नहीं था। आलोचनाओं के बीच भी कभी उन्होंने अपनी छवि धूमिल नहीं होने दी। यह उनके ऊँचे आदर्शों और साहस का ही परिणाम था कि उनके अठारह महीने का नेतृत्व इस देश के लिए ऐसी नींव खड़ी कर गया कि जिसपर आत्मनिर्भर भारत की ईमारत बनती नज़र आती है। आज भारत के बच्चे-बच्चे को भारत के इस लाल की कहानी बार-बार सुनाने की आवश्यकता है ताकि उन आदशों को बार-बार जिया जा सके।
- दीपा लाभ
बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। भारतीय संस्कृति और हिंदी से बेहद लगाव है। शैक्षणिक क्रियाकलापों से जुड़ी हैं और लेखन कार्य में सक्रिय हैं।
अन्य न्यूज़