आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण पर ध्यान देना भी जरूरी

जब अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि की क्षमता विकसित होती है तो कई नई चुनौतियां भी आती हैं। हमें आर्थिक वृद्धि तथा सतत विकास के नजरिये से यह निर्णय करना है कि दुर्लभतम संसाधनों का कैसे अनुकूलतम उपयोग होगा।

मानव का अस्तित्व वनस्पति और जीव−जंतु के अस्तित्व पर निर्भर है। हमारे आसपास वृक्ष, जल वायु एवं विभिन्न प्राकृतिक कारकों को हम पर्यावरण के रूप में जानते हैं। पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध प्रकृति से है। अपने परिवेश में हम तरह−तरह के जीव−जन्तु, पेड़−पौधे तथा अन्य सजीव−निर्जीव वस्तुएँ पाते हैं। ये सब मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं। आज के मशीनी युग में हम ऐसी स्थिति से गुजर रहे हैं। आज पर्यावरण से सम्बद्ध उपलब्ध ज्ञान को व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है ताकि समस्या को जनमानस सहज रूप से समझ सके। ऐसी विषम परिस्थिति में समाज को उसके कर्त्तव्य तथा दायित्व का एहसास होना आवश्यक है। इस प्रकार समाज में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की जा सकती है। वास्तव में सजीव तथा निर्जीव दो संघटक मिलकर प्रकृति का निर्माण करते हैं। 

जब अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि की क्षमता विकसित होती है तो कई नई चुनौतियां भी आती हैं। हमें आर्थिक वृद्धि तथा सतत विकास के नजरिये से यह निर्णय करना है कि दुर्लभतम संसाधनों का कैसे अनुकूलतम उपयोग होगा। कई ऐसे प्रमाण हैं जो यह बताते हैं कि ऐसी नीतियों की वजह से कुल मिलाकर मानव कल्याण घट भी सकता है। आर्थिक वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग पर आधारित होनी चाहिए और साथ ही विकास को पर्यावरण की दृष्टि से संतुलित रखा जाना चाहिए। पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों की देखरेख के बिना गरीबी उन्मूलन और एक स्थायी समृद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती। पर्यावरण और आर्थिक वृद्धि में परस्पर संबंध है। पर्यावरण और सामाजिक−आर्थिक विकास आपस में इस तरह से सम्बद्ध हैं कि उनके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के बिना विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।

औद्योगिक उत्पादन में प्राकृतिक संसाधनों और कच्चे पदार्थों जैसे कि जल, इमारती लकड़ी और खनिजों का प्रयोग किया जाता है और इसी के चलते औद्योगिक वृद्धि पर्यावरण के नुकसान का कारण बन जाती है। इसलिए पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास के एजेंडे की स्थिरता के लिए अच्छा संतुलन कायम करना बहुत जरूरी है। पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में सतत विकास के लिए सभी आयामों का संतुलित तरीके से इस्तेमाल करना होगा। विकास तभी टिकाऊ रह सकता है, जब वह प्राकृतिक संतुलन की रक्षा करता हो। पर्यावरण को सामान्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। पहला भौगोलिक और प्राकृतिक पर्यावरण तथा दूसरा कृत्रिम एवं सामाजिक पर्यावरण। प्राकृतिक एवं भौगोलिक पर्यावरण में जल, वनस्पति, पशुधन, खनिज सम्पदा आदि शामिल हैं।

प्राकृतिक वातावरण का हमारे सामाजिक व आर्थिक जनजीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। कृत्रिम एवं सामाजिक वातावरण का निर्माण हमारे सुखी एवं समृद्ध जीवन से है। इस भांति में आर्थिक पर्यावरण में अर्थ व्यवस्था की स्थिति, आर्थिक नियम, मान्यताएं, आर्थिक विकास की दिशा आदि शामिल हैं। आर्थिक पर्यावरण मानव की आर्थिक क्रियाओं से सम्बन्धित है। इसमें मानव द्वारा धनोपार्जन एवं उसे कुशलतापूर्वक व्यय करने से सम्बन्धित सभी क्रियाओं को शामिल किया जाता है। इसमें कृषि, उद्योग, व्यापार, वाणिज्य, परिवहन, संचार, बीमा, बैंकिंग, सरकारी आय−व्यय एवं अन्य सभी वैधानिक आर्थिक गतिविधियां शामिल हैं। आर्थिक पर्यावरण स्थिर नहीं रहता। आर्थिक पर्यावरण देश की आन्तरिक एवं अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से भी प्रभावित रहता है। आर्थिक समृद्धि एवं विकास पर्यावरण पर निर्भर करता है। आर्थिक पर्यावरण रोजगार मूलक है। और देश की प्रगति को संचालित करने में भी सहायक होता है। यदि आर्थिक पर्यावरण प्रतिकूल हो तो गरीबी, बेकारी, भुखमरी, जन असंतोष का सामना करना पड़ता है जो किसी भी देश के विकास को अवरूद्ध करता है। यदि देश का आर्थिक पर्यावरण सही और संतुलित होगा तो देश प्रगति एवं विकास के मार्ग पर आगे बढ़ेगा। लोक कल्याणकारी योजनाएं भी सही दिशा में संचालित होंगी। मानव का सुखमय जीवन भी आर्थिक पर्यावरण के संतुलित विकास पर निर्भर करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि आर्थिक पर्यावरण की अनुकूलता देश के विकास को आगे ले जाने में सहायक का कार्य करती है।

मानव के लिए पर्यावरण का अनुकूल और संतुलित होना बहुत जरूरी है। यदि हमने पर्यावरण संरक्षण पर अभी से ध्यान नहीं दिया तो आने वाला मानव जीवन अंधकारमय हो जाएगा। आर्थिक पर्यावरण का भी हमें ध्यान रखना होगा। आर्थिक पर्यावरण को बचाये रख कर हम मानव जीवन को सुखी और सुरक्षित कर सकते हैं।

- बाल मुकुन्द ओझा

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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